Saturday, 29 May 2021

सवाल फलस्तीन-इस्रायल का : जवाब महात्मा गांधी का

 10 मई 2021 को शुरू हुआ फलस्तीन-इस्रायल युद्ध 11 दिनों तक चला और 66 फलस्तीनी बच्चोंसमेत 248  नागरिकों को मार कर तथा 2000 को बुरी तरह घायल कर, अब विराम कर रहा है. दूसरी तरफ इसी युद्ध में, इसी अवधि में फलिस्तीनी रॉकेटों की मार से 2 बच्चोंसमेत 12 इस्रायली नागरिक भी मारे गये हैं. इन आंकड़ों के बारे में यह कहने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है कि कोरोना के आंकड़ों की तरह ही ये आंकड़े भी सच को बताते कम हैं, छिपाते अधिक हैं. 

युद्धविराम की घोषणा किसने कीयह सवाल उतना ही बेमानी है जितना यह कि युद्ध की घोषणा किसने की. इन दोनों के बीच युद्ध का भीविराम का भी और फिर युद्ध का अंतहीन सिलसिला है जिसके पीछे इन दो के अलावा वे सभी हैं जो युद्ध और विराम दोनों से मालामाल होते हैं. अमरीका के विदेश-सचिव एंटनी ब्लिंकेन ने युद्धविराम के तुरंत बाद दोनों पक्षों के साथ सौहार्दपूर्ण मुलाकात की और फिर जो कुछ कहा उसे थोड़ा करीब से देखें हम तो समझ सकेंगे कि युद्ध और विराम का यह सारा खेल कौनकहां और कैसे खेल रहा है.

 

ब्लिंकेन ने कहा कि अमरीका इस्रायल की सुरक्षाशांति व सम्मान के प्रति वचनबद्ध है. इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि बमों की मार से तार-तार हुए गाजा शहर की मरहम-पट्टी तथा फलस्तीन के संपूर्ण विकास के लिए अमरीका 75 अरब डॉलर की मदद देगा.  इसका एक ही मतलब है : युद्ध भी हमारी ही मुट्ठी मेंविराम भी हमारी ही मुट्ठी में ! लाचार इस्रायली के विफल प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने धमकी दी : हमास युद्धविराम को तोड़ने की फिर से कोशिश करेगा तो हम उसका करारा जवाब देंगे ! फलस्तीनी जवाब भी आ गया : हम किसी भी हाल में इन्हें छोड़ेंगे नहीं ! अब आप समझ सकते हैं कि इस युद्धविराम की किसे चाह है और शांतिमय सहअस्तित्व में किसकी आस्था है.   


        यह पूरी कहानी बेईमानी से ही शुरू हुई थी और बेईमानी से ही आज तक जारी हैऔर एकदम शुरू से ही इस पूरी कहानी पर और इसके कथाकारों पर महात्मा गांधी की गहरी नजर रही थी. 


1938 के आखिरी दिनों में अपने गुलाम देश और अपनी कांग्रेस पार्टी का हाल उन्हें व्यथित कर रहा था तो दुनिया का हाल उन्हें चिंतित किए था. यूरोप में यहूदियों की दशा की तरफ उनकी खास नजर थी. सीमांत प्रदेश के दौरे से लौटने के बाद उन्होंने इस विषय पर अपना पहला संपादकीय ईसाइयत के अछूत नाम से लिखा : “ मेरी सारी सहानुभूति यहूदियों के साथ है. मैं दक्षिण अफ्रीका के दिनों से उनको करीब से जानता हूं. उनमें से कुछ के साथ मेरी ताउम्र की दोस्ती है और उनके ही माध्यम से मैंने उनकी साथ हुई ज्यादतियों की बावत जाना है. ये लोग ईसाइयत के अछूत बना दिए गये हैं. अगर तुलना ही करनी हो तो मैं कहूंगा कि यहूदियों के साथ ईसाइयों ने जैसा व्यवहार किया है वह हिंदुओं ने अछूतों के साथ जैसा व्यवहार किया हैउसके करीब पहुंचता है. दोनों के साथ हुए अमानवीय व्यवहारों के संदर्भ में धार्मिक आधारों की बात की जाती है. निजी मित्रता के अलावा भी यहूदियों से मेरी सहानुभूति के व्यापक आधार हैं. लेकिन उनके साथ की गहरी मित्रता मुझे न्याय देखने से रोक नहीं सकती हैऔर इसलिए यहूदियों की अपना राष्ट्रीय घर’ की मांग मुझे जंचती नहीं है. इसके लिए बाइबल का आधार ढूंढा जा रहा है और फिर उसके आधार पर फिलीस्तीन लौटने की बात उठाई जा रही है. लेकिन जैसे संसार में सभी लोग करते हैं वैसा ही यहूदी भी क्यों नहीं कर सकते कि वे जहां जनमे हैं और जहां से अपनी रोजी-रोटी कमाते हैंउसे ही अपना घर मानें 


 “ फिलीस्तीन उसी तरह अरबों का है जिस तरह इंग्लैंड अंग्रेजों का है याकि फ्रांस फ्रांसीसियों का है. यह गलत भी होगा और अमानवीय भी कि यहूदियों को अरबों पर जबरन थोप दिया जाए. आज फिलीस्तीन में जो हो रहा है उसका कई नैतिक आधार नहीं है. पिछले महायुद्ध के अलावा उसका कोई औचित्य नहीं है. गर्वीले अरबों को सिर्फ इसलिए दबा दिया जाए ताकि पूरा या अधूरा फिलीस्तीन यहूदियों को दिया जा सकेतो यह एकदम अमानवीय कदम होगा. 


 “ उचित तो यह होगा कि यहूदी जहां भी जनमे हैं और कमा-खा रहे हैं वहां उनके साथ बराबरी का सम्मानपूर्ण व्यवहार हो. जैसे फ्रांस में जनमे ईसाई को हम फ्रांसीसी मानते हैं वैसे ही फ्रांस में जनमे यहूदी को भी फ्रांसीसी माना जाएऔर अगर यहूदियों को फिलीस्तीन ही चाहिए तो क्या उन्हें यह अच्छा लगेगा कि उन्हें दुनिया की उन सभी जगहों से जबरन हटाया जाए जहां वे आज हैं याकि वे अपने मनमौज के लिए अपना दो घर चाहते हैं ? ‘अपने लिए एक राष्ट्रीय घर’ के उनके इस शोर को बड़ी आसानी से यह रंग दिया जा सकता है कि इसी कारण उन्हें जर्मनी से निकाला जा रहा था.

 

 “ जर्मनी में यहूदियों के साथ जो हुआ उसका तो इतिहास में कोई सानी नहीं है. पुराने समय का कोई आततायी जिस हद तक कभी गया नहीं,  लगता है हिटलर उस हद तक गया हैऔर वह भी धर्म-कार्य के उत्साह के साथऐसे कि जैसे वह एक खास तरह के शुद्ध धर्म और फौजी राष्ट्रीयता की स्थापना कर रहा है जिसके नाम पर सारे अमानवीय कार्य मानवीय कार्य बन जाते हैंजिसका पुण्य यहीं अभी या बाद में मिलेगा ही… मानवता के नाम पर और उसकी स्थापना के लिए यदि कभी कोई ऐसा युद्ध हुआ हो जिसका निर्विवाद औचित्य हो तो वह जर्मनी के खिलाफ किया गया महायुद्ध है जिसने एक पूरी जाति के समग्र विनाश को रोका. लेकिन मैं किसी भी युद्ध में विश्वास नहीं करता हूं. इसलिए ऐसे युद्ध के औचित्य या अनौचित्य का विमर्श ही मेरे मानस-पटल पर समाता नहीं है. 


 “ लेकिन जर्मनी के खिलाफ ऐसा युद्ध नहीं भी हुआ होता तो भी उसने यहूदियों के खिलाफ जैसा जुर्म किया उस कारण उसका साथ तो लिया ही नहीं जा सकता है. एक ऐसा देश जो न्याय और लोकतंत्र के लिए अपनी प्रतिबद्धता का दावा करता हैकिसी वैसे देश का साथ कैसे ले सकता है जो इन दोनों मूल्यों का घोषित शत्रु है याकि यह माना जाए कि इंग्लैंड सशस्त्र तानाशाही और उससे जुड़ी तमाम अवधाराणों की तरफ बहता जा रहा है 


 “ जर्मनी ने दुनिया को दिखा दिया है कि हिंसा जब मानवीयता आदि दिखावटी कमजोरियों से पूरी तरह मुक्त हो जाती है तब वह कितनी कुशलता’ से काम कर सकती है. वह यह भी बताती है कि नग्न हिंसा कितनी पापजन्यक्रूर और डरावनी हो सकती है. 


 “ क्या यहूदी इस संगठित और बेहया दलन का मुकाबला कर सकते थे क्या कोई रास्ता है कि जिससे वे अपना आत्मसम्मान बचा सकते थे ताकि वे इतने असहायउपेक्षित व अकेले नहीं पड़ते मैं कहूंगा हांहै ! जिस भी व्यक्ति में ईश्वर के प्रति पूर्ण जीवित श्रद्धा होगी वह कभी इतना असहाय व अकेला महसूस कर ही नहीं सकता है. यहूदियों का यहोवा ईसाइयोंमुसलमानों या हिंदुओं के भगवान से कहीं ज्यादा मनुष्यपरस्त हैहालांकि सच तो यह है कि आत्मत: वह तो सभी में है और समान हैऔर किसी भी कैफियत से परे है. लेकिन यहूदी परंपरा में ईश्वर को ज्यादा मानवी स्वरूप दिया गया है और माना जाता है कि वह उनके सारे कार्यकलापों का नियमन करता हैतो उन्हें इतना असहाय महसूस ही क्यों करना चाहिए. यदि मैं यहूदी होता और जर्मनी में पैदा हुआ होता और वहां से आजीविका पाता होता तो मैं दावा करता कि जर्मनी मेरा वैसा ही घर है जैसा कि यह किसी लंबे-तड़ंगे शक्तिशाली जर्मन का घर हैऔर मैं उसे चुनौती देता कि तुम मुझे गोली मार दो या तहखानों में बंदी बना दोमैं यहां से कहीं निकाले जाने या किसी भी भेद-भावपूर्ण व्यवहार को स्वीकारने को तैयार नहीं हूं. और मैं इसका इंतजार नहीं करता कि दूसरे यहूदी भी आएं और इस सिविल नाफरमानी में मेरा साथ दें बल्कि इस विश्वास के साथ मैं अकेला ही आगे बढ़ जाता कि अंतत: तो सभी मेरे ही रास्ते पर आएंगे. 


