Saturday 29 May 2021

सवाल फलस्तीन-इस्रायल का : जवाब महात्मा गांधी का

 10 मई 2021 को शुरू हुआ फलस्तीन-इस्रायल युद्ध 11 दिनों तक चला और 66 फलस्तीनी बच्चोंसमेत 248  नागरिकों को मार कर तथा 2000 को बुरी तरह घायल कर, अब विराम कर रहा है. दूसरी तरफ इसी युद्ध में, इसी अवधि में फलिस्तीनी रॉकेटों की मार से 2 बच्चोंसमेत 12 इस्रायली नागरिक भी मारे गये हैं. इन आंकड़ों के बारे में यह कहने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है कि कोरोना के आंकड़ों की तरह ही ये आंकड़े भी सच को बताते कम हैं, छिपाते अधिक हैं. 

युद्धविराम की घोषणा किसने कीयह सवाल उतना ही बेमानी है जितना यह कि युद्ध की घोषणा किसने की. इन दोनों के बीच युद्ध का भीविराम का भी और फिर युद्ध का अंतहीन सिलसिला है जिसके पीछे इन दो के अलावा वे सभी हैं जो युद्ध और विराम दोनों से मालामाल होते हैं. अमरीका के विदेश-सचिव एंटनी ब्लिंकेन ने युद्धविराम के तुरंत बाद दोनों पक्षों के साथ सौहार्दपूर्ण मुलाकात की और फिर जो कुछ कहा उसे थोड़ा करीब से देखें हम तो समझ सकेंगे कि युद्ध और विराम का यह सारा खेल कौनकहां और कैसे खेल रहा है.

 

ब्लिंकेन ने कहा कि अमरीका इस्रायल की सुरक्षाशांति व सम्मान के प्रति वचनबद्ध है. इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि बमों की मार से तार-तार हुए गाजा शहर की मरहम-पट्टी तथा फलस्तीन के संपूर्ण विकास के लिए अमरीका 75 अरब डॉलर की मदद देगा.  इसका एक ही मतलब है : युद्ध भी हमारी ही मुट्ठी मेंविराम भी हमारी ही मुट्ठी में ! लाचार इस्रायली के विफल प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने धमकी दी : हमास युद्धविराम को तोड़ने की फिर से कोशिश करेगा तो हम उसका करारा जवाब देंगे ! फलस्तीनी जवाब भी आ गया : हम किसी भी हाल में इन्हें छोड़ेंगे नहीं ! अब आप समझ सकते हैं कि इस युद्धविराम की किसे चाह है और शांतिमय सहअस्तित्व में किसकी आस्था है.   


        यह पूरी कहानी बेईमानी से ही शुरू हुई थी और बेईमानी से ही आज तक जारी हैऔर एकदम शुरू से ही इस पूरी कहानी पर और इसके कथाकारों पर महात्मा गांधी की गहरी नजर रही थी. 


1938 के आखिरी दिनों में अपने गुलाम देश और अपनी कांग्रेस पार्टी का हाल उन्हें व्यथित कर रहा था तो दुनिया का हाल उन्हें चिंतित किए था. यूरोप में यहूदियों की दशा की तरफ उनकी खास नजर थी. सीमांत प्रदेश के दौरे से लौटने के बाद उन्होंने इस विषय पर अपना पहला संपादकीय ईसाइयत के अछूत नाम से लिखा : “ मेरी सारी सहानुभूति यहूदियों के साथ है. मैं दक्षिण अफ्रीका के दिनों से उनको करीब से जानता हूं. उनमें से कुछ के साथ मेरी ताउम्र की दोस्ती है और उनके ही माध्यम से मैंने उनकी साथ हुई ज्यादतियों की बावत जाना है. ये लोग ईसाइयत के अछूत बना दिए गये हैं. अगर तुलना ही करनी हो तो मैं कहूंगा कि यहूदियों के साथ ईसाइयों ने जैसा व्यवहार किया है वह हिंदुओं ने अछूतों के साथ जैसा व्यवहार किया हैउसके करीब पहुंचता है. दोनों के साथ हुए अमानवीय व्यवहारों के संदर्भ में धार्मिक आधारों की बात की जाती है. निजी मित्रता के अलावा भी यहूदियों से मेरी सहानुभूति के व्यापक आधार हैं. लेकिन उनके साथ की गहरी मित्रता मुझे न्याय देखने से रोक नहीं सकती हैऔर इसलिए यहूदियों की अपना राष्ट्रीय घर’ की मांग मुझे जंचती नहीं है. इसके लिए बाइबल का आधार ढूंढा जा रहा है और फिर उसके आधार पर फिलीस्तीन लौटने की बात उठाई जा रही है. लेकिन जैसे संसार में सभी लोग करते हैं वैसा ही यहूदी भी क्यों नहीं कर सकते कि वे जहां जनमे हैं और जहां से अपनी रोजी-रोटी कमाते हैंउसे ही अपना घर मानें 


