Monday, 20 May 2024

प्रबीर, आपका स्वागत है !

जब भारतीय लोकतंत्र अपने नये सारथी चुनने की कगार पर पहुंच रहा हैतब लगता है कि लोकतंत्र का तीसरा स्तंभ- न्यायापालिका - आने वालों के लिए एक-एक कर हिदायतें जारी कर रहा है. मेरे जैसा कोई कहेगा कि बड़ी देर कर दी मेहरबां आते-आते” या यह भी कि लोकतांत्रिक स्वतंत्रता की कीमत सतत जागरूकता से ही अदा की जा सकती है. जो जागरूक नहीं है वह आजाद भी नहीं रह सकता है. हमारी न्यायपालिका को इसका अब भी अहसास हो तो हम स्वस्थ लोकतंत्र की दिशा में चल सकते हैं. हमारी न्यायपालिका ही एकमात्र संवैधानिक व्यवस्था है जो व्यक्ति व संस्थानों को लोकतांत्रिक अनुशासन में बांध कर रखने का संवैधानिक अधिकार रखती है. इसलिए ही तो संविधान में इसे सत्ता की होड़ से अलग रखा गया है. यह अलग बात है कि इसके भीतर से भी गुलाम मानसिकता वाले पैदा होते हैं और पहले मौके पे सत्ता की तरफ दौड़ लगा लेते हैं. सत्ता चरित्रत: स्वतंत्रता विरोधी होती है. वह कायर व यथास्थितिवादी भी होती है. 

मैं इतना सब लिख पा रहा हूं क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय की जस्टिस बी.आर.गवई-संदीप मेहता की बेंच ने न्यूजक्लिक’ के संस्थापक प्रबीर पुरकायस्थ की कोई 300 दिन पहले यूएपीए में की गई गिरप्तारी को अवैध’ घोषित कर दिया है और वे जेल से बाहर आ गए हैं. हम प्रबीर से क्या कह सकते हैं सिवा इसके कि आइएप्रबीरआपका स्वागत है ! हमें अफसोस है कि हम उस भारत में आपका स्वागत  नहीं कर पा रहे हैं जो आपके जेल जाने वाले दिन से बेहतर भारत है. लेकिन क्या कीजिएगाजो भी हैजैसा भी है हमारा-आपका भारत है जिसे हमें लगातार ज्यादा लोकतांत्रिक व न्यायपूर्ण बनाते जाना है. 

हम प्रबीर से इतना ही कहेंगे लेकिन हमें न्यायपालिका से बहुत कुछ कहना है. हम उससे कहना चाहते हैं कि श्रीमानहम हर तरफ से लोकतांत्रिक परंपरा व संवैधानिक व्यवस्था से दूर होते जा रहे हैं. जो भी सरकार में पहुंच जाता है वह समझता है कि वह यहां पहुंच कर हर मर्यादा व बंधन से ऊपर हो गया है जबकि हमारे संविधान ने राष्ट्रपति से ले कर नागरिक तक सबकी मर्यादा लिख कर सामने धर दी है. उसने उन बंधनों का भी स्पष्ट उल्लेख कर रखा है जिसका पालन सबको करना चाहिए. राष्ट्रपति वह नहीं है जो प्रधानमंत्री की कृपा के नीचे दबा हुआसहमति में गर्दन झुकाए पड़ा है. वह किस समुदाय का हैस्त्री है कि पुरुष संविधान इसका विचार नहीं करता है. वह कहता है कि राष्ट्रपति वह है जो विधायिका-कार्यपालिका-न्यायपालिका पर आखिरी अंकुश है. वह संविधान का आखिरी संरक्षक है. डॉ. राजेंद्र प्रसाद हमारे पहले राष्ट्रपति ही नहीं थेसंविधान की इस परिकल्पना पर खरे उतरने का रास्ता बनाने व बताने वाले भी थे. उनका काम सबसे कठिन था क्योंकि सामने जो सरकार थी वह वर्षों लंबे आजादी के संघर्ष में उनके साथ काम करने वाले बला के समृद्ध जनों की सरकार थी. इतना ही नहींराजेंद्र बाबू के सामने यह नजीर भी नहीं थी कि एक राष्ट्रपति को अपनी संवैधानिक भूमिका कैसे निभानी चाहिए. उन्होंने जो किया वही नजीर बन गई. 