 “ मेरे बताए इस नुस्खे का इस्तेमाल यदि एक यहूदी ने भी किया होता या सारे यहूदियों ने किया होता तो उनकी हालत आज जितनी दयनीय हैउससे अधिक तो नहीं ही होती. और जिस कष्ट को आप स्वेच्छा से स्वीकार करते हैं वह आपको वैसी आंतरिक ताकत और आनंद देता है जितनी ताकत व आनंद सहानुभूति के वे सारे प्रस्ताव मिल कर भी नहीं दे सकते हैं जो जर्मनी से बाहर की दुनिया आज जाहिर कर रही है. और मैं यह भी कहूंगा कि यदि इंग्लैंडफ्रांस और अमरीका साथ मिल कर जर्मनी पर हमला घोषित करें तो उससे भी यहूदियों की आंतरिक शक्ति व संतोष में कोई इजाफा नहीं होगा… जो ईश्वर-भीरू है उसे मौत का डर नहीं होता. उसके लिए मौत तो एक ऐसी आनंददायी नींद है कि जिससे उठने के बाद आप दूसरी लंबी नींद के लिए तरोताजा हो जाते हैं. 


 “ मेरे यह कहने की शायद ही जरूरत है कि मेरे इस नुस्खे पर चलना चेक लोगों की बनिस्बत यहूदियों के लिए ज्यादा आसान है. उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के भारतीय सत्याग्रह में भाग ले कर इसका अनुभव भी किया ही है. वहां भारतीयों की ठीक वैसी ही स्थिति थी जैसी जर्मनी में यहूदियों की है. और वहां भी दमन को एक धार्मिक रंग दिया गया था. राष्ट्रपति क्रूजर कहा करते थे कि श्वेत ईसाई ईश्वर की चुनी संतानें हैं जबकि भारतीय लोग हीन योनि के हैं जिन्हें गोरों की सेवा के लिए बनाया गया है. ट्रांसवाल के संविधान में एक बुनियादी धारा यह थी कि गोरों और अश्वेतों के बीचजिनमें सारे एशियाई भी शामिल हैंकिसी तरह की समानता नहीं बरती जाएगी. यहां भी भारतीयों को उनके द्वारा निर्धारित बस्तियों में ही रहना पड़ता था जिसे वे लोकेशन’ कहते थे. दूसरी सारी असमानताएं करीब-करीब वैसी ही थीं जैसी जर्मनी में यहूदियों के साथ बरती जाती हैं. और वहांउस परिस्थिति में मुट्ठी भर भारतीयों ने सत्याग्रह का रास्ता लिया जिन्हें न बाहरी दुनिया का और न भारत सरकार का कोई समर्थन था. ब्रिटिश अधिकारियों ने कोशिश की कि किसी भी तरह भारतीयों को उनके निश्चय से विरत किया जाए. पूरे 8 साल चली लड़ाई के बाद जा कर कहीं विश्व जनमत और भारत सरकार सहायता के लिए आगे आई


 “ लेकिन जर्मनी के यहूदी दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों की तुलना में कहीं ज्यादा बेहतर स्थिति में हैं. यहूदी जाति जर्मनी में एक संगठित जमात है. दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों की तुलना में वे ज्यादा हुनरमंद हैं और अपनी लड़ाई के पीछे वे विश्व जनमत जुटा सकते हैं. मुझे विश्वास है कि यदि उनमें से कोई साहस व समझ के साथ उठ खड़ा होगा और अहिंसक काररवाई में उनका नेतृत्व करेगा तो पलक झपकते ही निराशा के उनके सर्द दिन गर्मी की आशा में दमक उठेंगेविकृत मानवों द्वारा ईश्वर के प्रति किए जा रहे गुनाहों के खिलाफ वह सच्चा धार्मिक प्रतिकार होगा… ऐसा कर के वे अपने साथी जर्मनों की भी सेवा करेंगे और उन्हें असली जर्मन बनने में मदद करेंगे ताकि वे उन जर्मनों से अपना देश बचा सकें जो चाहे जैसी मूढ़ता में जर्मनी के नाम पर कालिख पोत रहे हैं. 


 “ और अब कुछ शब्द फिलीस्तीन के यहूदियों के बारे में. मुझे इसमें कोई शक ही नहीं है कि वे गलत रास्ते जा रहे हैं. बाइबिल में जिस फिलीस्तीन की बात हैउसका तो आज कोई भौगोलिक आकार नहीं है. वह तो आपके ह्रदय में बसता है. लेकिन आज के भौगोलिक फिलीस्तीन को यदि वे अपना राष्ट्रीय घर बनाना चाहते हैं तो भी ब्रिटिश बंदूकों के साये तले वहां उनका प्रवेश करना गलत होगा. किसी संगीन या बम के सहारे कोई धार्मिक काम नहीं किया जा सकता है. अरबियों की सदाशयता से ही वे फिलीस्तीन में बस सकते हैं. उन्हें अरबियों का ह्रदय जीतने की कोशिश करनी चाहिए. अरबियों के ह्रदय में भी वही ईश्वर बसता है जो यहूदियों के ह्रदय में बसता है. वे अरबियों के सामने सत्याग्रह करें और उनके खिलाफ एक अंगुली भी उठाए बिना खुद को समर्पित कर दें कि वे चाहें तो उन्हें गोलियों से भुन डालें या समुद्र में फेंक दें. विश्व जनमत इस धार्मिक प्रेरणा के समर्थन में उठ खड़ा होगा. एक बार वे ब्रिटिश संगीनों के साये से बाहर निकलेंगे तो अरबों से संवाद के अनेक रास्ते निकल आएंगे. आज तो हालत यह है कि ब्रिटिश लोगों के साथ मिलकर यहूदी उन लोगों को बर्बाद कर रहे हैं जिनका कोई अपराध है ही नहीं. 


 “ मैं अरबों द्वारा की गई ज्यादतियों का बचाव नहीं कर रहा हूं लेकिन मैं जरूर मानता कि वे सही ही अपने देश पर की जा रही अनुचित दखलंदाजी का विरोध कर रहे हैं. मैं यह भी चाहता हूं कि वे अहिंसक तरीके से इसका मुकाबला करते. लेकिन सही और गलत की जो सर्वमान्य व्याख्या बना दी गई हैउस दृष्टि से देखें तो बड़ी प्रतिकूलताओं के समक्ष अरबों ने जिस रास्ते प्रतिकार किया हैउसकी आलोचना कैसे करेंगे आप… इसलिए अब यहूदियों पर ही है कि वे अपनी जातीय श्रेष्ठता का जैसा दावा करते हैंउसे अहिंसक तरीके अपना कर संसार के सामने प्रमाणित करें…” 


ऐसे बयान का जो होना ही थावही हुआ. जर्मनी में गांधी के तीखे विरोध की आंधी उठी. गांधी ने फिर कहा : “ जर्मनी में यहूदियों के साथ हो रहे व्यवहार के बारे में मेरे लेख की जैसी क्रोध भरी प्रतिक्रिया वहां हुई हैमैं उसकी अपेक्षा कर ही रहा था. मैंने तो यूरोप की राजनीति के बारे में अपना अज्ञान पहले ही कबूल कर लिया था. लेकिन यहूदियों की बीमारी का इलाज बताने के लिए मुझे यूरोप की राजनीति का जानकार होने की जरूरत ही कहां थी ! उन पर किए जा रहे जुर्म विवाद से परे हैं. मेरे लिखे लेख पर उनका गुस्सा जब कम होगा और उनकी मन:स्थिति किसी हदतक शांत होगी तब मुझसे सबसे अधिक क्रोधित जर्मन भी यह पहचान सकेगा कि मैंने जो कुछ लिखा है उसके भीतर जर्मनों के लिए दुर्भावना नहींमित्रता का सोता ही बह रहा है. 


 “ यह मेरी समझ से परे है कि मेरे उस मासूम लेख में ऐसा क्या था कि कोई जर्मन मुझ पर क्रोधित हो. यह तो मैं समझ सकता हूं कि कोई जर्मन आलोचक यह कहेजैसा कि दूसरे भी कह सकते हैं कि यह सब खामख्याली की वैसी बातें हैं जिनकी विफलता निश्चित है. मैं अपने लेख पर वैसी प्रतिक्रिया और गुस्से का स्वागत ही करूंगा हालांकि उसका कोई औचित्य नहीं है. क्या मेरी बात आप तक पहुंची क्या आप यह समझ सके कि मेरा सुझाया रास्ता दरअसल में उतना उपहासपूर्ण नहीं है जितना लगता है बदला लेने की भावना से ऊपर उठ करकष्ट सह जाने के आनंद का अनुभव यदि आपने कर लिया तो मेरा सुझाया रास्ता आपको खासा अनुकरणीय लगने लगेगा. 


 “ यह कहना कि मेरे लेख से न मेरान मेरे आंदोलन कान भारत-जर्मनी संबंधों का कोई भला हुआमुझे किसी मतलब का तर्क नहीं लगता है बल्कि मुझे इसमें धमकी जैसा भी कुछ छिपा लगता है. मैं खुद को कायर समझूंगा यदि मैं खुद कोअपने देश को या भारत-जर्मनी संबंधों को नुकसान पहुंचने के डर से वह सलाह न दूं जो मुझे अपने दिल की गहराइयों से सौ फीसदी सच्ची लगती है. 