 “ फिलीस्तीन उसी तरह अरबों का है जिस तरह इंग्लैंड अंग्रेजों का है याकि फ्रांस फ्रांसीसियों का है. यह गलत भी होगा और अमानवीय भी कि यहूदियों को अरबों पर जबरन थोप दिया जाए. आज फिलीस्तीन में जो हो रहा है उसका कई नैतिक आधार नहीं है. पिछले महायुद्ध के अलावा उसका कोई औचित्य नहीं है. गर्वीले अरबों को सिर्फ इसलिए दबा दिया जाए ताकि पूरा या अधूरा फिलीस्तीन यहूदियों को दिया जा सकेतो यह एकदम अमानवीय कदम होगा. 


 “ उचित तो यह होगा कि यहूदी जहां भी जनमे हैं और कमा-खा रहे हैं वहां उनके साथ बराबरी का सम्मानपूर्ण व्यवहार हो. जैसे फ्रांस में जनमे ईसाई को हम फ्रांसीसी मानते हैं वैसे ही फ्रांस में जनमे यहूदी को भी फ्रांसीसी माना जाएऔर अगर यहूदियों को फिलीस्तीन ही चाहिए तो क्या उन्हें यह अच्छा लगेगा कि उन्हें दुनिया की उन सभी जगहों से जबरन हटाया जाए जहां वे आज हैं याकि वे अपने मनमौज के लिए अपना दो घर चाहते हैं ? ‘अपने लिए एक राष्ट्रीय घर’ के उनके इस शोर को बड़ी आसानी से यह रंग दिया जा सकता है कि इसी कारण उन्हें जर्मनी से निकाला जा रहा था.

 

 “ जर्मनी में यहूदियों के साथ जो हुआ उसका तो इतिहास में कोई सानी नहीं है. पुराने समय का कोई आततायी जिस हद तक कभी गया नहीं,  लगता है हिटलर उस हद तक गया हैऔर वह भी धर्म-कार्य के उत्साह के साथऐसे कि जैसे वह एक खास तरह के शुद्ध धर्म और फौजी राष्ट्रीयता की स्थापना कर रहा है जिसके नाम पर सारे अमानवीय कार्य मानवीय कार्य बन जाते हैंजिसका पुण्य यहीं अभी या बाद में मिलेगा ही… मानवता के नाम पर और उसकी स्थापना के लिए यदि कभी कोई ऐसा युद्ध हुआ हो जिसका निर्विवाद औचित्य हो तो वह जर्मनी के खिलाफ किया गया महायुद्ध है जिसने एक पूरी जाति के समग्र विनाश को रोका. लेकिन मैं किसी भी युद्ध में विश्वास नहीं करता हूं. इसलिए ऐसे युद्ध के औचित्य या अनौचित्य का विमर्श ही मेरे मानस-पटल पर समाता नहीं है. 


