गुरु परब या प्रकाश पर्व पर केंद्र सरकार को इतना अंधरा क्यों दिखाई दिया कि उसने अपना रास्ता ही बदल लिया ? ऐसा क्या हुआ कि मुट्ठी भर गुंडे, आतंकवादी, खालिस्तानी, देशद्रोही किसानों के सामने, 2014 में देश को आजाद कराने वाली अजेय सरकार व दुनिया के सबसे बड़े राजनीतिक दल ने घुटने टेक दिए ? ऐसा क्या हुआ कि किसानों को इन स्वर्णिम कानूनों का असली स्वरूप समझाने की 11 दौर की खोखली बातचीत में सरकार जो सत्य खुद नहीं समझ पा रही थी, वह अचानक उसकी समझ में आ गया ? क्यों ऐसा हुआ कि साल पूरा होते-न-होते किसानों का आंदोलन बिखर जाएगा जैसी बात का प्रचार करने वाली सरकार का संकल्प, साल पूरा होने से पहले ही दम तोड़ गया ? और एक सवाल यह भी कि इतिहास बदल देने वाली हर महत्वपूर्ण घोषणा आधी रात को करने वाली सरकार ने यह घोषणा सुबह में क्यों की ? कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार खुद ही देख व समझ रही है कि रात के अंधेरे में की उसकी सारी घोषणाएं रात के अंधेरे में ही बिला कर रह गई हैं ?
किसानों का यह पूरा मामला, 2014 से उठ रहे हर मामले की तरह ही, प्रधानमंत्री की सीधी देख-रेख में, उनकी रणनीति से चलाया व बढ़ाया जा रहा था. इसलिए कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री ने बड़ी चतुराई से, पतली गली से निकलने की कोशिश में यह कहा कि यह वक्त किसी को दोष देने का नहीं है बल्कि आंदोलनकारी किसान भाइयों के घर लौट जाने का है. दुष्यंत कुमार के शब्द उधार लूं तो कहूंगा : चाकू की पसलियों से गुजारिश तो देखिए ! श्रीमान, यह कैसा तर्क है ? जब सरकार खुले आम माफी मांग रही हो तो इससे ज्यादा मौजूं वक्त दूसरा क्या हो सकता है कि देश देखे-समझे कि कृषि कानूनों के संदर्भ में दोष किसका है; क्षद्म कहां है; अहंकार का जहर कहां-कहां नसों में उतर रहा है और कौन है कि जो अप्रतिम कहलाते हुए भी लगातार मिट्टी का माधो साबित हो रहा है ? सवाल 3 कृषि कानूनों का ही नहीं है. कृषि कानून जिस श्रृंखला में आते हैं उसकी प्रारंभिक कड़ियां नोटबंदी, जीएसटी, भूमि अधिग्रहण कानून, श्रम कानून, नागरिकता कानून, बैंकिग प्रणाली का बंटाधार, कोरोना का लॉकडाउन, अमरीकी नागरिकों से ट्रंप की भोंडी पैरवी, कश्मीर का विभाजन, चीन से लगातार पिटती हमारी राजनयिक चालें, देश की तमाम संवैधानिक संस्थाओं के क्षुद्र राजनीतिकरण से भी जुड़ती हैं. ये सारे कानून, ऐसी सारी पहलें एक ही अक्ल से पैदा हुई थीं और एक ही प्रक्रिया से देश पर थोपी गई थीं. इसलिए इनकी समीक्षा करने का यह सही वक्त है जब समय ने अपना आईना सामने कर दिया है.
जिन कृषि कानूनों के बारे में धमकी देते हुए कहा जाता रहा कि किसान और कुछ भी मांग लें लेकिन इन कानूनों की वापसी का सपना भी न देखें, वे ही कानून रद्दी की टोकरी में डाल दिए जाएं तो कोई पूछे भी नहीं कि या इलाही ये मांजरा क्या है ? अगर चुप ही रहना था तो फिर प्रधानमंत्री ने कैसे कहा कि दिये के प्रकाश की तरह साफ था कि इन कानूनों से किसानों का भला होने वाला है लेकिन कुछ जड़बुद्धि किसानों को यह समझ में ही नहीं आया. तो दोष निकालने का काम तो आपने शुरू कर दिया न ! फिर यह तो पूछा ही जाएगा कि ‘इन कुछ किसानों’ के अलावा आपके सारे किसान कहां हैं अब ? फिर आपने यह भी कहा कि हम एक कमिटी बनाएंगे जिसमें फलां-फलां तरह के लोग रहेंगे जो किसानों के सारे सवालों की समीक्षा करेंगे और अपनी सिफारिश देंगे. तो प्रकारांतर से आपने यह कबूल किया न कि आपकी पिछली प्रक्रिया दोषपूर्ण थी ! उसमें किसी स्तर पर भी विचार-विमर्श की बात की ही नहीं गई थी. न संसद में, न सलेक्ट कमिटी में, न सर्वदलीय बैठक में कहीं भी कृषि कानूनों पर विमर्श के लिए सरकार तैयार नहीं थी. कोरोना के लिए थाली बजाओ की तर्ज पर किसानों से कहा गया कि ताली बजाओ ! किसानों ने ताली नहीं बजाई बल्कि एक-दूसरे का हाथ थाम लिया.