हम राजेंद्र बाबू के निजी व्यवहार व मान्यताओं से असहमत हो सकते हैं लेकिन इसमें शायद ही किसी की असहमति हो कि नवजात लोकतंत्र व रक्तस्नान से गुजरी आजादी के प्रथम राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने पर्याप्त संयम व दृढ़ता से काम किया. ऐसा हम अब तक के राष्ट्रपतियों में से इक्का-दुक्का के लिए ही कह सकते हैं. ऐसा ही हाल लोकसभा के अध्यक्ष की भूमिका का है. उसका पहला व अंतिम दायित्व सांसदों की प्रतिष्ठा व संरक्षण है. वह पार्टी का होता तो है लेकिन संविधान उससे पार्टी से ऊपर उठ कर काम करने की मांग करता है. मुझे यदि संविधान में कोई संशोधन करना हो तो उसमें एक संशोधन यह होगा कि लोकसभा का अध्यक्ष सार्वजनिक जीवन की कोई हस्ती होगा न कि बहुमत से जीती पार्टी का कोई ऐरा-गैरा ! आज लोकसभा व राज्यसभा का अध्यक्ष सबसे व्यक्तित्वहीन व्यक्ति को बनाते हैं जिसकी रीढ़ की हड्डी जन्मजात ही गायब हो. आज वह विपक्ष के सांसदों को बोलने का मौका व समय नहीं देता हैवह उनका माइक बंद करवा देता हैवह इस बात का गर्व करता है कि उसने कितने सांसदों को निलंबित कियाकितनों की सदस्यता छीन ली. कहीं किसी सांसद की गिरफ्तारी होती है तो आज लोकसभा में जूं तक नहीं रेंगती. किसी सांसद की गिरफ्तारी इसलिए बहुत बड़ी बात नहीं है कि उसे कोई विशेषाधिकार प्राप्त है बल्कि इसलिए है कि वह अपनी जनता का नुमाइंदा है. उसकी गिरफ्तारीनिलंबनसदस्यता से वंचित करना उसके मतदाताओं का अपमान है. कोई लोकतंत्र यह कैसे सह सकता है सांसद की चूक भी तो भी वह संसद में विमर्श में सामने आनी चाहिए. लोकसभा का अध्यक्ष यदि अपने सदस्यों का संरक्षण भी नहीं कर सकता है तो वह उस कुर्सी का अधिकारी हो ही नहीं सकता है. 

ऐसा ही न्यायपालिका के साथ भी है. मैं बराबर लिखता रहा हूं कि न्यायपालिका को संविधान ने इसी भूमिका में गढ़ा है कि वह विधायिका-कार्यपालिका-मीडिया के संदर्भ में सतत विपक्ष की भूमिका में रहे - विरोध के लिए नहींसंविधान से बाहर जाने की हर कोशिश को अप्रभावी बनाने व संविधान के दायरे मे खींच लाने के लिए. उसे 24 घंटे सतर्क रहना चाहिए कि देश में कहीं भीकिसी की भी गिरफ्तारी विधायिका-कार्यपािलका द्वारा उसे दी गई सीधी चुनौती है. गिरफ्तारी किसी भी नागरिक से उसका बुनियादी संवैधानिक अधिकार छीनती है. इसलिए प्रबीर हों कि उमर खालिद कि दूसरे कईहर गिरफ्तारी से न्यायपालिका को चौकन्ना हो जाना चाहिए कि उसके संवैधानिक अस्तित्व को चुनौती दी गई है. उसे बगैर किसी का इंतजार किए हर गिरफ्तारी की जांच करनी चाहिए और अपने नतीजे पर पहुंचना चाहिए तथा देश को तुरंत बताना चाहिए. 

कोई व्यक्तिपत्रकार हो कि व्यापारी कि राजनीतिक या सामाजिक कार्यकर्तावह जितने दिन जेल में होता है उतने दिन उसके लिए संविधान व न्यायपालिका का अस्तित्व संशय में होता है. प्रबीर की गिरफ्तारी अवैध थी यह बात सर्वोच्च न्यायालय 300 दिनों के बाद बता रहा है तो यह कहना गलत तो नहीं होगा कि 300 दिनों तक प्रबीर के लिए संविधान स्थगित था तथा न्यायपालिका अस्तित्वहीन कौन सी न्यायपालिकासंविधान की किस धारा से निरपराध प्रबीर के 300 दिन लौटा सकती है इसलिए तो वह पुरानी कहावत हमेशा नई होती रहती है कि न्याय में देरी न्याय को धता बताना है. इसलिए न्यायपालिका को दूसरा सब कुछ छोड़ कर हर गिरफ्तारी का तुरंत संज्ञान लेना चाहिए. 