 “ लेकिन जर्मनी के खिलाफ ऐसा युद्ध नहीं भी हुआ होता तो भी उसने यहूदियों के खिलाफ जैसा जुर्म किया उस कारण उसका साथ तो लिया ही नहीं जा सकता है. एक ऐसा देश जो न्याय और लोकतंत्र के लिए अपनी प्रतिबद्धता का दावा करता हैकिसी वैसे देश का साथ कैसे ले सकता है जो इन दोनों मूल्यों का घोषित शत्रु है याकि यह माना जाए कि इंग्लैंड सशस्त्र तानाशाही और उससे जुड़ी तमाम अवधाराणों की तरफ बहता जा रहा है 


 “ जर्मनी ने दुनिया को दिखा दिया है कि हिंसा जब मानवीयता आदि दिखावटी कमजोरियों से पूरी तरह मुक्त हो जाती है तब वह कितनी कुशलता’ से काम कर सकती है. वह यह भी बताती है कि नग्न हिंसा कितनी पापजन्यक्रूर और डरावनी हो सकती है. 


 “ क्या यहूदी इस संगठित और बेहया दलन का मुकाबला कर सकते थे क्या कोई रास्ता है कि जिससे वे अपना आत्मसम्मान बचा सकते थे ताकि वे इतने असहायउपेक्षित व अकेले नहीं पड़ते मैं कहूंगा हांहै ! जिस भी व्यक्ति में ईश्वर के प्रति पूर्ण जीवित श्रद्धा होगी वह कभी इतना असहाय व अकेला महसूस कर ही नहीं सकता है. यहूदियों का यहोवा ईसाइयोंमुसलमानों या हिंदुओं के भगवान से कहीं ज्यादा मनुष्यपरस्त हैहालांकि सच तो यह है कि आत्मत: वह तो सभी में है और समान हैऔर किसी भी कैफियत से परे है. लेकिन यहूदी परंपरा में ईश्वर को ज्यादा मानवी स्वरूप दिया गया है और माना जाता है कि वह उनके सारे कार्यकलापों का नियमन करता हैतो उन्हें इतना असहाय महसूस ही क्यों करना चाहिए. यदि मैं यहूदी होता और जर्मनी में पैदा हुआ होता और वहां से आजीविका पाता होता तो मैं दावा करता कि जर्मनी मेरा वैसा ही घर है जैसा कि यह किसी लंबे-तड़ंगे शक्तिशाली जर्मन का घर हैऔर मैं उसे चुनौती देता कि तुम मुझे गोली मार दो या तहखानों में बंदी बना दोमैं यहां से कहीं निकाले जाने या किसी भी भेद-भावपूर्ण व्यवहार को स्वीकारने को तैयार नहीं हूं. और मैं इसका इंतजार नहीं करता कि दूसरे यहूदी भी आएं और इस सिविल नाफरमानी में मेरा साथ दें बल्कि इस विश्वास के साथ मैं अकेला ही आगे बढ़ जाता कि अंतत: तो सभी मेरे ही रास्ते पर आएंगे. 


 “ मेरे बताए इस नुस्खे का इस्तेमाल यदि एक यहूदी ने भी किया होता या सारे यहूदियों ने किया होता तो उनकी हालत आज जितनी दयनीय हैउससे अधिक तो नहीं ही होती. और जिस कष्ट को आप स्वेच्छा से स्वीकार करते हैं वह आपको वैसी आंतरिक ताकत और आनंद देता है जितनी ताकत व आनंद सहानुभूति के वे सारे प्रस्ताव मिल कर भी नहीं दे सकते हैं जो जर्मनी से बाहर की दुनिया आज जाहिर कर रही है. और मैं यह भी कहूंगा कि यदि इंग्लैंडफ्रांस और अमरीका साथ मिल कर जर्मनी पर हमला घोषित करें तो उससे भी यहूदियों की आंतरिक शक्ति व संतोष में कोई इजाफा नहीं होगा… जो ईश्वर-भीरू है उसे मौत का डर नहीं होता. उसके लिए मौत तो एक ऐसी आनंददायी नींद है कि जिससे उठने के बाद आप दूसरी लंबी नींद के लिए तरोताजा हो जाते हैं. 