लोकतांत्रिक विमर्श का कोई भी सार्वजनिक मंच अस्तित्व में न रहने दिया जाए तो क्या आप एकतरफा भाषणों व सिर्फ अपने मन की बात से लोकतंत्र का ढांचा टिकाए रख सकते हैं ? यही क्षद्म था जिसका आज पर्दाफाश हुआ है. सरकार भी समझे और किसान भी और विपक्ष भी कि बुनियादी सवाल लोकतंत्र को एक व्यक्ति की अक्ल व अहंकार का बंदी बनाने का है - फिर वह पार्टी हो कि परिवार कि आंदोलन कि संगठन!
अंधभक्ति का सबसे बड़ा दोष यह है कि वह धंधा ही अंधों का है. अंधों का अंधकार घना ही नहीं होता है, अभेद्य भी होता है. ऐसा ही इस सरकार के साथ हो रहा है - अहंकार में फूली सरकार, चापलूसी में लगी नौकरशाही और अंधभक्तों की जय जयकार ! इस तिकड़ी ने देखा ही नहीं कि 700 किसानों के बलिदान के बाद भी आंदोलन का दायरा बढ़ता जा रहा है, संकल्प मजबूत होता जा रहा है और वह कई ऐसे सवालों को समेटने भी लगा है जिसे सामाजिक जीवन के विमर्श से बाहर ही कर दिया गया था.
किसानों ने एमएसपी की आड़ में चलाए जा रहे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अन्न व्यापार को और उसके साथ खड़ी सरकार को पहचानना शुरू कर दिया. उसने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बंदियों का सवाल भी उठाया, जीप से किसानों को कुचलने की रणनीति बनाने वाले गृह राज्यमंत्री की औकात भी बताई. दिल्ली की सीमा पर किसानों को रोकने के लिए जिस तरह कीलें गाड़ी गईं, दीवारें खड़ी की गईं, सड़कें जाम की गईं, पुलिस से किसानों की पिटाई करवाई गई, वह सब किसी भी लोकतांत्रिक सरकार को शर्मसार करने के लिए काफी था. लेकिन शर्म तो छोड़िए, कभी एक मानवीय बोल भी प्रधानमंत्री के मुंह से नहीं फूटा. किसानों ने यह सारा कुछ जिस संयम व स्वाभिमान से झेला उस कारण इसका कुछ ऐसा स्वरूप बनता गया कि किसानों के नेतृत्व में चलने वाला एक जन आंदोलन उभरने लगा. यह बात किसानों की समझ में आने लगी कि तीनों कानूनों की वापसी, एमएसपी की गारंटी आदि आंदोलन की मांगें भले हैं लेकिन असली बात तो यह है कि कारपोरेटी अर्थ-व्यवस्था का शिकंजा जब तक टूटता नहीं है, किसानों के गले का फंदा खुलता नहीं है. सरकार ने इसे पहचाना होता और अंधभक्तों ने उसे यह देखने दिया होता तो सरकार अपना रुख बदल सकती थी. लेकिन भद्दी, स्तरहीन भाषा का इस्तेमाल संसद में और संसद के बाहर शीर्ष से नीचे तक के महानुभावों ने जिस तरह किया, उसने हमारा सार्वजनिक विमर्श रसातल में पहुंचा दिया.
प्रधानमंत्री को यह दांव बहुत मंहगा पड़ सकता है क्योंकि उनकी इस घोषणा ने पूरे आंदोलन को चुनाव के मैदान में ला खड़ा किया है. अब फैसला यह नहीं होना है कि कौन-सी पार्टी जीतती है, फैसला यह होना है कि आंदोलन जीतता है कि हारता है. यह देश के किसानों की आन का सवाल बन गया है. चुनावी जीत का रसायन अब तक जिस तरह बनाया जाता रहा है, वह शायद इस बार काम न आए. 1977 में कांग्रेस के साथ ऐसा ही हुआ था, 2022 में भी ऐसा हो सकता है. किसानों ने और विपक्ष ने यदि इस नजाकत को समझा और अपना खेल बदला तो लोकतंत्र को यह आंदोलन बहुत बड़ी देन दे जाएगा. प्रधानमंत्री ने किसानों से कहा है कि घर वापस जाइए. संभव है कि किसान प्रधानमंत्री से भी ऐसा ही कहें.
( 19.11.2021)
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