हम देख रहे हैं कि 7 दशकों के संसदीय लोकतंत्र में सरकारें कानून को मनमाने खेल का खिलौना बना रही हैं. प्रबीर पर आरोप है कि उन्होंने चीन से पैसा लिया है. लिया है कि नहींयह तो प्रबीर ही बताएंगे लेकिन मैं पूछना यह चाहता हूं कि क्या सरकारी खजाने मेंपीएम रिलीफ फंड मेंदूसरे संस्थानों में चीनी पैसा नहीं है चीन से तो हमारा खुला व्यापार-संबंध है. तो चीनी पैसा अपराध कैसे हो गया और चीनी क्योंकोई भी मुद्रा अपराध कैसे हो सकती है यदि वह कानूनी रास्तों से देश में पहुंच रही है ऐसा तो नहीं हुआ होगा कि प्रबीर चीन गए होंगे और टेंपो में भर-भर कर चीनी पैसा भारत ले आए होंगे अगर न्यूजक्लिक’ के पास कोई चीनी डोनेशन कानूनसम्मत रास्तों से आया हैऔर विधिसम्मत तरीकों से न्यूजक्लिक’ ने उसका इस्तेमाल किया है तो प्रबीर यूएपीए के अपराधी कैसे हो गये क्या अपराध की कसौटी यह है कि अपराधी सत्ताधारी का चापलूस है या नहीं अगर ऐसा है तो यह न्यायपालिका के मुंह पर तमाचा है. विधायिका व कार्यपालिका जब अपनी संवैधानिक अौकात भूल जाती हैऔर मीडिया चूहे से ज्यादा अपनी हैसियत नहीं मानती है तब नागरिक अनाथ हो जाता है. तानाशाही या फासिज्म ऐसी ही परिस्थिति बनाती है और ऐसी ही परिस्थिति में फूलती-फलती है. हमारा संविधान इस बारे में पर्याप्त सजग है. उसने न्यायपालिका को शक्ति दे रखी है कि वह तानाशाही या फासिज्म को फलने-फूलने से रोक सके. लेकिन शक्ति काफी नहीं होती हैशक्ति का अहसास व उसके इस्तेमाल की प्रेरणा जरूरी होती है. हनुमान को भी उनकी शक्ति का अहसास कराना पड़ा था न !

इसलिए गवई-मेहता बेंच ने न्यायपालिका की उस भूमिका को फिर से उजगर किया है जिसका सिरा पकड़ कर संजीव खन्ना-दीपांकर दत्ता खंडपीठ ने केजरीवाल को अंतरिम जमानत दी. गवई-मेहता बेंच को प्रबीर की अवैध गिरफ्तारी के दायरे में उमर खालिद व अन्य सबको भी समेट लेना चाहिए था. ये अलग-अलग मामले नहीं हैंविधायिका-कार्यपालिका द्वारा न्यायपालिका को दी जा रही चुनौती है. भारत सरकार के गृहमंत्रालय व दिल्ली पुलिस को तत्क्षण सर्वोच्च न्यायालय के कठघरे में खड़ा करना चाहिए और सारी गिरफ्तारियों का संवैधानिक अौचित्य जांचना चाहिए. 

4 जून को जो भीजैसे भी सत्ता की तरफ बढ़े वह जान ले कि अब न्यायपालिका उसे संविधान व कानून से खेलने का कोई भी मौका नहीं देगी तो हम कहेंगे कि भाई प्रबीरहम आपके 300 दिन तो लौटा नहीं सकते लेकिन दूसरे प्रबीरों के 300 दिन पर आंच नहीं आने देंगे. आखिर तो हमारा लोकतंत्र प्रौढ़ हो रहा है ! ( 16.05.2024)

                                                                                                                                     

दो चेहरों वाली अदालत

मैं परेशान हूं कि देश में एक न्यायपालिका है लेकिन उसके दो चेहरे हैं. किंवदंति है कि रावण के कई सर थे- दशानन;  लेकिन यह नहीं कहा जाता है कि वे सारे सर भिन्न-भिन्न बातें बोलते थे. सर भले कई होंवे सब एक ही तरह से सोचते-करते हों तभी व्यवस्था की गाड़ी चल सकती है. ऐसा न हो तो कोई भी व्यवस्था नहीं चल सकती है - खास कर न्यायपालिका ! यहां दो तरह की मनोभूमिका बेहद चिंताजनक व खतरनाक होती है.   

    हमारी न्यायपालिका का एक चेहरा सर्वोच्च न्यायालय की उस खंडपीठ का है जिसने कुल जमा 50 से अधिक दिनों तक जेल में रहने के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को जेल से रिहा कर दिया - कुल जमा 22 दिनों के लिए. 2 जून 2024 को उन्हें वापस जेल लौट जाना होगा. सर्वोच्च न्यायालय की संजीव खन्ना-दीपांकर दत्ता खंडपीठ ने जो आदेश दिया है उसके मुताबिक केजरीवाल इस बीच मुख्यमंत्री की हैसियत से कोई भी काम नहीं कर सकेंगेदफ्तर भी नहीं जा सकेंगेफाइलें भी नहीं निबटा सकेंगे लेकिन वे अपनी पार्टी व अपने गठबंधन का देशव्यापी चुनाव प्रचार कर सकेंगे. सारे सरकारी प्रशासन ने व अब मोदी-तंत्र बन चुके ईडीइंकमटैक्स जैसे संस्थानों ने हर तरह का तर्क आजमाया ताकि केजरीवाल को चुनाव खत्म होने तक जमानत न मिल सके लेकिन अदालत ने उनके सारे तर्कों को खारिज करते हुए केजरीवाल को सशर्त जमानत दे दी. कहा : “ अरविंद केजरीवाल के बारे में आरोपियों ने यह ठीक ही ध्यान दिलाया है कि अक्तूबर 2023 से गिरफ्तारी तक भेजी ईडी की 9 नोटिसों-समन की उन्होंने उपेक्षा की. उनके मामले में यह प्रतिकूल तथ्य है लेकिन इस मामले में दूसरे भी कई तथ्य ऐसे हैं कि जिन पर ध्यान देना जरूरी है. आरोपी दिल्ली का मुख्यमंत्री हैएक राष्ट्रीय पार्टी का नेता है. इसमें शक नहीं कि उस पर गंभीर आरोप लगाए गए हैं लेकिन अभी तक वे सिद्ध नहीं हुए हैं. उनका पहले का कोई आपराधिक रिकार्ड नहीं है. वे समाज पर किसी तरह का खतरा नहीं हैं… यह कहने की जरूरत नहीं है कि लोकसभा का चुनाव लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है जो अगले पांच साल के लिए देश की सरकार का फैसला करेगा. इसलिए हम आरोपियों के इस तर्क को खारिज करते हैं कि केजरीवाल को अंतरिम जमानत देना सामान्य नागरिकों की तुलना में राजनेताओं का विशेष सुविधाप्राप्त वर्ग बनाना हो जाएगा.” इस तर्क के साथ सर्वोच्च न्यायालय ने सत्तापक्ष की सारी कोशिशों को धता बताते हुए केजरीवाल को अंतरिम जमानत दे दी.