 “ बर्लिन के उस लेखक ने तो कमाल का यह सिद्धांत बना दिया है कि जर्मनी के बाहर के किसी भी व्यक्ति कोदोस्ताना भाव से भीजर्मनी के किसी कदम की आलोचना नहीं करनी चाहिए. मैं अपने लिए तो कह ही सकता हूं कि जर्मनी या किसी भी देश का कोई भी आदमी भारत की आलोचना के लिए कोई दूर की कौड़ी भी खोज लाए तो मैं उसका स्वागत करूंगा. मैं ब्रिटिश लोगों को जितना जानता हूं उस आधार पर कह सकता हूं कि वे भी किसी दुर्भावना या अज्ञान के आधार पर की गई निंदा के अलावाबाहरी लोगों की आलोचना का स्वागत ही करेंगे. आज के दौर मेंजब दूरियां सिकुड़ती जा रही हैंकोई भी राष्ट्र कुएं का मेढ़क बन कर रह नहीं सकता है. कभी-कभी दूसरों की आंख से खुद को देखना ताजगी भरा अनुभव होता है. इसलिए मुझे लगता है कि जर्मन आलोचक यदि मेरा यह जवाब देखेंगे तो वे भी मेरे लेख के बारे में अपनी राय बदलेंगे और बाहर से हो रही आलोचना की कीमत समझ सकेंगे.


1946 के मध्य में गांधी अपने प्रिय आरामगाह पंचगनी पहुंचे तो 14 जुलाई 1946 को यहूदी और फिलीस्तीन शीर्षक से संपादकीय लिखा : “ यहूदियों और अरबों के बीच के विवाद पर सार्वजनिक तौर पर कुछ कहने से अब तक मैं बचता रहा हूंऔर इसके कारण हैं. कारण यह नहीं है कि मेरी इस मामले में दिलचस्पी नहीं है बल्कि कारण यह है कि मुझे लगता रहा है कि इस बारे में मेरी जानकारी पर्याप्त नहीं है. ऐसे ही कारण से मैं कई अंतरराष्ट्रीय सवालों पर अपनी बात कहने से बचता हूं. वैसे ही मेरे पास जान जलाने को कुछ कम तो है नहीं ! लेकिन एक अखबार में छपी चार पंक्तियों की खबर ने मुझे अपनी चुप्पी तोड़ने पर मजबूर कर दिया और वह भी तब जब एक मित्र ने उसकी तरफ मेरा ध्यान खींचते हुएमुझे वह कतरन भेजी… मैं मानता हूं कि संसार ने यहूदियों के साथ बहुत क्रूर जुल्म किया है. जहां तक मैं जानता हूंयूरोप के बहुत सारे हिस्सों में यहूदी बस्तियों को घेटो’ कहा जाता है. उनके साथ जैसा निर्दयतापूर्ण बर्ताव हुआवह नहीं हुआ होता तो इनके फिलीस्तीन लौटने का कोई सवाल ही कभी पैदा नहीं होता. अपनी विशिष्ट प्रतिभा और देन के कारण सारी दुनिया ही उनका घर होती. 


 “ लेकिन उनकी बहुत बड़ी गलती यह हुई कि उन्होंने फिलीस्तीन पर खुद को जबरन थोप दिया - पहले अमरीका और ब्रिटेन की मदद सेऔर अब नंगे आतंकवाद की ताकत से ! उनकी विश्व नागरिकता उनको संसार के किसी भी देश का सम्मानित नागरिक बना सकती थी. उनकी कुशलताउनकी बहुमुखी प्रतिभा और सूझबूझ से काम करने की उनकी महान क्षमता का स्वागत कौन नहीं करता ! ईसाई समाज के माथे पर यह काला धब्बा है कि उसने न्यू टेस्टामेंट’ का गलत अध्ययन और उसकी गलत व्याख्या कर के यहूदी समाज को निशाना बनाया कि एक यहूदी कोई गलती करता है तो सारे यहूदी समाज को उसका अपराधी माना जाएगा. यदि आइंस्टाइन जैसा एक यहूदी कोई महान आविष्कार करता है याकि कोई संगीतकार अश्रुतपूर्व संगीत रचता है तो उसे एक व्यक्ति की उपलब्धि माना जाएगानहीं कि उसका श्रेय उनके समुदाय को भी दिया जाएगा. 


 “ किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए कि यहूदियों को जैसी तकलीफदेह स्थिति में डाल दिया गया हैउस कारण मेरी सहानुभूति उनके साथ है. लेकिन मैं यह भी सोचता हूं कि प्रतिकूल परिस्थितियां हमें शांति का पाठ भी तो पढ़ाती हैं ! जहां उनका सहज स्वागत नहीं है वैसी जगह जाने और वहां के लोगों पर खुद को अमरीकी दौलत व ब्रिटिश हथियारों के बल पर थोप देने की जरूरत ही क्या थी फिलीस्तीनी धरती पर अपनी जबरन उपस्थिति को मजबूत बनाने के लिए आतंकवादी उपायों का भी सहारा लेना यहूदियों को कैसे सुहाया उनके अवतारी गुरुओं नेयहूदी जीसस नेजिन्होंने खुशी-खुशी कांटों का ताज पहना थाइन सबने अहिंसा का जो अचूक हथियार दिया हैयदि क्षत-विक्षत संसार के सामने यहूदियों ने उसका इस्तेमाल किया होता तो सारी दुनिया उनके मामले को अपना मामला बना लेती. यहूदियों ने संसार को जो नायाब देनें दी हैं उनमें अहिंसा की यह देन सबसे नायाब है. वे इसका इस्तेमाल करते तो यह दोहरी ईशकृपा होती. ऐसा होता तो सही अर्थों में जिसे आनंद और समृद्धि कहते हैं वह उन्हें प्राप्त होती और कराहती मानवता को चंदन का लेप मिल जाता.” 


5 मई 1947 को रायटर’ के दिल्ली स्थित संवाददाता डून कैंपबेल ने गांधी का ध्यान फिर से इस तरफ खींचा : “ फिलीस्तीनी समस्या का आप क्या उपाय देखते हैं ?”


गांधी : “ यह ऐसी समस्या बन गया है कि जिसका करीब-करीब कोई हल नहीं है. अगर मैं यहूदी होता तो मैं उनसे कहता : ऐसी मूर्खता मत करना कि इसके लिए तुम आतंकी रास्ता अख्तियार कर लो. ऐसा कर के तुम अपने ही मामले को बिगाड़ लोगे जो वैसे न्याय का एक मामला भर है.’ अगर यह मात्र राजनीतिक खींचतान है तब तो मैं कहूंगा कि यह सब व्यर्थ हो रहा है. आखिर यहूदियों को फिलीस्तीन के पीछे इस तरह क्यों पड़ जाना चाहिए यह महान जाति है. इसके पास महान विरासतें हैं. मैं दक्षिण अफ्रीका में बरसों इनके साथ रहा हूं. अगर इसके पीछे उनकी कोई धार्मिक प्यास है तब तो निश्चित ही इस मामले में आतंक की कोई जगह नहीं होनी चाहिए… यहूदियों को आगे बढ़ कर अरबों से दोस्ती करनी चाहिए और ब्रिटिश हो कि अमरीकी होकिसी की भी सहायता के बिनायहोवा के उत्तराधिकारियों को उनसे मिली सीख और उनकी ही विरासत संभालनी चाहिए.”  


लेकिन किसी कोकिसी की विरासत तो संभालनी नहीं थी. सबको संभालनी थी गद्दी ! गांधी सत्ता की यह भूख पहचान रहे थे और इसलिए कैंपबेल से कहते-कहते कह गए : “ यह एक ऐसी समस्या बन गया है कि जिसका करीब-करीब कोई हल नहीं है.” गांधी ने जो आशंका प्रकट की थीउसके करीब 75 साल पूरे होने को हैं लेकिन युद्ध व विराम के बीच पिसते फलस्तीनी-इस्रायली किसी हल के करीब नहीं पहुंचे हैं. विश्व की महाशक्तियां व दोनों पक्षों के सत्ताधीश पीछे हट जाएं तो येरूशलम की संतानें अपना रास्ता खुद खोज लेंगी. लेकिन कोई उन्हें ऐसा करने देगा ? ( 26.05.2021)  

लंगड़ी दुनिया की अंधी दौड़

 हमारे मिजोरम से कोई 636 किलोमीटर दूर स्थित म्यांमार हो कि हमसे 4532 किलोमीटर दूर -फलस्तीन-इस्त्रायल हो, दोनों आज एक ही कहानी कहते नजर आते हैं कि संसार इतना क्रूर, कायर, स्वार्थी और असंवेदनशील कभी नहीं था, जितना आज है. स्वार्थ और भय, दो ही भाव हैं कि जो इस संसार को दौड़ाए चल रहे हैं जबकि सच यह है कि स्वार्थ व भय दोनों के ही अपने पांव नहीं होते हैं. लंड़गी दुनिया दौड़ रही है और अंधी दुनिया उसे रास्ता बता रही है. 

म्यांमार और इस्रायल में इन दिनों जो हो रहा हैउसे किसी दूसरी तरह से समझना संभव ही नहीं है.  म्यांमार में 8-9 फरवरी 2021 को जिन सैनिक तानाशाहों ने लोकतांत्रिक सरकार का गला घोंट करअपनी तानाशाही स्थापित की थीउसने इन तीन महीनों में जन प्रतिरोध को कुचल करअपने बूट उसकी गर्दन पर मजबूती से जमा लिये हैं. अश्वेत अमरीकी जॉर्ज फ्लायड की तरह म्यांमार के नागरिक भी कह रहे हैं कि ‘ देखोहम सांस नहीं ले पा रहे हैं’ लेकिन अब कोई नहीं है कि जो उसे सुने. सनसनी व न्यूजवैल्यू’  की रोटी चबाने वाला अंतरराष्ट्रीय मीडिया वहां से अपनी आंखें फेर चुका है. अब इसे म्यांमार के तानाशाहों व म्यांमार की जनता का अंदरूनी मामला मान लिया गया है. अब कहीं कोई जयप्रकाश नारायण नहीं हैं कि जो चीख कर कहें कि लोकतंत्र की हत्या किसी देश का आंतरिक मामला नहीं होती है. 