 “ मेरे यह कहने की शायद ही जरूरत है कि मेरे इस नुस्खे पर चलना चेक लोगों की बनिस्बत यहूदियों के लिए ज्यादा आसान है. उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के भारतीय सत्याग्रह में भाग ले कर इसका अनुभव भी किया ही है. वहां भारतीयों की ठीक वैसी ही स्थिति थी जैसी जर्मनी में यहूदियों की है. और वहां भी दमन को एक धार्मिक रंग दिया गया था. राष्ट्रपति क्रूजर कहा करते थे कि श्वेत ईसाई ईश्वर की चुनी संतानें हैं जबकि भारतीय लोग हीन योनि के हैं जिन्हें गोरों की सेवा के लिए बनाया गया है. ट्रांसवाल के संविधान में एक बुनियादी धारा यह थी कि गोरों और अश्वेतों के बीचजिनमें सारे एशियाई भी शामिल हैंकिसी तरह की समानता नहीं बरती जाएगी. यहां भी भारतीयों को उनके द्वारा निर्धारित बस्तियों में ही रहना पड़ता था जिसे वे लोकेशन’ कहते थे. दूसरी सारी असमानताएं करीब-करीब वैसी ही थीं जैसी जर्मनी में यहूदियों के साथ बरती जाती हैं. और वहांउस परिस्थिति में मुट्ठी भर भारतीयों ने सत्याग्रह का रास्ता लिया जिन्हें न बाहरी दुनिया का और न भारत सरकार का कोई समर्थन था. ब्रिटिश अधिकारियों ने कोशिश की कि किसी भी तरह भारतीयों को उनके निश्चय से विरत किया जाए. पूरे 8 साल चली लड़ाई के बाद जा कर कहीं विश्व जनमत और भारत सरकार सहायता के लिए आगे आई


 “ लेकिन जर्मनी के यहूदी दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों की तुलना में कहीं ज्यादा बेहतर स्थिति में हैं. यहूदी जाति जर्मनी में एक संगठित जमात है. दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों की तुलना में वे ज्यादा हुनरमंद हैं और अपनी लड़ाई के पीछे वे विश्व जनमत जुटा सकते हैं. मुझे विश्वास है कि यदि उनमें से कोई साहस व समझ के साथ उठ खड़ा होगा और अहिंसक काररवाई में उनका नेतृत्व करेगा तो पलक झपकते ही निराशा के उनके सर्द दिन गर्मी की आशा में दमक उठेंगेविकृत मानवों द्वारा ईश्वर के प्रति किए जा रहे गुनाहों के खिलाफ वह सच्चा धार्मिक प्रतिकार होगा… ऐसा कर के वे अपने साथी जर्मनों की भी सेवा करेंगे और उन्हें असली जर्मन बनने में मदद करेंगे ताकि वे उन जर्मनों से अपना देश बचा सकें जो चाहे जैसी मूढ़ता में जर्मनी के नाम पर कालिख पोत रहे हैं. 


 “ और अब कुछ शब्द फिलीस्तीन के यहूदियों के बारे में. मुझे इसमें कोई शक ही नहीं है कि वे गलत रास्ते जा रहे हैं. बाइबिल में जिस फिलीस्तीन की बात हैउसका तो आज कोई भौगोलिक आकार नहीं है. वह तो आपके ह्रदय में बसता है. लेकिन आज के भौगोलिक फिलीस्तीन को यदि वे अपना राष्ट्रीय घर बनाना चाहते हैं तो भी ब्रिटिश बंदूकों के साये तले वहां उनका प्रवेश करना गलत होगा. किसी संगीन या बम के सहारे कोई धार्मिक काम नहीं किया जा सकता है. अरबियों की सदाशयता से ही वे फिलीस्तीन में बस सकते हैं. उन्हें अरबियों का ह्रदय जीतने की कोशिश करनी चाहिए. अरबियों के ह्रदय में भी वही ईश्वर बसता है जो यहूदियों के ह्रदय में बसता है. वे अरबियों के सामने सत्याग्रह करें और उनके खिलाफ एक अंगुली भी उठाए बिना खुद को समर्पित कर दें कि वे चाहें तो उन्हें गोलियों से भुन डालें या समुद्र में फेंक दें. विश्व जनमत इस धार्मिक प्रेरणा के समर्थन में उठ खड़ा होगा. एक बार वे ब्रिटिश संगीनों के साये से बाहर निकलेंगे तो अरबों से संवाद के अनेक रास्ते निकल आएंगे. आज तो हालत यह है कि ब्रिटिश लोगों के साथ मिलकर यहूदी उन लोगों को बर्बाद कर रहे हैं जिनका कोई अपराध है ही नहीं. 