   जैसा कि अदालत ने कहा है कि अंतरिम जमानत का मतलब केजरीवाल को अपराधमुक्त घोषित करना नहीं हैठीक उसी तरह मैं भी यह साफ कर दूं कि मेरे इस लेख का मतलब कोई ऐसा न निकाले कि मैं केजरीवाल की सरकारी व निजी नीतियों का समर्थन कर रहा हूं. मैं कहना यह चाह रहा हूं कि खन्ना-दत्ता पीठ ने जिस तरह इस मामले को सरकारी धौंस व कानून की मृत बारीकियों से बाहर निकल कर समझने व समझाने की कोशिश कीउससे सर्वोच्च न्यायालय का कद बड़ा हुआ है व लोकतंत्र के पांव मजबूत हुए हैं.  

   लेकिन यही न्यायपालिका जब पुणे में विशेष सुनवाई के लिए बैठती हैतब उसकी चेतना व समझ को लकवा क्यों मार जाता है जिस दिन केजरीवाल को अंतरिम जमानत देने का फैसला सामने आयाउसी 10 मई को 11 साल पुराने डॉ. नरेंद्र दाभोलकर हत्याकांड का फैसला भी सामने आया. यहां अदालत मामले की नजाकत को समझने में पूरी तरह विफल रही. समाज में फैली अंधश्रद्धा न्याय की किसी भी अवधारणा को सदियों से विफल करती हुईअट्टहास करती आ रही है. हमारे सामाजिक जागरण व बौद्धिक सजगता का जैसा क्रूर मजाक अंधविश्वास फैलाने तथा उसकी आड़ में अपना स्वार्थ सिद्ध करने वालों ने किया हैकरते आ रहे हैंउसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती है. यह इंसानी समझ को धता ही नहीं बताती है बल्कि इंसानी कमजोरियों को निशाने पर ले कर समाज का मनोबल तोड़ देती है. 

   डॉ. दाभोलकर व उनकी अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति ने इसके खिलाफ मोर्चा खोला था. बौद्धिक-सांस्कृतिक-शैक्षणिक से ले कर प्रत्यक्ष प्रतिरोध का हर मंच उन्होंने इस्तेमाल किया. ऐसे एक आदमी की हत्या सनातन संस्था नाम के एक प्रतिगामी गंठजोड़ ने दिन-दहाड़े कर दीतो यह एक व्यक्ति की ही नहींउस सामूहिक प्रयास की हत्या थी जो समाज को अंधविश्वासों के प्रति जाग्रत कर रहा था. पुणे पुल पर20 अगस्त 2013 की सुबह उन्हें गोली मार दी गई. 11 साल से पुलिस व अदालत अपराधी को पकड़ने व सामने लाने में लगी थी लेकिन दोनों इस कदर विफल रहते हैं कि 11 साल बाद विशेष जज पी.पी. जाधव कहते हैं : “ हमारे पास शंका करने के पर्याप्त कारण थे लेकिन पुलिस इनके खिलाफ पर्याप्त सबूत जुटाने में विफल रही. इन सब पर शक के निश्चित व ठोस कारण थे लेकिन निश्चित सबूत के अभाव में हमें इन्हें छोड़ना पड़ा.” इसके बाद जज साहब ने वह सब भी कहा जिसे कहने का सारा अधिकार वे पहले ही गंवा चुके थे. उन्होंने कहा कि किसी भी इंसान की हत्या दुर्भाग्यपूर्ण है. लेकिन आरोपियों नेखासकर उनके वकील ने कुछ ऐसे तर्क पेश किए जिनसे इस हत्या को जायज साबित करने की कोशिश हुई. यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है. 