              अब कहीं कोई गांधी भी नहीं हैं कि जो इस्रायल को सावधान करें कि तुम धर्म से भी गिर रहे हो और मानवता से भी. 5 मई 1947 को रायटर के दिल्ली स्थित संवाददाता डून कैंपबेल ने फलस्तीन-इस्रायल मामले पर उनकी राय पूछी तो वे बोले : “ यह ऐसी समस्या बन गया है कि जिसका करीब-करीब कोई हल नहीं है. अगर मैं यहूदी होता तो उनसे कहता : ऐसी मूर्खता मत करना कि इसके लिए तुम आतंकी रास्ता अख्तियार कर लो. ऐसा कर के तुम अपने ही मामले को बिगाड़ लोगे जो वैसे न्याय का एक मामला भर है.’ अगर यह मात्र राजनीतिक खींचतान है तब तो मैं कहूंगा कि यह सब व्यर्थ है. आखिर यहूदियों को फलस्तीन के पीछे इस तरह क्यों पड़ जाना चाहिए यह महान जाति है. इसके पास महान विरासतें हैं. मैं दक्षिण अफ्रीका में बरसों इनके साथ रहा हूं. अगर इसके पीछे उनकी कोई धार्मिक प्यास है तब तो निश्चित ही यहां आतंक की कोई जगह नहीं होनी चाहिए… यहूदियों को आगे बढ़ कर अरबों से दोस्ती करनी चाहिए और ब्रिटिश हो कि अमरीकी होकिसी की भी सहायता के बिनायहोवा के उत्तराधिकारियों को उनसे मिली सीख और उनकी ही विरासत संभालनी चाहिए.”  गांधी ने अमरीकी और ब्रिटिश चाल में न फंसने की सलाह यहूदियों को दी थी. लेकिन वे उसी जाल में फंसे और सत्ता के उस अंतरराष्ट्रीय शतरंज के मोहरे  बन गये जिससे छूट पाना कठिनतर होता गया.

                 अब सब तरफ सन्नाटा है. भारत की घिघियाती आवाज यदि कुछ कहती है तो इतना ही कि अब उसके पास विदेश-नीति जैसा कुछ बचा नहीं है. बालू में सर छुपाए शुतरमुर्ग की तरह वह अब हर तूफान के गुजर जाने का इंतजार करता है ताकि बाद में कुछ रटे-रटाए मुहावरों से लिपा-पोती की जा सके. बाइडेन का अमरीका इस सावधानी के साथ बोल रहा है कि जिससे इस्रायल की बमबारी भी न रुके और उसकी आवाज भी दर्ज होती रहे. चीन जिसे लोकतंत्र समझता है उसमें लोक की जगह कब रही है कि आज वह बोलेगा ! वह पहले दिन से ही म्यांमार की तानाशाही के साथ खड़ा है. भारत समेत अधिकांश विश्व शक्तियों की मुसीबत यह है कि इन सबके अपने-अपने म्यांमार व येरूसलम हैं. दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्रसंघ है जो अब व्यक्तित्वहीन सफेद हाथी भर रह गया है.  

                                       यह सारा हंगामा 6 मई 2021 से शुरू हुआ जब इस्रायल के सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश जारी किया कि पूर्व येरूसलम से 6 फलस्तीनी परिवारों को विस्थापित किया जाए. इस्रायल में अभी भी कोई 15 लाख अरबी लोग रहते हैं यानी इस्रायल की जनसंख्या के 20%. इससे इस्रायल का नक्शा करीब-करीब वैसा ही बनता है जैसा बांग्लादेश बनने से पहले पाकिस्तान का था. ऐसी अप्राकृतिक राजनीतिक संरचना साम्राज्यवाद की कुटिलता की देन है जो हमेशा सावधान थीऔर आज भी है कि वह कहीं से निकल भी जाए तो भी वहां उसकी दखलंदाजी चलती रहे. और इस्रायल तो साम्राज्यवादी ताकतों की सबसे दुष्टतापूर्ण संरचना है जिसे यहूदियों के गले में जबरन बांध दिया गया जबकि उनके वहां होने का कोई औचित्य था ही नहीं. यह कुछ वैसा ही है जैसे मुहल्ले का कोई गुंडा मेरे घर के एक कमरे में किसी दूसरे को ला बिठाए और धमकी भी दे जाए कि इसे परेशान किया तो हम तुम्हें देख लेंगे. ऐसे में तीन ही रास्ते थे : एक यह कि जिसे मेरे घर में जबरन ला बिठाया जा रहा है वह वहां बसने से इंकार कर देदूसरा यह कि जिसके घर में जबरन किसी को बसाया जा रहा है वह इसका परिणामकारी प्रतिकार करेतीसरा यह कि दुनिया की न्यायप्रिय ताकतें इस मानमानी को रोक दें. जब इन तीनों में से कुछ भी न हो तो पाकिस्तान भी बन जाता हैइस्रायल भीऔर दोनों नासूर की तरह रिसते रहते हैं.

           साम्राज्यवादी ताकतों की जबर्दस्ती से इस्रायल बना तो उसने इसी जबर्दस्ती को अपनी अस्तित्व रक्षा का हथियार बना लिया. जबर्दस्ती का मुकाबला करने का दूसरा कोई रास्ता न पा कर फलस्तीन ने भी जबर्दस्ती का ही रास्ता पकड़ा. आज की दुनिया में जबर्दस्ती का एक ही मतलब होता है - आतंकी काररवाई ! इस तरह येरूसलम की पवित्र धरती आतंकवाद का आतंकवाद से मुकाबला करने की अभिशप्त धरती में बदल गई जिसे पर्दे के पीछे से उकसाया-भड़काया जाता रहा. 

           1993-95 के बीच लंबी वार्ता के बाद जो अोस्लो समझौता हुआ वह कागज पर ही रहाइस्रायल के मन में नहीं उतरा.  हमें पाकिस्तान के साथ हुए अपने शिमला समझौते से इसे समझना चाहिए.  इसलिए 6 फलस्तीनी परिवारों को विस्थापित करने के आदेश को अपने लिए स्वर्णिम मौका मान करअरबी आतंकवादी संगठन हमास ने लपक लिया और उसने इस्रायली बसाहट पर रॉकेट दागे. इस रॉकेट को लपक लिया इस्रायल के हैसियतविहीन प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने. प्रधानमंत्री बनने की लगातार तीन असफल कोशिशों के बाद होना तो यह चाहिए था कि नेतन्याहू चुनावी राजनीति से अलग हो जाते लेकिन ऐसा लोकतंत्र किसे पसंद आता है कि जो आपका विकल्प भी खोज सकता हो. इसलिए जब तक दूसरी कोई सरकार नहीं बन जाती हैनेतन्याहू नाममात्र के प्रधानमंत्री बने बैठे हैं और किसी तिकड़म का इंतजार कर रहे हैं. ऐसे में हमास के रॉकेट ने उन्हें मुंहमांगा अवसर दे दिया. अब वे इस्त्रायली राष्ट्रवाद का नारा उठा कर फलस्तीन पर टूट पड़े हैं. यह सत्ता में बने रहने का वही फार्मूला है जिससे हमारा खासा परिचय है. 

            फलस्तीन को यह समझना ही चाहिए कि चाहे जैसे भी बना हो लेकिन पिछले 70 से अधिक सालों में इस्रायल विश्व मानचित्र पर अपनी जगह बना चुका है. जैसे हम अब पाकिस्तान से इंकार नहीं कर सकते हैंवैसे ही फलस्तीनी इस्रायल से इंकार नहीं कर सकते. इस्रायल को भी यह सच अंतिम रूप से स्वीकार कर लेना चाहिए कि उसे जितना भू-भाग मिला हैवही उसकी सीमा है. इसमें विस्तार की कोई भी कोशिश आत्मघाती होगी. आतंकी काररवाइयों से न कोई मुकम्मल मुल्क बनता हैन टिकता हैन सुख-शांति-समृद्धि पा सकता है. इस संदर्भ में भारत समेत दुनिया के सभी न्यायप्रिय मुल्कों की एक ही भूमिका हो सकती है कि इन दोनों के बीच न आग भड़के,न भड़काई जाए. यहां मौन कायरता बन जाती हैअनदेखी अन्याय में हिस्सेदारी.  वैश्विक ताकतें यही कर रही हैं. ( 19.05.2021)   

यह मुकाबले का वक्त है

 केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय से एक सीधी बात कही है : हम पर भरोसा रखिए और हमारे काम में दखलंदाजी मत कीजिए ! हमारी सबसे बड़ी अदालत को उसने यह बताने व समझाने की कोशिश की कि कोविड की आंधी से लड़ने, उसे थामने और उसे परास्त करने की उसकी सारी योजनाएं गहरे विमर्श के बाद बनाई गई हैं; वैक्सीन लगाने-बांटने और उसकी कीमत निर्धारित करने के पीछे भी ऐसा ही गहन चिंतन किया गया है. इसलिए हमसे कुछ न बोलिए !

   यह सब तब शुरू हुआ जब सर्वोच्च न्यायालय ने ऑक्सीजन के लिए तड़पते-मरते देश का हाथ थामा और केंद्र सरकार के हाथ से ऑक्सीजन का वितरण अपने हाथ में ले लिया. न्यायालय ने यह तब किया जब बार-बार कहने के बाद भी केंद्र सरकार दिल्ली व देश के दूसरे राज्यों को आवश्यक ऑक्सीजन पहुंचाने में विफल होती रही. न्यायालय ने देखा कि केंद्र की ऑक्सीजन में राजनीति के गैस की मिलावट है. 