 “ मैं अरबों द्वारा की गई ज्यादतियों का बचाव नहीं कर रहा हूं लेकिन मैं जरूर मानता कि वे सही ही अपने देश पर की जा रही अनुचित दखलंदाजी का विरोध कर रहे हैं. मैं यह भी चाहता हूं कि वे अहिंसक तरीके से इसका मुकाबला करते. लेकिन सही और गलत की जो सर्वमान्य व्याख्या बना दी गई हैउस दृष्टि से देखें तो बड़ी प्रतिकूलताओं के समक्ष अरबों ने जिस रास्ते प्रतिकार किया हैउसकी आलोचना कैसे करेंगे आप… इसलिए अब यहूदियों पर ही है कि वे अपनी जातीय श्रेष्ठता का जैसा दावा करते हैंउसे अहिंसक तरीके अपना कर संसार के सामने प्रमाणित करें…” 


ऐसे बयान का जो होना ही थावही हुआ. जर्मनी में गांधी के तीखे विरोध की आंधी उठी. गांधी ने फिर कहा : “ जर्मनी में यहूदियों के साथ हो रहे व्यवहार के बारे में मेरे लेख की जैसी क्रोध भरी प्रतिक्रिया वहां हुई हैमैं उसकी अपेक्षा कर ही रहा था. मैंने तो यूरोप की राजनीति के बारे में अपना अज्ञान पहले ही कबूल कर लिया था. लेकिन यहूदियों की बीमारी का इलाज बताने के लिए मुझे यूरोप की राजनीति का जानकार होने की जरूरत ही कहां थी ! उन पर किए जा रहे जुर्म विवाद से परे हैं. मेरे लिखे लेख पर उनका गुस्सा जब कम होगा और उनकी मन:स्थिति किसी हदतक शांत होगी तब मुझसे सबसे अधिक क्रोधित जर्मन भी यह पहचान सकेगा कि मैंने जो कुछ लिखा है उसके भीतर जर्मनों के लिए दुर्भावना नहींमित्रता का सोता ही बह रहा है. 


 “ यह मेरी समझ से परे है कि मेरे उस मासूम लेख में ऐसा क्या था कि कोई जर्मन मुझ पर क्रोधित हो. यह तो मैं समझ सकता हूं कि कोई जर्मन आलोचक यह कहेजैसा कि दूसरे भी कह सकते हैं कि यह सब खामख्याली की वैसी बातें हैं जिनकी विफलता निश्चित है. मैं अपने लेख पर वैसी प्रतिक्रिया और गुस्से का स्वागत ही करूंगा हालांकि उसका कोई औचित्य नहीं है. क्या मेरी बात आप तक पहुंची क्या आप यह समझ सके कि मेरा सुझाया रास्ता दरअसल में उतना उपहासपूर्ण नहीं है जितना लगता है बदला लेने की भावना से ऊपर उठ करकष्ट सह जाने के आनंद का अनुभव यदि आपने कर लिया तो मेरा सुझाया रास्ता आपको खासा अनुकरणीय लगने लगेगा. 


 “ यह कहना कि मेरे लेख से न मेरान मेरे आंदोलन कान भारत-जर्मनी संबंधों का कोई भला हुआमुझे किसी मतलब का तर्क नहीं लगता है बल्कि मुझे इसमें धमकी जैसा भी कुछ छिपा लगता है. मैं खुद को कायर समझूंगा यदि मैं खुद कोअपने देश को या भारत-जर्मनी संबंधों को नुकसान पहुंचने के डर से वह सलाह न दूं जो मुझे अपने दिल की गहराइयों से सौ फीसदी सच्ची लगती है. 