   अब न्यायपालिका को व समाज को सोचना यह चाहिए कि जिस व्यक्ति या संस्थान पर शंका करने के पर्याप्त सबूत थे”, उसे 11 साल की कोशिश के बाद भी आप अपराधी सिद्ध नहीं कर पाए तो अदालत व पुलिस किस मर्ज की दवा हैं अदालत व जज साहबान का एक हीजी हां,  एक ही काम है कि वे सच को खोज निकालें तथा अपराधी को बचने नहीं दें. आप देख भी रहे हैंसमझ भी रहे हैंमान भी रहे हैं कि जो छूट रहे हैं वे हत्या जैसे जघन्य अपराध के अपराधी तो हैं लेकिन जांच एजेंसियांपुलिस आदि सही तरीके से जांच नहीं कर रही हैं. तो फिर अदालत क्या करेगी मैं समझता हूं कि अदालत और जज साहबान की पेशेगत नैतिकता व संवैधानिक दायित्व कहता है कि उन्हें जांच एजेंसियों को कड़ा निर्देश देना चाहिए कि वे जांच में क्या-क्या ऐसा छोड़ रहे हैं जिससे मामला कमजोर पड़ रहा हैऔर उन्हें किस दिशा में जांच पूरी करनये साक्ष्य के साथ तुरंत अदालत के सामने उपस्थित होना चाहिए. जब तक ऐसा नहीं होता है तब तक अदालत न किसी को मुक्त करेगीन हल्की सजा देगी बल्कि मुकदमा लंबित रहेगा तथा पुलिस व सरकार पर अदालत का दवाब बना रहेगा. पुणे की इस अदालत ने किस आधार पर मुकदमा बंद कर दिया या अपराधियों के लिए ऊपर की अदालत तक जाने का रास्ता बना दिया ऊपरी अदालतों में तो मामलों की और भी धकमपेल हैतो मामला वहां भेज कर आप अपनी जिम्मेवारियों से कंधा झटकने भर का काम कर रहे हैं जो आपकी अयोग्यता सिद्ध  करता है. 

   न्यायपालिका याद करेऔर हमेशा याद रखे कि स्वतंत्रता के बाद दो-दो बार ऐसा हुआ है कि अपनी तटस्थता व साहस खो देने के कारण न्यायपालिका ने सारे राष्ट्र को शर्मिंदा किया है. पहली थी महात्मा गांधी की हत्या. उस मुकदमे ने हमारी न्यायपालिका के चेहरे पर ऐसी कालिख मली है जो कभी छूटेगी नहीं. नाथूराम गोडसे से ले कर सावरकर तक सभी उस हत्या के प्रमाणसहित सीधे गुनहगार थे. पुलिस व जांच एजेंसियां राजनीतिक दवाब व भय से तथा अपनी पक्षधरता से उस तरह जांच नहीं कर रही थीं जिस तरह करने की जरूरत थी. तब जज साहब क्या कर रहे थे तब सरकार क्या कर रही थी क्या अदालत सावधान थी कि वह किसी भी स्तर पर अपराधी को बचने का मौका नहीं देगी क्या सरकार सावधान व प्रतिबद्ध थी कि वह अपनी मशीनरी को किसी भी स्तर पर कोताही बरतने नहीं देगी गांधी-हत्या पर लिखी गई प्राय: हर किताब में अदालत के व सरकार के रवैये पर गहरा क्षोभ दर्ज है तो इसी कारण से. गांधी से दाभोलकर तक की हत्या में हत्यारे इतनी लंबी दौड़ लगा चुके हैं लेकिन अदालत आज तक बैठी है कि न्याय के लिए जरूरी प्रमाण उसके पास चलकर आएंगे नहींप्रमाण निकलें व चलकर अदालत तक पहुंचे इसकी सावधान कोशिश अदालत कोजज साहबान को तथा सरकार को भी करनी होगी. औपनिवेशिक अदालत व लोकतांत्रिक अदालत में यदि इतना फर्क भी दिखाई न दे तो न्यायपालिका व विधायिका को किसी भी तरह की सामाजिक प्रतिष्ठा व स्वीकृति की बात भूल ही जानी चाहिए. न्याय तक पहुंचना मशीनी प्रक्रिया नहीं है. उसमें जज साहबान की बारीक कानूनी पकड़ तथा मानवीय व संवैधानिक प्रेरणा के प्रति गहरी प्रतिबद्धता भी कसौटी पर होती है. 

