पेगासस जासूसी के मामले में कौन किस तरफ खड़ा है, यह पता कब चलेगा यह तो पता नहीं लेकिन इससे यह तो पता चला ही है कि देश के हर कोने में देशद्रोही जड़ जमाए बैठे हैं. अगर सरकार नहीं तो कोई है जो विदेशी ताकतों की मदद से देशी देशद्रोहियों का काम तमाम करने में लगा है. लेकिन सरकार की जानकारी के बिना यदि कोई ऐसा कर पा रहा है तो खतरा यह है कि वह देश का काम ही तमाम कर देगा.
दो सौ से ज्यादा सालों तक हमारे ऊपर बलपूर्वक शासन करनेवाले अंग्रेज खोज कर भी जितने देशद्रोही नहीं खोज पाए थे, हमने महज सात सालों में उससे ज्यादा देशद्रोही पैदा कर दिए. अब तो शंका यह होने लगी है कि इस देश में देशभक्त ज्यादा हैं या देशद्रोही ? कहीं यह देश देशद्रोहियों का देश तो नहीं बन गया है ? फिर मन में यह बात उठती है कि जिस सरकार से समाज तौबा कर लेता है, उसे वह बदल डालता है, तो जिस समाज से सरकार तौबा कर ले उसे क्या करना चाहिए ? सीधा जवाब तो यही सूझता है कि उस सरकार को भी अपना समाज बदल लेना चाहिए. जैसे जनता नई सरकार चुनती है, सरकार को भी नई जनता चुन लेनी चाहिए.
देशद्रोह का यही सवाल हमारे सर्वोच्च न्यायालय को भी परेशान कर रहा है. संविधान में हमने माना है कि संप्रभु जनता है, सरकार नहीं. सरकार जनता द्वारा बनाई वह संरचना है जो बहुत हुआ तो पांच साल के लिए है. हमने उसका संवैधानिक दायित्व यह तै किया है कि वह अपना काम इस तरह करे कि संप्रभु जनता का इकबाल बना भी रहे व बढ़ता भी रहे. फिर हमने न्यायपालिका की कल्पना की. वह इसलिए कि जब भी और जहां भी सरकार खुद को संप्रभु मानने लगे, वहां न्यायपालिका अंपायर बन कर खड़ी हो. उसे जिम्मेवारी यह दी है हमने कि वह देखे कि इन दोनों के बीच लोकतंत्र का हर खेल खेल के नियम से हो. खेल के नियम क्या हैं ? तो उसकी एक किताब बना कर हमने इसे थमा दी : संविधान ! उसे संविधान के पन्ने पलटने थे और इस या उस पक्ष में सीटी बजानी थी. इस भूमिका में वह विफल हुई है. उसके सामने खेल के नियम तोड़े ही नहीं जाते रहे बल्कि कई मौकों पर नियम बदल ही दिेए गए, और ऐसे बदले गए कि खेल ही बदलता गया. बनाना था लोकतंत्र, बन गया तंत्रलोक !
हमारे मुख्य न्यायपालक एन.वी. रमण ने अभी-अभी यह सवाल खड़ा किया है कि भारतीय दंडसंहिता की धारा 124ए का आजादी के 70 सालों के बाद भी बने रहने का औचित्य क्या है ? 1870 में यह धारा भारतीय दंडसंहिता में उस औपनिेवेशिक ताकत ने दाखिल की थी जो न भारतीय थी, न लोकतांत्रिक. भारत की लोकतांत्रिक आकांक्षा को कुचलने के एकमात्र उद्देश्य से बनाई गई यह धारा उन सबको देशद्रोही करार देती रही, जेलों में, कालापानी में बंद करती रही जिनसे हमने लोकतंत्र व देशभक्ति का ककहरा सीखा है. लेकिन यह सब तब हुआ जब न हमारे पास आजादी थी, न लोकतंत्र, न संविधान. जब हमारे पास यह सब हो गया तब भी न्यायपालकों ने अंपायर की भूमिका नहीं निभाई बल्कि सत्ता की टीम की तरफ से खेलने लगे. धारा 124ए का चरित्र ही राक्षसी नहीं है बल्कि इसका अधिकार-क्षेत्र भी इतना दानवी है कि इसकी आड़ में पुलिस का अदना अधिकारी भी मनमानी करता रहे. इसलिए गोरे साहबों की खैरख्वाही में भूरे व काले साहबों ने आजादी के सिपाहियों के साथ कैसी-कैसी मनमानी की इसकी कहानी शर्म से आज भी हमारा सर झुका देती है.
1962 में 124 ए की वैधानिकता का सवाल अदालत के सामने आया था. तब अदालत ने न इसकी पृष्ठभूमि देखी, न लोकतांत्रिक वैधानिकता की कसौटी पर इसे कसा बल्कि जजों की बेंच ने फैसला यह दिया कि यह धारा सिर्फ उस व्यक्ति के खिलाफ इस्तेमाल की जाएगी जो सामाजिक असंतोष भड़काने का अपराधी होगा. जजों को जमीनी हकीकत का कितना कम पता होता है ! ‘सामाजिक असंतोष भड़काना’ ऐसा मुहावरा है जिसकी आड़ में किसी को फंसाना या फंसवाना एकदम सरल है. कोई कुटिल व्यक्ति चाहे तो जस्टिस रमण को भी असंतोष भड़काने वाला साबित कर दे सकता है.