 “ बर्लिन के उस लेखक ने तो कमाल का यह सिद्धांत बना दिया है कि जर्मनी के बाहर के किसी भी व्यक्ति कोदोस्ताना भाव से भीजर्मनी के किसी कदम की आलोचना नहीं करनी चाहिए. मैं अपने लिए तो कह ही सकता हूं कि जर्मनी या किसी भी देश का कोई भी आदमी भारत की आलोचना के लिए कोई दूर की कौड़ी भी खोज लाए तो मैं उसका स्वागत करूंगा. मैं ब्रिटिश लोगों को जितना जानता हूं उस आधार पर कह सकता हूं कि वे भी किसी दुर्भावना या अज्ञान के आधार पर की गई निंदा के अलावाबाहरी लोगों की आलोचना का स्वागत ही करेंगे. आज के दौर मेंजब दूरियां सिकुड़ती जा रही हैंकोई भी राष्ट्र कुएं का मेढ़क बन कर रह नहीं सकता है. कभी-कभी दूसरों की आंख से खुद को देखना ताजगी भरा अनुभव होता है. इसलिए मुझे लगता है कि जर्मन आलोचक यदि मेरा यह जवाब देखेंगे तो वे भी मेरे लेख के बारे में अपनी राय बदलेंगे और बाहर से हो रही आलोचना की कीमत समझ सकेंगे.


1946 के मध्य में गांधी अपने प्रिय आरामगाह पंचगनी पहुंचे तो 14 जुलाई 1946 को यहूदी और फिलीस्तीन शीर्षक से संपादकीय लिखा : “ यहूदियों और अरबों के बीच के विवाद पर सार्वजनिक तौर पर कुछ कहने से अब तक मैं बचता रहा हूंऔर इसके कारण हैं. कारण यह नहीं है कि मेरी इस मामले में दिलचस्पी नहीं है बल्कि कारण यह है कि मुझे लगता रहा है कि इस बारे में मेरी जानकारी पर्याप्त नहीं है. ऐसे ही कारण से मैं कई अंतरराष्ट्रीय सवालों पर अपनी बात कहने से बचता हूं. वैसे ही मेरे पास जान जलाने को कुछ कम तो है नहीं ! लेकिन एक अखबार में छपी चार पंक्तियों की खबर ने मुझे अपनी चुप्पी तोड़ने पर मजबूर कर दिया और वह भी तब जब एक मित्र ने उसकी तरफ मेरा ध्यान खींचते हुएमुझे वह कतरन भेजी… मैं मानता हूं कि संसार ने यहूदियों के साथ बहुत क्रूर जुल्म किया है. जहां तक मैं जानता हूंयूरोप के बहुत सारे हिस्सों में यहूदी बस्तियों को घेटो’ कहा जाता है. उनके साथ जैसा निर्दयतापूर्ण बर्ताव हुआवह नहीं हुआ होता तो इनके फिलीस्तीन लौटने का कोई सवाल ही कभी पैदा नहीं होता. अपनी विशिष्ट प्रतिभा और देन के कारण सारी दुनिया ही उनका घर होती. 


 “ लेकिन उनकी बहुत बड़ी गलती यह हुई कि उन्होंने फिलीस्तीन पर खुद को जबरन थोप दिया - पहले अमरीका और ब्रिटेन की मदद सेऔर अब नंगे आतंकवाद की ताकत से ! उनकी विश्व नागरिकता उनको संसार के किसी भी देश का सम्मानित नागरिक बना सकती थी. उनकी कुशलताउनकी बहुमुखी प्रतिभा और सूझबूझ से काम करने की उनकी महान क्षमता का स्वागत कौन नहीं करता ! ईसाई समाज के माथे पर यह काला धब्बा है कि उसने न्यू टेस्टामेंट’ का गलत अध्ययन और उसकी गलत व्याख्या कर के यहूदी समाज को निशाना बनाया कि एक यहूदी कोई गलती करता है तो सारे यहूदी समाज को उसका अपराधी माना जाएगा. यदि आइंस्टाइन जैसा एक यहूदी कोई महान आविष्कार करता है याकि कोई संगीतकार अश्रुतपूर्व संगीत रचता है तो उसे एक व्यक्ति की उपलब्धि माना जाएगानहीं कि उसका श्रेय उनके समुदाय को भी दिया जाएगा. 