   ऐसा ही तब भी हुआ जब लोकतंत्र की समझ व उसके प्रति प्रतिबद्धता की परख करने आपातकाल देश के सामने आया. जयप्रकाश नारायण ने मामला आसान बना दिया था :  यह लोक बनाम तंत्र की लड़ाई है. उन्होंने पक्ष-विपक्ष की राजनीति से एकदम अलगएक नया ही विमर्श देश में खड़ा कर दिया था : लोक की व्यापक असहमति को कुचलने का अधिकार किसी भी तंत्र के पास नहीं हो सकता है. उन्होंने कहा : लोकतंत्र किसी सरकार का मामला नहीं है. लेकिन उस नाजुक कालखंड में हमारी न्यायपालिका निरक्षर भट्टाचार्य साबित हुई. वह तो जिस संविधान की रक्षा की शपथ लेती हैउसकी ही भक्षक बन गई. उसने तो कानूनी संप्रभु’ को संवैधानिक संप्रभु’ का आका घोषित कर दिया. उस कलंक को धोने में न्यायपालिका को वैसी हिम्मत व दूरदृष्टि बार-बार दिखानी होगी जैसी केजरीवाल की अंतरिम जमानत के प्रश्न पर खन्ना-दत्ता की खंडपीठ ने दिखाई. उनके लिए आसान था कि वे केजरीवाल की रिहाई से मुंह फेर लेते क्योंकि सरकारजांच एजेंसियांगोदी मीडिया सभी तो समवेत सुर में मोदी-राग ही गा रहे थे. मनीष सिसोदिया से केजरीवाल तक ऐसा जाल बुना गया था कि दूसरा कुछ देखने-सुनने की अदालत को जरूरत भी नहीं थी. लेकिन संसदीय लोकतंत्र में चुनाव का संदर्भराजनीतिक दलों की भूमिकाकेजरीवाल का एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल का अध्यक्ष होनाचुनाव से ठीक पहले उनकी गिरफ्तारी और सत्ता-पक्ष द्वारा मामले का लंबा खींचने की रणनीति सबको खन्ना-दत्ता खंडपीठ ने आंका व अंतरिम जमानत का आदेश दे दिया. उन्होंने वे जरूरी प्रतिबंध भी लगा दिए जिससे केजरीवाल स्वंय को अपराधमुक्त मानने का भ्रम न पाल लें लेकिन यह भी घोषित कर दिया कि लोकतंत्र के खेल को खेल बनाने की भूल सत्तापक्ष भी न करे. यदि इस खंडपीठ ने केजरीवाल की जमानत को नजीर बनाते हुएऐसी ही शर्तों के साथ झारखंड में हेमंत सोरेन के लिए भी निर्देश जारी किया होता तो इससे न्यायपालिका का चेहरा और साफ हो जातालोकतंत्र की सूरत कुछ और चमक उठती. 

   न्यायपालिका सतत संविधान की कसौटी पर होती है और लोक हमेशा ही संविधान का संरक्षण चाहता हैयह लोकतांत्रिक दायित्व संविधान ने न्यायपालिका की गांठ में बांध दिया है. यह गांठ कमजोर होगी या भुला दी जाएगी तो न्यायपालिका जितने भी चेहरे लगा लेवह स्याह ही होता जाएगा.( 14.05.2024)       

Saturday, 4 May 2024

मिस मेयो : मिस्टर मेयो

     इतिहास भी कमाल के गोते लगाता है ! भला सोचिए, 2024 में वह 1927 की कहानी दोहरा रहा है. तब यानी 1927 में एक थीं कैथरीन मेयो और एक थे महात्मा गांधी. महात्मा गांधी कौन थे यह तो अधिकांशत: हम सब जानते ही हैं ( मैं व्हाट्एप यूनिवर्सिटी के महान इतिहासकारों को भी इसमें शामिल कर रहा हूं ! ), लेकिन कैथरीन मेयो कौन थीं यह जानने की जरूरत अधिकांश पाठकों को पड़ेगी. तो बताता हूं कि वे एक अमरीकी, श्वेत चमड़ी की श्रेष्ठता के भाव से भरी, नकचढ़ी पत्रकार सरीखी कुछ थीं जिन्हें कुछ लोग तब उसी तरह इतिहासकार भी कहते थे जिस तरह अब कुछ लोग गृहमंत्री अमित शाह को दार्शनिक कहते हैं. 20 के दशक में मिस मायो भारत आई थीं. गांधीजी से भी मिली थीं, दूसरी हस्तियों से भी मिली थीं, रवींद्रनाथ ठाकुर से भी मिली थीं. गांधीजी के निर्देश में चल रहे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से असहमत, असंतुष्ट, नाराज मेयो मैडम ने एक किताब लिखी :  मदर इंडिया ! ना, ना, आप ऐसा मत मान बैठिएगा कि महबूब खान की प्रसिद्ध फिल्म मदर इंडिया मेयो मैम की इस किताब से प्रेरित थी. मेयो मैम मदर इंडिया में अपना अलग ही राग गाती हैं.   