   यह सब तब से शुरू हुआ है जबसे सर्वोच्च न्यायालय की सर्वोच्च कुर्सी पर रमणा साहब विराजे हैं और सर्वोच्च न्यायालय ने देखना-सुनना-बोलना शुरू कर दिया है. लेकिन इस दारुण दशा में विधायिका- न्यायपालिका-कार्यपालिका का संवैधानिक संतुलन बिगड़ेतो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा. न्यायपालिका देश चलाने लगे और अक्षम-असंवेदशील सरकारें-पार्टियां चुनाव लड़ने भर को रहेंतो यह किसी के हित में नहीं है. संविधान कागज पर लिखी इबारत मात्र नहीं है बल्कि देश की सभ्यता-संस्कृति का भी वाहक है. संविधान बदला जा सकता है,  सुधारा जा सकता हैसंशोधित किया जा सकता है लेकिन छला नहीं जा सकता है. संकट के इस दौर में भी हमें संविधान के इस स्वरूप का ध्यान रखना ही चाहिए और उसकी रोशनी में इस अंधेरे दौर को पार करने का दायित्व लेना चाहिए. यह जीवन बचाने और विश्वास न टूटने देने का दौर है. 

   एक अच्छा रास्ता सर्वोच्च न्यायालय ने दिखाया है. जिस तरह उसने ऑक्सीजन के लिए एक कार्यदल गठित करसरकार को उस जिम्मेवारी से अलग कर दिया हैउसी तरह एक कोरोना नियंत्रण केंद्रीय संचालन समिति का अविलंब गठन प्रधान न्यायाधीश व उनके दो सबसे वरिष्ठ न्यायाधीशों की अध्यक्षता में होना चाहिए. इस राष्ट्रीय कार्यदल में सामाजिक कार्यकर्ताग्रामीण तथा शहरी क्षेत्र में काम करने का लंबा अनुभव रखने वाले डॉक्टरअस्पतालों के चुने प्रतिनिधिराजनीतिक दलों के प्रतिनिधिकोविड तथा संक्रमण-विशेषज्ञ लिए जाने चाहिए. यही तत्पर कार्यदल कोरोना के हर मामले में अंतिम फैसला करेगा और सरकार व सरकारी मशीनरी उसका अनुपालन करेगी. इस कार्यदल में महिलाओं तथा ग्रामीण विशेषज्ञों की उपस्थिति भी सुनिश्चित करनी चाहिए. हमें इसका ध्यान होना ही चाहिए कि अब तक जितनी खबरें आ रही हैं और जितना हाहाकार  मच रहा हैवह सब महानगरों तथा नगरों तक सीमित है. लेकिन कोरोना वहीं तक सीमित नहीं है. वह हमारे ग्रामीण इलाकों में पांव पसार चुका है. यह वह भारत है जहां न मीडिया हैन डॉक्टरन अस्पतालन दवा ! यहां जिंदगी और मौत के बीच खड़ा होने वाला कोई तंत्र नहीं है. मौत के आंकड़ों में अभी तो 10% का उछाल आया है - प्रतिदिन 4000 - जब हम ग्रामीण भारत के आंकड़ें ला सकेंगे तब पूरे मामले की भयानकता सामने आएगी. इसलिए इस कार्यदल को नदियों और रेतों में फेंक दी गई लाशों के पीछे भागना होगाकब्रिस्तानों व श्मशान से आंकड़े लाने होंगे. प्रभावी नियंत्रण-व्यवस्था का असली स्वरूप तो तभी खड़ा हो सकेगा.  

   ऐसा ही कार्यदल हर राज्य में गठित करना होगा जिसे केंद्रीय निर्देश से काम करना होगा. सामाजिक संगठनों और स्वंयसेवी संस्थाओं को इस अभिक्रम से जोड़ना होगा. किसी भी पैथी का कोई भी डॉक्टर थोड़े से प्रशिक्षण से कोविड के मरीज का प्रारंभिक इलाज कर सकता है. पंचायतों के सारे पदाधिकारियोंग्रामीण नर्सोंआंगनवाड़ी सेविकाओंआशा स्वंयसेविकाओं की ताकत इसमें जोड़नी होगी. अंतिम वर्ष की पढ़ाई पूरी कर रहे डॉक्टरनर्सेंप्राइवेट प्रैक्टिस कर रहे चिकित्सकवे सभी अवकाशप्राप्त डॉक्टर जो काम करने की स्थिति में हैंइन सबको जोड़ कर एक आपातकालीन ढांचा बनाया जा सकता है. 

   स्कूल-कॉलेज के युवा लंबे समय से घरों में कैद हैं. नौकरीपेशा लोग घरों से अपनी नौकरी कर रहे हैं. इन सबको 4-6 घंटे समाज में काम करना होगा. ये कोरोना बचाव की जरूरी बातों का प्रचार करेंगेमास्क व सफाई के बारे में जागरूकता फैलाएंगे,  मरीजों को चिकित्सा सुविधा तक पहुंचाएंगेवैक्सीनेशन केंद्रों पर शांति-व्यवस्था बनाने का काम करेंगे. इनमें से अधिकांश कंप्यूटर व स्मार्टफोन चलाना जानते हैं. ये लोग उस कड़ी को जोड़ सकते हैं जो ग्रामीण भारत व मजदूरों-किसानों के पास पहुंचते-पहुंचते अधिकांशत: टूट जाती है. यह पूरा ढांचा द्रुत गति से खड़ा होना चाहिए और सरकारों को इस पर जितना जरूरी हैउतना धन खर्च करना चाहिए. सारी राष्ट्रीय संपदा नागरिकों की ही कमाई हुई है. उसे नागरिकों पर खर्च करने में कोताही का कोई कारण नहीं है.  

   अमरीका व यूरॅप बौद्धिक संपदा पर अपना अड़ियल रवैया ढीला कर रहे हैंइस पर ताली बजाने वाले हम लोगों को खुद से पूछना चाहिए न कि हम अपने यहां क्या कर रहे हैं हम अपने यहां वैक्सीन बना रही कंपनियों से इस पर अपना अधिकार छोड़ देने को क्यों नहीं कह रहे हैं अदालत को इसमें हस्तक्षेप करना चाहिए और वैक्सीन बनाने की कीमिया तुरंत हासिल करउसका उत्पादन हर संभव जगहों पर  विकेंद्रित किया जाना चाहिए. कोरोना नियंत्रण केंद्रीय संचालन समिति बन जाएगी तो वह इन सारे कदमों का संयोजन करेगी. यह रुपये-दवाइयां-वेंटिलेटर-ऑक्सीजन आदि गिनने का नहींनागरिकों को गिनने का वक्त है. आजादी के बाद  जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि भ्रष्टाचारियों को उनके सबसे निकट के बिजली के खंभे से लटका दिया जाएगा. वे वैसा कर नहीं सके लेकिन आज उससे कम करने से बात बनेगी नहीं. 

   कोरोना मारे कि भुखमरीमौत तो मौत होती है. इसलिए शहरी बेरोजगारों और ग्रामीण आबादी को ध्यान में रख कर तुरंत व्यवस्थाएं बनानी हैं. एक आदेश से मनरेगा को मजबूत आर्थिक आधार दे कर व्यापक करने की जरूरत है जिसमें सड़केंखेती आदि के काम से आगे जा कर सारे ग्रामीण जलस्रोतों को पुनर्जीवित करनेबांधों की मरम्मत करनेगांवों तक बिजली पहुंचाने की व्यवस्था खड़ी करनेकोरोना केंद्रों तक लोगों को लाने- ले जाने का काम शामिल करना चाहिए. मनरेगा को बैठे-ठाले का काम नहींपुनर्निर्माण का जन आंदोलन बनाना चाहिए. 

   शवों के अंतिम संस्कार को हमने कोरोना काल में कितना अमानवीय बना दिया है ! स्कूल-कॉलेज के प्राध्यापकों को यह जिम्मेवारी दी जानी चाहिए ताकि हर के विश्वास के अनुरूप उसे संसार से विदाई दी जा सके.  इन सारे कामों में संक्रमण का खतरा है. इसलिए सावधानी से काम करना है लेकिन यह समझना भी है कि निष्क्रियता से इसका मुकाबला संभव नहीं है. यह तो घरों में घुस कर हमें मार ही रहा है. राजनीतिक दांव-पेंच से दूर इतने सारे मोर्चों पर एक साथ काम शुरू होसामाजिक व्यवस्थाएं अस्पतालों पर आ पड़ा असहनीय बोझ कम करेंयुद्ध-स्तर पर वैक्सीन लगाई जाए तो कोरोना की विकरालता कम होने लगेगी. जानकार कह रहे हैं कि तीसरी लहर आने ही वाली है.  आएगी तो हम उसका मुकाबला भी कर लेंगे क्योंकि तब हमारे पास एक मजबूत ढांचा खड़ा होगा. कोरोना हमारे भीतर कायरता नहींसक्रियता का बोध जगाएतो जो असमय चले गए उन सबसे हम माफी मांगने लायक बनेंगे. ( 12.05.2021)    

तीसरी लहर से पहले

  

जब हर बीतते दिन के साथ देश हारता जा रहा हो और सांसें टूट रही हों तब हम कुछ लोगों या दलों की हार-जीत का विश्लेषण करें तो कोई कह सकता है कि यह तुच्छ हृदयहीनता या असभ्यता है. है भीलेकिन इस सच्चाई का एक सच यह भी है कि वह ऐसी ही हृदयहीन व कठोर होती है. यह बड़ी असभ्यता से औचक सामने आ खड़ी होती है कि हम पहचानें व समझें कि ऐसी भयावह पराजय किसी अकेले कारण का परिणाम नहीं होती है बल्कि कई फिसलनों के योग से जनमती है. करोड़ों का खेल खेलने में मशगूल आइपीएल क्रिकेट वालों को इसने जहां ला पटका है उसमें और 5 राज्यों के तथा उत्तरप्रदेश के पंचायत चुनाव में लोकतंत्र के तंत्र का जैसा दावनी चेहरा सामने आया उसमें बहुत नजदीक का रिश्ता हैक्या अब भी हम यह नहीं पहचानेंगे राजनीतिक शक्तियों की अंधता और तंत्र की फिसलन ऐसा समाज बनाती है जो एक साथ ही बेहद क्रूर व स्वार्थी होता जाता है. राजनीतिक शक्तियों की वह फिसलन ही थी कि 1974 में लोकतंत्र की खाल अोढ़ करतानाशाही ने देश का दरवाजा खटखटाया थाराजनीतिक शक्तियों की वह फिसलन ही थी कि संसद के द्वार की धूल माथे पर लगा करसंविधान की किताब को शिरोधार्य कर वैसी ताकत ने पांव फैलाए कि संसद मजमेबाजी में बदल गई और ऐसी कोई व्यवस्था बची ही नहीं कि जो संविधान की किताब खोल सके. तंत्र तालीबजाऊ भीड़ में बदल गया. 