आपातकाल का पूरा काल न्यायपालिका के लिए कालिमामय है. 1976 के हैबियस कॉरपस मामले में जिस तरह अदालत ने पलक झपकाए बिना यह फैसला दिया कि राज्य नागरिकों के जीने के अधिकार पर भी हाथ डाल सकता है, वह तो संविधान का अपमान ही नहीं था, वैधानिक कायरता का चरम था. नागरिक अधिकारों का गला घोंटने वाला एनएसए जैसा भयंकर कानून 1977 में मिली दूसरी आजादी के तुरंत बाद ही, 1980 में पारित हुआ. 1994 में सत्ता एक कदम और आगे बढ़ी और हमारी झोली में टाडा आया. 1996 में उसने एक कदम और आगे बढ़ाया और आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट बना. 2004 में फिर एक कदम आगे : पोटा ! इसने वह रास्ता साफ किया जिस पर चल कर ऊपा या यूएपीए नागरिकों की गर्दन तक पहुंचा. ये सारे कानून सत्ता के कायर चरित्र व न्यायपालिका के शुतुरमुर्ग बन जाने की शर्मनाक कहानी कहते हैं.
गांधीजी ने न्यायपालिका के चरित्र को रेखांकित करते हुए कहा था कि जब भी राज्य के अनाचार से सीधे मुकाबले की घड़ी आएगी, न्यायपालिका यथास्थिति की ताकतों के साथ खड़ी मिलेगी. तब हमने अपने भोलेपन में समझा था कि गांधीजी विदेशी न्यायपालिका के बारे में कह रहे हैं जबकि वे देशी-विदेशी नहीं, सत्ता व सत्ता की कृपादृष्टि की याचक सभी संरचनाओं के बारे में कह रहे थे. राष्ट्रद्रोह और राज्यद्रोह में गहरा और बुनियादी फर्क है. महात्मा गांधी ने खुली घोषणा कर रखी थी कि वे राज के कट्टर दुश्मन हैं क्योंकि वे राष्ट्र को दम तोड़ती कायर भीड़ में बदलते नहीं देख सकते.
सत्ता को सबसे अधिक डर असहमति से लगता है क्योंकि वह सत्ता को मनमाना करने का लाइसेंस समझती है. इसलिए असहमति उसके लिए बगावत की पहली घोषणा बन जाती है. विडंबना देखिए कि लोकतंत्र असहमति के ऑक्सीजन पर ही जिंदा रहता है, सत्ता के लिए असहमति कार्बन गैस बन जाती है. दुखद यह है कि ये सारे कानून न्यायपालिका की सहमति से ही बने व टिके हैं.
124 ए से हाथ धो लेने की चीफ जस्टिस रमण की बात के जवाब में एटॉर्नी जेनरल के.के. वेणुगोपाल अदालत में ठीक वही कह रहे हैं जो सत्ता व न्यायपालिका ने अब तक नागरिक अधिकारों के पांव काटने वाले हर कानून को जन्म देते वक्त कहा है : सावधानी से इस्तेमाल करें ! यह कुछ वैसा ही जैसे बच्चे के हाथ में खुला चाकू दे दें हम लेकिन उस पर एक पर्ची लगा दें: सावधानी से चलाएं ! अबोध बच्चा उससे अपनी गर्दन काट ले सकता है; काइयां सत्ता उससे अपनी छोड़, हमेशा ही असहमत नागरिक की गर्दन काटती है. यह इतिहाससिद्ध भौगोलिक सच्चाई है. फिर न्यायपालिका इतनी अबोध कैसे हो सकती है कि सत्ता के हाथ में बड़े-से-बड़ा चाकू थमाने की स्वीकृति देती जाए ?
जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ कहते हैं कि जब भी, जहां भी बहुमतवादी मानसिकता सर उठाती नजर आए, तभी और वहीं उससे रू-ब-रू होना चाहिए, “ ऐसा न करना हमारे पुरुखों ने भारत को जिस संवैधानिक गणतंत्र के रूप में स्वीकार किया था, उस पवित्र अवधारणा से छल होगा.” जिसके हाथ में संविधानप्रदत्त शक्ति है, उस न्यायपालिका के लिए चुनावी बहुमत और संवैधानिक बहुमत का फर्क करना और उसे अदालती फैसले में दर्ज करना आसान है क्योंकि संविधान की संप्रभु जनता ऐसे हर प्रयास में उसके साथ व उसके पीछे खड़ी रहेगी. हम सब जानते हैं कि खड़ा तो अपने पांव पर ही होना होता है, फिर परछाईं भी आपको सहारा देने आ जाती है. ( 20.07.2021)
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