   यह किताब भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्योंउसकी दिशाउसकी उपलब्धियों आदि की धज्जियां उड़ाती हुई यह साबित करती है कि यह भारतीय समाज कुरीतियों-अन्याय-अत्याचार तथा शोषण की गंदी व्यवस्था पर टिका एक ऐसा गर्हित समाज है जिसे गुलाम बना कर अंग्रेजों ने ( कहें : श्वेत चमड़ी वालों ने ! ) कुछ सभ्य,कुछ मानवीय बनाया है. मेयो मैम की किताब तब कई लोगों को नागवार गुजरी थी लेकिन वह किताब जल्दी ही गुजर भी जाती’ यदि गांधीजी ने उसे पढ़ा न होता. बहुत कहने पर गांधीजी ने न केवल मदर इंडिया’ पढ़ी बल्कि चौतरफा आग्रह के कारण, ‘ बहुत व्यस्तता’ में से समय निकाल कर उस पर एक टिप्पणी भी लिखी जो 15 सितंबर 1927 को यंग इंडिया’ में प्रकाशित हुई.  महात्मा गांधी ने अपनी टिप्पणी का शीर्षक दिया : ‘ ड्रेन इंस्पेक्टर रिपोर्ट’ : नाली सफाई के जमादार की रिपोर्ट ! गरज यह कि जिसका धंधा ही गंदगी को उकेर-उकेर कर देखना हैवह गंदगी के अलावा देखेगा भी तो क्या और वर्णन भी करेगा तो गंदगी की ही करेगा. महात्मा गांधी की अपनी शैली में यह खासी कड़ी टिप्पणी थी. गांधीजी ने लिखा कि यह “ बड़ी चालाकी से लिखी सशक्त किताब है… जो किसी हद तक सत्य का बखानअसत्य के प्रचार के लिए करती है.” 

   अब न कैथरीन मेयो हैंन गांधीजी हैं लेकिन गंदगी फैलाने का धंधा जोरों पर है. गंदगी को सहेजने तथा ‘ बड़ी चालाकी से सत्य का बखान इस तरह करना कि असत्य का प्रचार हो’ वाली संस्कृति जीवित भी हैजारी भी है. सो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस कला में महारत हासिल कर ली है. वे अब इस कला के उस्ताद जमादार’ बन गए हैं. हम देखें तो प्रधानमंत्री मोदी का कुल इतिहास 2014 से शुरू होता है और कुर्सी तक पहुंच कर चुक जाता है. वे सत्ता की जिन दो कुर्सियों पर बैठे हैं - मुख्यमंत्री व प्रधानमंत्री - यदि वे कुर्सियां हटा दी जाएं तो उनके पास कुछ भी बचता नहीं है. कुर्सी के बिना वे उसी तरह अर्थहीन हो जाते हैं जैसे नालियों के बिना सफाई जमादार ! 

   मोदी चुनाव के सन्निपात में इधर जब-जब मुंह खोल रहे हैंइतिहास का मुंह खुला रह जाता है. वैसे भी प्रधानमंत्री झूठ व सच में फर्क करने जैसी नैतिकता में कभी पड़ते नहीं हैं. सत्ता की कुर्सी पर बैठ कर किसी झूठ को जोर-जोर से सौ बार बोलो तो वह लोगों के बीच किसी हद तक सच की तरह स्थापित हो जाता हैइसे मान कर अहर्निश कार्यरत रहते हैं प्रधानमंत्री. उन्होंने कहा कि कांग्रेस का चुनाव घोषणापत्र उन्हें मुस्लिम लीग के घोषणापत्र जैसा लगता है. कोई प्रमाण कोई साम्यता नहींयह सब बताना प्रधानमंत्री का काम थोड़े ही है ! उन्हें पता है कि उनकी बात को गोदी मीडिया’ देश भर में पहुंचा देगा और जहां-जहां उनका कहा मुस्लिम’ शब्द पहुंचेगा,सांप्रदायिकता के अनुकूल वातावरण बन ही जाएगा. उन्हें इस वातावरण से मतलब है क्योंकि इससे वोट की फसल अच्छी बनती व कटती है. 

    उन्होंने कहा कि कांग्रेस लोगों से घर छीन लेगीभैंस छीन लेगीधन छीन लेगीमंगलसूत्र छीन लेगी और यह सारा मुसलमानों को दे देगी. कोई प्रमाण कोई संदर्भ नहींयह सब बताना प्रधानमंत्री का काम थोड़े ही है ! उन्होंने बस कह दियाअब ‘ गोदी मीडिया’ अपना काम करेगा और वातावरण जहरीला बनता जाएगा. समाज जितना जहरीला बनता जाएगावोट की फसल उतनी जल्दी पकेगी. पकी फसल काटनेवाले योगियों की कमी थोड़े ही है प्रधानमंत्री के पास ! 

   उन्होंने कह दिया कि ‘ पाकिस्तान युवराज को प्रधानमंत्री बनाने को बेकरार  है’, तो कह दिया. गोदी मीडिया के पंखों पर सवार हो कर बात सब दूर फैल गई. इसमें पाकिस्तान’ और युवराज’ दो ही शब्द हैं जिसका जहरीला असर प्रधानमंत्री को पैदा करना है. उन्हें लगता है कि देश आज भी इतना जाहिल है कि उनका मनचाहा हो जाएगा. सच क्या है सच इतना ही है कि पाकिस्तान के एक सांसद को मोदी से कहीं भला लगता है कि राहुल गांधी भारत के प्रधानमंत्री हों. किसी एक व्यक्ति को पूरे देश का प्रतिनिधि बता कर कुछ भी बयान दे देनागांधी के शब्दों में ड्रेन इंस्पेक्टर रिपोर्ट’ है.  

   पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का संदर्भ दे कर प्रधानमंत्री ने कहा कि कांग्रेस कहती है कि देश के धन पर पहला हक मुसलमानों का है. कोई प्रमाण कोई संदर्भ तुरंत ही गंदी नाली में उतरे प्रधानमंत्री के सिपाही और  खोज लाए एक वीडियो. वीडियो चलाया गया तो उसमें मनमोहन सिंह कह रहे हैं कि देश के संसाधनों पर पहला हक उनका होना चाहिए जो कमजोर हैंअल्पसंख्यक हैं. हमारे देश में मुसलमान भी अल्पसंख्यक की श्रेणी में आते हैंतो उनका नाम भी लिया मनमोहन सिंह ने. यह कोई छुपी बात तो है नहीं कि महात्मा गांधी के नेतृत्व में जिस कांग्रेस का जन्म हुआ वह अंतिम आदमी की बात करती थी तथा यह भी मानती थी कि वह अंतिम आदमी हमारे विकास की कसौटी भी है और कारण भी. धर्म के आधार पर इनमें फर्क करना कांग्रेस की नीति में नहीं है. व्यवहार में राजनीति बहुत कुछ ऐसा कराती है जैसा इन दिनों मोदी-कुनबा कर रहा हैतो जितनी छूट इन्हें है उतनी छूट मनमोहन सिंह को क्यों नहीं दी जानी चाहिए कांग्रेस और मनमोहन सिंह सांप्रदायिकता का फायदा उठाते होंगे भले लेकिन सांप्रदायिकता उनकी राजनीति का आधार कभी नहीं रही है. हिंदू महासभा से ले कर भारतीय जनता पार्टी तक अपने हर अवतार में नरेंद्र मोदियों ने सांप्रदायिकता को ही अपनी राजनीति का आधार बनाया है. इन दोनों में बहुत बड़ा गुणात्मक फर्क है. 

   मोदी के छुटभैय्यों में से एक राजनाथ सिंह जब नाली में उतरे तो यह गंदगी समेट लाए कि महात्मा गांधी कांग्रेस को समाप्त करना चाहते थे लेकिन नेहरू एंड कंपनी ने यह होने नहीं दिया. यही महाशय थे जिन्होंने नाली छान कर यह गंदगी समेटी थी कि सावरकर ने महात्मा गांधी के कहने से अंग्रेजों को माफीनामा लिखा था. वह झूठ आज तक उनका मुंह काला करता हैतो यह नया सत्य इन्हें कहां ला पटकेगा ! महात्मा गांधी की जिस दिन संघ-परिवार ने हत्या कीउससे पहले की रात गांधीजी ने अपनी जिंदगी का आखिरी दस्तावेज लिखा था. उसे पढ़ने व समझने की कसरत भले न करें राजनाथ सिंह लेकिन इतना तो जानें कि उस दस्तावेज में गांधीजी ने लिखा था कि आजादी मिलने के साथ ही कांग्रेस पार्टी का काम पूरा हो गया. अब इसे विसर्जित कर देना चाहिए. कांग्रेस पार्टी के जो लोग सत्ता की राजनीति में काम करना चाहते हैं उन्हें अपनी नई पार्टी बनानी चाहिए. लेकिन ईमानदारी से इतिहास का ककहरा भी जिसने पढ़ा होगा उसे इसी के साथ एक दूसरा दस्तावेज भी मिलेगा जिसमें आजादी के बाद गांधी जवाहरलाल से पूछते हैं कि तुम अब कांग्रेस की क्या भूमिका देखते होऔर जवाहरलाल कहते हैं कि उन्हें अब कांग्रेस की कोई खास भूमिका दिखाई नहीं देती हैतो गांधी कहते हैं कि नहींकांग्रेस कभी खत्म नहीं होगीउसे कभी खत्म नहीं होना चाहिए क्योंकि वह जिन मूल्यों के लिए काम करती रही हैवे मूल्य अक्षुण्ण हैं. राजनीति के जोकरों के लिए यह बारीकी समझ पाना संभव नहीं है कि गांधीजी कांग्रेस संगठन व कांग्रेस मूल्य में फर्क करते हुए जवाहरलाल को सावधान करते हैं. इसलिए कांग्रेस जिन मूल्यों के लिए बनी व लड़ी थीउन मूल्यों को खत्म करने में लगी संघी धारा को कोई नैतिक हक नहीं है कि वह महात्मा गांधी की उन बातों का संबंध आज से जोड़े. और इतिहास के पन्ने ही पलटने हों तो राजनाथ सिंहों को वे सारे पन्ने भी देखने चाहिए जिनमें गांधीजी ने हिंदू महासभा-राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ जैसे सांप्रदायिकता में तैरने वाले संगठनों के लिए कठोरतम वर्जनाएं की हैं. 

   सच और झूठ में क्या फर्क है बकौल कृष्णबिहारी नूर’ : 

   सच बढ़े या घटे तो सच ना रहे / झूठ की कोई इंतहा ही नहीं. जैसे यह शेर भारतीय जनता पार्टी के लिए ही लिखा गया है. ( 03.05.2024)