ऐसा नहीं है कि इस बीच चुनाव नहीं होते रहे लेकिन ऐसा नहीं हुआ कि उन चुनावों में देशलोकतंत्र व संविधान कोई मुद्दा रहा. बसजुमलेबाजी होती रहीऔर ऐसी आक्रामकता से होती रही कि जुबान कहीं खो ही गई. उद्योगपति राहुल बजाज ने इसे ही पहचाना था जब सत्ताधीशों के सामने खड़े हो कर उन्होंने कहा था कि भय का नाग सारे देश को डस रहा है. 

एक ऐसा आदर्श-वाक्य चलाया गया इन दिनों में कि एक देश का सब कुछ एक ही हो ! उसी धुन पर यह भी चला कि हर चुनाव का एक ही ध्येय : जीतोचाहे कुछ भी खोना पड़ेसत्ता न खोये ! कई लोग पूछते ही हैं कि चुनाव लड़ते ही हैं जीतने के लिए तो हारें क्यों ?  यह नया भारत है जो मानता है कि युद्ध व सत्ता के प्यार में जायज-नाजायज कुछ नहीं होता हैबस जीत होती है ! लेकिन लोकतंत्र का ककहरा भी जिसने पढ़ा हो उसे पता है कि आपकी जीत भी राक्षसी हो जाती है यदि वह मूल्यगामी न होऔर पराजय भी स्वर्णिम हो जाती है यदि वह मूल्य का संरक्षण कर पाती हो. 

 बनते-बनते चुनाव का यह शील कभी बना था हमारे यहां कि राज्यों के चुनावों मेंउप-चुनावों में प्रधानमंत्री जैसे लोग हाथ नहीं डालते थेराष्ट्रपति सिर्फ मुहर व मोहरा नहीं हुआ करता थाअदालत के सामने सरकार की सांस बंद-सी होती थी और अदालतें संविधान के पन्ने पलटते शर्माती नहीं थींसेना राजनीतिक बयानबाजी नहीं करती थीसत्ता पर अंकुश रखने वाली संविधानसम्मत संस्थाएं अपनी हैसियत अपनी मुट्ठी में रखती थीं. देश में सिर्फ सत्ता की आवाज नहीं गूंजती थीसमाज भी बोलता था और अक्सर उसका हस्तक्षेप लोकतंत्र की गाड़ी को पटरी पर ले आता था. जयप्रकाश नारायण जैसों ने चीख-चिल्ला कर यह स्थापित-सा कर दिया था कि पंचायत आदि स्थानीय निकायों के चुनाव न तो पार्टी के नाम से होंगेन पार्टी के चुनाव चिन्ह पर. इनका अपवाद भी हुआहोता रहावैसे ही जैसे कानून होने के बावजूद हत्या व बलात्कारचोरी व भ्रष्टाचार होता रहता है.  लेकिन इससे न तो कानून बदला जाता हैन ऐसे अपराधों को पचा लिया जाता है. आज ऐसे सारे शील रद्दी की टोकरी में पड़े हैं. एक मुख्यमंत्री को हरा कर हटाने में एक प्रधानमंत्री हर लक्ष्मण-रेखा भूल कर पिल पड़ा था. उसने इसे चुनाव नहींबदले की जंग में बदल दिया था. 1 प्रधानमंत्री6 मुख्यमंत्री22 केंद्रीय मंत्रीदूसरे राज्यों से चुन-छांट कर जुटाए गए पार्टी के सैकड़ों अधिकारियों ने पिछले महीनों से बंगाल को छावनी में बदल दिया था. नौकरशाही के तमाम पैदल सिपाही शिकारी कुत्तों की तरह बंगाल को सूंघने-झिंझोड़ने को छोड़ दिए गए थे. कितना पैसा बहाया गया और वह अकूत धन कहां से जुटाया गयाऐसे सवाल अब कोई पूछता भी नहीं है. यह पूछने की संवैधानिक जिम्मेवारी जिन पर हैउन्हें जैसे सांप सूंघ गया है.

 किसने पूछा कि एक राज्य का चुनाव 33 दिनों तक चलने वाले  8 चरणों तक क्यों खींचा गया ?   चुनाव की अधिकांश प्रक्रिया इलेक्ट्रोनिक हो गई हैसंवाद-संचार की सुविधाएं पहले से कहीं अच्छी व आसान हो गई हैं तब बंगाल में ( सिर्फ बंगाल में !) इतने लंबे चुनाव-कार्यक्रम का औचित्य क्या था चुनाव आयोग ने किस तर्क से यह योजना बनाई हम सिर्फ यह न देखें कि चुनाव आयोग अपनी भूमिका निभाने में कितना निकम्मा साबित हुआ बल्कि यह भी देखें कि सरकार ने चुनाव आयोग का कैसा इस्तेमाल किया ! ठीक हैपहले की सरकारों ने भी ऐसी सफल-असफल कोशिशें की ही हैंतो आप कहिए न कि हम भी वैसी ही सफल-अशफल कोशिश करते रहते हैं ! जिन सुनील अरोड़ा साहब की देख-रेख में 5 राज्यों के चुनाव हुएअंतिम दौर से पहले ही उनकी कुर्सी चली गई और उनके सहायक रहे सुशील चंद्रा ने कुर्सी संभाली. अब दो सु’ के बीच का यह फर्क देखिए कि अचानक ही बंगाल भाजपा के अध्यक्ष दिलीप घोष को चुनाव प्रचार से 24 घंटों के लिए बाहर कर दिया गयाकूचविहार में हुई गोलीबारी को कहीं भी दोहराने की धमकी देने वाले भाजपा के साईंतन बसु को नोटिस जारी की गई और चुनाव प्रचार थमने की अवधि बढ़ा कर 72 घंटे की कर दी गई. यह सब पहले क्यों नहीं हुआ क्या चुनाव आयोग अध्यक्ष की मनमौज से चलता है याकि उसके पास कोई स्पष्ट निर्देश-पत्र है जिसके आधार पर उसे फैसला लेना होता है अगर ऐसे निर्देश-पत्र की बात सही है तो फिर दोनों सु’ को देश को बताना ही चाहिए कि उनके इन फैसलों का आधार क्या था ?  

और सर्वोच्च न्यायालय ! उसका मुखिया भी अभी-अभी बदल गया हैतो हम देख रहे हैं कि वहां से उठने वाली आवाज भी कुछ बदल गई है. अदालतें बोलने लगी हैं. कोई हमें बताए कि क्या बोबडे और रमणा एक ही संविधान के पन्ने पलटते हैं तमिलनाड उच्च न्यायालय ने तो चुनाव आयोग को हत्यारों की श्रेणी में खड़ा कर दियाऔर आयोग जब इसकी फरियाद ले कर सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा तो उसने इतना ही कहा कि यह कड़वा घूंट पी लीजिए ! लेकिन जानना यह है कि जब हत्या की साजिश’ बन व चल रही थी तब अदालतों ने इसे देखा-समझा क्यों नहीं कोविड की पहली लहर की पहली अदालती प्रतिक्रिया यह हुई कि उसने अपने दरवाजे बंद कर लिए. संविधान का मेरा सीमित ज्ञान बताता है कि संविधान वैसी किसी परिस्थिति की कल्पना नहीं करता है जब न्यायतंत्र बंद कर दिया जाए. वह बदनुमादाग अदालतों के माथे पर आज तक चिपका है कि जब आपातकाल में उसने लोकतंत्र से मुंह फेरने की कायरता दिखाई थी. अब यह नया दाग उससे भी गहरा उभर आया है. इसलिए दिल्ली को ऑक्सीजन के सवाल पर जब सर्वोच्च न्यायालय केंद्र सरकार को धमकाता है याकि कोई उच्च न्यायालय कहता है कि लटका देंगे’ तो यह चुटकुलों की तरह सुना और किसी बकवास की तरह गुना जाता है. अपनी ऐसी हैसियत न्यायतंत्र ने स्वंय ही बना ली है. 

पतन हमेशा ऊपर से नीचे की तरफ उतरता है. शीर्ष पर होने का आनंद कैसा होता हैयह तो जो शीर्ष पर हैं वे ही जानें लेकिन समाजविज्ञान का अदना विद्यार्थी भी जानता है कि शीर्ष पर रहने की जिम्मेवारी क्या होती है. जब शीर्ष पर मक्कारीलफ्फाजीअज्ञान व अकुशलता का बोलबाला हो तो वही समाज की रगों में भी उतरता है. हमारा लोकतंत्र इसका ही शिकार है. 