 “ किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए कि यहूदियों को जैसी तकलीफदेह स्थिति में डाल दिया गया हैउस कारण मेरी सहानुभूति उनके साथ है. लेकिन मैं यह भी सोचता हूं कि प्रतिकूल परिस्थितियां हमें शांति का पाठ भी तो पढ़ाती हैं ! जहां उनका सहज स्वागत नहीं है वैसी जगह जाने और वहां के लोगों पर खुद को अमरीकी दौलत व ब्रिटिश हथियारों के बल पर थोप देने की जरूरत ही क्या थी फिलीस्तीनी धरती पर अपनी जबरन उपस्थिति को मजबूत बनाने के लिए आतंकवादी उपायों का भी सहारा लेना यहूदियों को कैसे सुहाया उनके अवतारी गुरुओं नेयहूदी जीसस नेजिन्होंने खुशी-खुशी कांटों का ताज पहना थाइन सबने अहिंसा का जो अचूक हथियार दिया हैयदि क्षत-विक्षत संसार के सामने यहूदियों ने उसका इस्तेमाल किया होता तो सारी दुनिया उनके मामले को अपना मामला बना लेती. यहूदियों ने संसार को जो नायाब देनें दी हैं उनमें अहिंसा की यह देन सबसे नायाब है. वे इसका इस्तेमाल करते तो यह दोहरी ईशकृपा होती. ऐसा होता तो सही अर्थों में जिसे आनंद और समृद्धि कहते हैं वह उन्हें प्राप्त होती और कराहती मानवता को चंदन का लेप मिल जाता.” 


5 मई 1947 को रायटर’ के दिल्ली स्थित संवाददाता डून कैंपबेल ने गांधी का ध्यान फिर से इस तरफ खींचा : “ फिलीस्तीनी समस्या का आप क्या उपाय देखते हैं ?”


गांधी : “ यह ऐसी समस्या बन गया है कि जिसका करीब-करीब कोई हल नहीं है. अगर मैं यहूदी होता तो मैं उनसे कहता : ऐसी मूर्खता मत करना कि इसके लिए तुम आतंकी रास्ता अख्तियार कर लो. ऐसा कर के तुम अपने ही मामले को बिगाड़ लोगे जो वैसे न्याय का एक मामला भर है.’ अगर यह मात्र राजनीतिक खींचतान है तब तो मैं कहूंगा कि यह सब व्यर्थ हो रहा है. आखिर यहूदियों को फिलीस्तीन के पीछे इस तरह क्यों पड़ जाना चाहिए यह महान जाति है. इसके पास महान विरासतें हैं. मैं दक्षिण अफ्रीका में बरसों इनके साथ रहा हूं. अगर इसके पीछे उनकी कोई धार्मिक प्यास है तब तो निश्चित ही इस मामले में आतंक की कोई जगह नहीं होनी चाहिए… यहूदियों को आगे बढ़ कर अरबों से दोस्ती करनी चाहिए और ब्रिटिश हो कि अमरीकी होकिसी की भी सहायता के बिनायहोवा के उत्तराधिकारियों को उनसे मिली सीख और उनकी ही विरासत संभालनी चाहिए.”  


लेकिन किसी कोकिसी की विरासत तो संभालनी नहीं थी. सबको संभालनी थी गद्दी ! गांधी सत्ता की यह भूख पहचान रहे थे और इसलिए कैंपबेल से कहते-कहते कह गए : “ यह एक ऐसी समस्या बन गया है कि जिसका करीब-करीब कोई हल नहीं है.” गांधी ने जो आशंका प्रकट की थीउसके करीब 75 साल पूरे होने को हैं लेकिन युद्ध व विराम के बीच पिसते फलस्तीनी-इस्रायली किसी हल के करीब नहीं पहुंचे हैं. विश्व की महाशक्तियां व दोनों पक्षों के सत्ताधीश पीछे हट जाएं तो येरूशलम की संतानें अपना रास्ता खुद खोज लेंगी. लेकिन कोई उन्हें ऐसा करने देगा ? ( 26.05.2021)  

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