कोविड की तीसरी लहर आने की तैयारी कर रही हैहम दूसरी की चपेट से ही नहीं निकल पाए हैं. लेकिन इससे तीसरी लहर को न तो रोका जा सकता हैन हराया जा सकता है. हमारा ऑक्सीजन खत्म हो रहा है. तीसरी लहर से पहले हमारे भीतर शिव का तीसरा नेत्र खुले तो रास्ते बनें और लोक व तंत्र दोनों बचें. ( 06.05.2021)

वे अपादमस्तक मनुष्य थे

 

   मौलाना वहीदुद्दीन खान की मौत उस खालिस इंसान की मौत है जिनकी संख्या दिन-पर-दिन घटती जा रही है. संख्या घटती जा रही है तो इसलिए नहीं कि खुदा ने इंसान बनाने बंद कर दिए हैं बल्कि इसलिए कि हमने इंसान बनना बंद कर दिया है. हम सभी आदमी की शक्ल-ओ-सूरत ले कर ही पैदा होते हैंसो कह सकते हैं कि हम सब पैदाइशी आदमी हैं. लेकिन आदमी को इंसान बनने के लिए भारी मशक्कत करनी पड़ती है. वैसी मशक्कत के बाद जब आदमी इंसान बन जाता है तब हमें लगता है कि यह तो पैदा ही ऐसा हुआ था ! मौलाना वहीदुद्दीन के साथ भी ऐसा ही था. उनको देख-सुन व जान कर लगता ही नहीं था कि इन्हें इंसान बनने की कोशिश भी करनी पड़ी होगी. हमेशा लगता था कि यह तो बना-बनाया माल है. न कहीं शब्द फिसलते थेन शख्सियत कमजोर पड़ती थी. उनकी सख्सियत का एक-एक ताना-बाना कसा हुआ था और मन हमेशा विनय भाव से झुका हुआ. भूल रहा हूं कि किसने लिखा है पर क्या खूब लिखा है : ये नहीं देखते कितनी है रियाजत किसकी / लोग आसान समझ लेते हैं आसानी को. 

   आसान नहीं था मौलाना वहिदुद्दीन बनना !

   बड़े विषैले दिन थे वे ! बाबरी मस्जिद के ध्वंस से पहले का दौर था और रथयात्रा से धूल नहींघृणा व विद्वेष की चिंगारियां फूट रही थीं. कोई अपशकुन हवा में घुल रहा था. मुझे पहले भी कभी श्रद्धा नहीं थी कि अटलबिहारी वाजपेयी तालीबजाऊ लोकप्रियता से आगे जा कर कभी सच बोल सकते हैंउस दिन भी नहीं थी  लेकिन उस दिन मैं पहुंचा तो उनके पास ही था. साथ में सर्वोदय के वयोवृद्ध साथी ठाकुरदास बंग थे. सदा की आत्मीयता से वाजपेयीजी मिले लेकिन मेरी चिंतित बातें सुन कर चुप हो गये. अपना हाथ तो कई बार हवा में नचाया लेकिन कोई लकीर न बननी थीन बनानी थीन बनी. मैंने उन्हें जगाने की कोशिश की : जेपी आपके लिए कहते थे कि अटलजी एक ऐसे आदमी हैं जो अवसर आने पर पार्टी के संकीर्ण हितों से ऊपर उठ सकते हैं. मुझे लगता हैआज वैसा अवसर है ! खिन्न स्वर में बुदबदाते हुए बोले : प्रशांतजी,  आप मुझे इतना ऊपर उठने को मत कहिए कि मेरे पांव के नीचे कोई जमीन ही न रहे ! फिर तो कहने के लिए कुछ बचा ही नहीं.

   अगले दिन हम मौलाना वहिदुद्दीन के पास बैठे थे. मैं उद्विग्न तो था हीकिसी हद तक निराश भी था. हिंदू सांप्रदायिकता का शमन और बाजवक्त उसका मुकाबला करने की बात पर मेरे और उनके रुख में बड़ा फर्क था जो कई बार हमारे बीच आ खड़ा होता था. लेकिन उस दिन मेरी बात सुन कर वे हमेशा की तरह शांत व गहरी आवाज में बोले : “ यह तो आपने बहुत अच्छा किया कि वाजपाईजी से बात की.” मैंने कहा:” बात नहीं कीबस मैंने बात कही !… वे तो कुछ बोले नहीं !” मौलाना फिर बड़े भरोसे से बोले : “ आपको लगता है कि आपके वापस आने के बाद भी कुछ बोले नहीं होंगे वे ऐसे इंसान नहीं हैं. उनके भीतर बात चलती रहती है.” मैंने कुछ ऐसा कहा कि जिससे बात बनती न होवैसी बातों का चलनान चलना सब बेमानी ही होता हैतो धीरे सेजैसे मुझे आश्वस्त कर रहे होंऐसे बोले : “ आप बहुत परेशान न हों. कुछ बातें वक्त भी तो बना देता है.” वहां से निकला तो मुझे भी कहीं आश्वस्ति मिली थी कि हम भले कुछ न कर पा रहे होंवक्त जरूर कुछ करेगा. जब अपने हाथ में कुछ नहीं होता है तब उन जैसा कोई आदमी शुभ की कामना करता है तो वह कामना आपके भीतर भी भरोसा जगाती है. 

   वे इस्लाम के पंडित थेभारतीय अध्यात्म उनकी अंतर्धारा थी. वे पहले मुसलमान थे और अंतत: भी मुसलमान थे लेकिन उसी दावे के साथ वे पहले भारतीय थे और अंतत: भी भारतीय थे. आसान नहीं होता है ऐसा संतुलन साधना लेकिन साधना सब कुछ आसान बना देती है. इसलिए जो सिर्फ मुसलमान थे उन्हें मौलाना बहिदुद्दीन पचते नहीं थेजो सिर्फ हिंदू थे उनको भी मौलाना से ऐसी ही दिक्कत होती थी. बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद वे अपनी कोटि के संभवत: पहले मुसलमान थे जिसने सार्वजनिक रूप से कहा था कि मुसलमानों को अब बाबरी मस्जिद से अपना दावा वापस ले लेना चाहिए और उस तरफ से खामोशी अख्तियार कर लेनी चाहिए. मुझे यह तजवीब रुचि नहीं  थी. मैंने पूछा : आप मुसलमानों को न्याय के हक में बोलने का अधिकार भी नहीं देंगे वे बगैर किसी प्रतिक्रिया के बोले : मैंने किसी से हक छोड़ने को नहीं कहा है. खामोश रहना भी बोलना ही है. मुसलमान पिछले दिनों में जो कुछ हुआ है उसका गम बता कर खामोशी अख्तियार कर लेंगे तो हिंदुओं के लिए लाजिमी हो जाएगा कि वे सच व न्याय की बात बोलें ! उन्होंने यह भी कहा कि बाबरी के बाद किसी मस्जिद-मंदिर का सवाल नहीं उठाया जाएगाऐसा आश्वासन मिलना चाहिए. मैंने फिर टोका था: यह आश्वासन कौन देगा ये तो वे लोग हैं जो सर्वोच्च न्यायालय को आश्वासन दे कर भी छल करने में हिचकते नहीं है. बगैर किसी रोष के वे बोले : नहींयह आश्वासन भर नहींसंवैधानिक वचन होना चाहिए. लिखित हो और न्यायपालिका की मध्यस्थता में हो. ऐसा कुछ होना नहीं थाहुआ भी नहीं लेकिन मौलाना अपनी बात कहते रहे. अपनी बात बेहिचक कहना और कहते रहना उनकी साधना थी. 

    ऐसा नहीं था कि वे कम बोलते थे लेकिन उनके अंदर कोई छलनी लगी थी जिससे छन कर सार भर ही बाहर आता था. उस ऊंचाई के लोग दूसरों को बहुत छोटा व तुच्छ मानते हैं लेकिन मौलाना उतने ऊंचे आसान से कभी बात नहीं करते थे. वे मनुष्य से छोटी भूमिका में मुझे कभी मिले ही नहीं. गांधीजी के सेवाग्राम आश्रम में शाम की प्रार्थना में वे हमारे साथ बैठे थे. सभी चाहते थे कि प्रार्थना के बाद वे कुछ कहें. ऐसा होना कोई अनहोनी नहीं थी.  खास मेहमानों से प्रार्थना के बाद कुछ कहने की बात होती रहती थी. लेकिन मौलाना ने बात सुनते ही इंकार में सर हिलाया. एकदम इंकार ! लेकिन बापू जिस पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ कर प्रार्थना करते थे वहां देर तक बैठे रहे. पीपल जैसे लाखों पत्तियों वाला अपना हाथ ऊपर लहरा रहा था. धीरे से बोले : यहां बोलना क्यायहां तो ये सारे पत्ते भी प्रार्थना करते रहते हैं. इन्हें सुनें हम ! … दूसरे दिन बहुत इसरार के बादवे प्रार्थना के अंत में कुछ बोले भी लेकिन मुझे याद तो इतना ही रहा कि यहां पत्ते भी प्रार्थना करते हैंइन्हें सुनें हम !

   अब वह आवाज सुनाई नहीं देगी. मौत का मतलब ही उतनी दूर का सफर होता है जितनी दूर से आती आवाज न सुनाई देती हैन इंसान उतनी दूर से दिखाई देता है. लेकिन एक सार्थक व पवित्र जीवन का मतलब ही यह होता है कि काल व वक्त की दूरी पार कर भी उसकी गूंज उठती रहती है. मौलाना वहिदुद्दीन खान वैसी ही गूंज बन कर हमारे बीच रहेंगे. ( 27.04.2021)

काबे किस मुंह से जाओगे गालिब…

  

कोरोना सबकी कलई खोलता जा रहा है. 

हमारे शायर कृष्ण बिहारी नूर ने कहा है : सच घटे या बढ़े तो सच ना रहे/ झूठ की कोई इंतहा ही नहीं. कोरोना इसे सही साबित करने में लगा है. 

कोई है जो दस नहीं हजार मुख से चीख-चीख कर कह रहा है कि न अस्पतालों की कमी हैन बिस्तरों कीन वैक्सीन कहीं अनुपलब्ध हैन कहीं डॉक्टरों-नर्सों की कमी है. वह बार-बार कहरहा है कि ऑक्सीजन तो जितनी चाहो उतनी उपलब्ध है. दूसरी तरफ राज्य हैं कि जो कभी चीख करकभी याचक स्वर में कह रहे हैं कि हमारे पास कुछ भी बचा नहीं है. हमें वैक्सीन दोहमेंऑक्सीजन दोहमें बिस्तर और वेंटीलेटर लगाने-बढ़ाने के लिए संसाधन दो. हमारे लोग मर रहे हैं. लेकिन वह आवाज एक स्वर सेएक ही बात कह रही है : देश में कहीं कोई कमी नहीं. जिनराज्यों में कमल नहीं खिलता हैवे ही राज्य सारा माहौल खराब कर रहे हैं. 

हमारा शायर बेचारा कह रहा हैकहता जा रहा है  : झूठ की कोई इंतहा ही नहीं ! 

उच्च न्यायालय गुस्से में कह रहे हैं : लोग मर रहे हैं और आपकी नींद ही नहीं खुल रही है ! चाहे जैसे भी हो - छीन कर लाओ कि चुरा कर लाओ कि मांग कर लाओ लेकिनऑक्सीजन लाओवैक्सीन लाओ. यह तुम्हारा काम हैतुम करो. 

सर्वोच्च न्यायालय कह रहा है : यह राष्ट्रीय संकटकाल है. सब कुछ रोक दीजिए. बस एक ही काम:  लोगों का समुचित इलाज ! जान बचाई जाए. कारखानों व दूसरे कामों में ऑक्सीजनकी एक बूंद भी इस्तेमाल करने पर प्रतिबंध लगा दीजिए. सारे संसाधन अस्पतालों को मुहैया कराइए. 

क्या इससे पहले भी इनमें से किसी ने ऐसा कहा था ?  

जिस प्रधानमंत्री ने रातो-रात लॉकडाउन लगा कर सारे देश की सांस बंद कर दी थी और अपनी पीठ थपथपा कहता ही रहा था कि समय पर लॉकडाउन लगा कर मैंने सारे देश को बचालिया वही प्रधानमंत्री अब कह रहा है कि तब लॉकडाउन इसलिए लगाया था कि हमारी तैयारी नहीं थीसंसाधन नहीं थेइस बीमारी का कोई इलाज पता नहीं था. हमने सब की सांस इसलिएबंद कर दी थी ताकि हमें सांस लेने का मौका मिलेताकि हम तैयारी पूरी कर सकें. वे कह रहे हैं कि आज ऐसा नहीं है. अब हम लॉकडाउन नहीं करेंगे.  राज्यों को भी इसे एकदम आखिरीविकल्प मानना चाहिएक्योंकि आज हम सारे संसाधनों के साथ तैयार भी हैं और हमें इस कोविड का इलाज भी पता है. 

देश अपनी टूटती सांसें संभालता हुआ कह रहा है : मैं तो तब भी सांस नहीं ले पा रहा थाअब भी नहीं ले पा रहा हूं. मेरे लोग तब भी बेहिसाब बीमार पड़ेतड़प रहे थेमर रहे थेआज भीतब से ज्यादा बीमार हैंतड़प रहे हैंमर रहे हैं. तुम लाशें गिन सकते होलाशें छिपा सकते हो लेकिन मेरा दर्द नापने वाला ऑक्सीमीटर बना ही कहां है ! 

जवाब में आंकड़े पेश किए जा रहे हैं : जंबो कोविड सेंटर यहां भी बन गया हैवहां भी बन गया है.  इतने बेड तैयार हैंइतने अगले माह तक तैयार हो जाएंगे. ऑक्सीजन प्लांट अपनीपूरी क्षमता से काम कर रहे हैं. वैक्सीन में तो हम सारी दुनिया में अव्वल हैं - विश्वगुरू ! वैक्सीन बर्बाद न होने दीजिएऑक्सीजन बर्बाद न कीजिए !  प्रधानमंत्री रात-दिन बैठकें कर रहे हैं. देश कीसबसे अ-सरकार सरकार राजधानी दिल्ली की है जिसका मुखिया नौजवानों से कह रहा है : हमने दिल्ली के अस्पताल चौबीस घंटे आपके लिए खोल दिए हैं. मुफ्त वैक्सीन लगाई जा रही है. आपघर से बाहर मत निकलिए तो कोई खतरा नहीं है. हम तब भी जीते थेअब भी जीतेंगे. वे कोविड से जीतने की बात कर रहे थेमुझे सुनाई दे रहा था - चुनाव !    

शायर गा रहा है : झूठ की कोई इंतहा ही नहीं ! 

विश्व स्वास्थ्य संगठन कह रहा है : हमने फरवरी में ही भारत सरकार को आगाह किया था कि यूरोप आदि में जैसा दिखाई दे रहा हैकोविड का वैसा ही विकराल स्वरूप आपके यहां भीलौटेगा. इसलिए अपने ऑक्सीजन का उत्पादन जितना बढ़ा सकेंबढ़ाइए. किसी के कान पर तब जूं क्यों नहीं रेंगी अखबारों में यह खबर सुर्खी क्यों नहीं बनी ?

पहले लॉकडाउन से इस लॉकडाउन के बीच ( आपको अंदाजा न हो शायद कि कोई 15 राज्यों में लॉकडाउन लगाया जा चुका है- हांउसका नाम बदल दिया गया है !) स्वास्थ्य सेवा मेंक्या-क्या सुधार किया गया हैकिस क्षेत्र में क्या-क्या क्षमता बढ़ाई गई हैकोई तो बताए ! अस्पताल में जब भी एक मरीज दाखिल होता है तो वह अपने साथ एक डॉक्टरएक नर्सएक निपुणजांचकर्ताऑक्सीजनवेंटिलेटर विशेषज्ञ से ले कर कितने ही स्वास्थ्यकर्मी की मांग करता हुआ दाखिल होता है. कोई तो बताए कि उस लॉकडाउन से इस लॉकडाउन के बीच इनकी संख्या मेंकितनी वृद्धि हुई ?

 कोई हमें यह न बताए कि डॉक्टरनर्सविशेषज्ञ आदि एक-दो-दस दिन में तैयार नहीं किए जा सकते. जब आपातकाल सामने होता है तब तर्क से अधिक संकल्प व ईमानदारी की याईमानदार संकल्प की जरूरत होती हैजुमलेबाजी की नहीं. किया यह जा सकता था कि कैसे उन सब डॉक्टरों कोजो समर्थ हैं लेकिन कानूनन रिटायर हो गए हैंवे जो नौकरी के अभाव मेंआजीविका के लिए प्राइवेट प्रैक्टिस कर रहे हैंवे जो फौजी स्वास्थ्य सेवाओं से निकले हैंवे जो डॉक्टरी के अंतिम वर्षों में पहुंचे हैं,  वे जो अलग-अलग पैथियों में इलाज करते हैं उन सबकोकोविड के खिलाफ सिपाही बना कर उतारने के लिए आवश्यक प्रशिक्षण दिया जाता. उनकी आर्थिक व्यवस्था की जाती और उन्हें चरमराते अस्पतालों मेंसमझ से कोरे घरों में फैला दियाजाता कि वे लड़ाई में देश की मदद करें. संक्रमण को परास्त करने का युद्ध तो छेड़ा जाता! लेकिन माहौल तो एक ही बनाया गया कि कहां चुनाव जीतना हैकहां कैसी संकीर्णता फैलानी हैकहांकौन-सा यज्ञ-अनुष्ठान आयोजित करवाना है. सत्ता जब ऐसा माहौल बनाती हैतब सारे सत्ताकांक्षी उसके पीछे-पीछे दौड़ते हैं. इसलिए नेताओं में कोई फर्क बचा है कहीं 

  हमें अपनी अदालतों से पूछना चाहिए कि आपने अपनी तरफ से संज्ञान ले कर कभी वह सब क्यों नहीं कहा जो अब कह रहे हैं आपने तो अदालतों को ही लॉकडाउन में रख दिया!  संविधान में लिखा है कहीं कि न्यायालय अपनी संवैधानिक दायित्वों से भी मुंह मोड़ ले सकते हैं आपातकाल में न्यायपालिका पर यही दाग तो लगा था जो आज भी दहकता है ! और चुनावआयोग से क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि क्या उसे कोविड का घनेरा दिखाई ही नहीं दे रहा था कि उसने चुनावों का ऐसा भारी-भरकम,लंबा आयोजन किया सत्ता की बेलगाम भूख को नियंत्रितकरने के लिए ही तो हमने चुनाव आयोग का सफेद हाथी  पाला है.  किसी गृहमंत्री ने ऐसी लंगड़ी दलील दी कि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि चुनाव से बचा जा सके. कितना बड़ापाखंड है यह ! चुनाव से बचने की अलोकतांत्रिक भ्रष्ट मानसिकता और अभूतपूर्व महामारी से देश को बचाने की संवैधानिक व्यवस्था में फर्क करने की तमीज नहीं है हमें हमारी न्यायपालिकाऔर चुनाव आयोग बताए कि क्या हमारा संविधान इतना बांझ है कि वह आपातकाल में रास्ते नहीं बताता है चुनाव आयोग कभी देश से यह कहने एक बार भी सामने आया  किकोविड का यह अंधेरा चुनाव के उपयुक्त नहीं है ?  सब दूर से आती किसी धुन पर नाच रहे हैं. सामान्य समझ व संवेदना का ऐसा असामान्य लॉकडाउन देश कैसे झेलेगा मर कर ही न ! वही वह कर रहा है. 

काबे किस मुंह से जाओगे गालिब/ शर्म तुमको मगर नहीं आती ! ( 23.04.2021)