दिनों के बाद, शायद वर्षों बाद, हमारे राष्ट्रपति ने हमसे कुछ कहा है ! हमारे गणतांत्रिक संविधान में राष्ट्रपति की जैसी परिकल्पना है, अौर संविधान जैसी भूमिका में उसे देखना चाहता है कुछ वैसी भूमिका इस बार राष्ट्रपति ने निभाई है. लेकिन मैं बात यहां से अागे बढ़ाऊं, इससे पहले यह साफ करता चलूं कि मैं जिस राष्ट्रपति की बात कर रहा हूं, वे वर्तमान नहीं, पूर्व राष्ट्रपति हैं; अौर देश में अभी एक ही पूर्व राष्ट्रपति जीवित हैं - प्रणव मुखर्जी ! प्रणव मुखर्जी जब तक सक्रिय दलीय राजनीति में थे, सत्ता के ऊंचे पदों के अाकांक्षी भी थे अौर वे उन्हें हासिल भी थे, तब तक उनके बारे में अलग से कहने लायक कोई खास बात मेरे पास नहीं है. लेकिन राष्ट्रपति भवन से निकलने के बाद, बाजवक्त वे ऐसी बातें कहते रहे हैं कि जो राहत भी देती रही है अौर रास्ता भी बताती है. अभी-अभी ऐसा ही प्रसंग बना जब वे चुनाव अायोग द्वारा अपने पहले मुख्य चुनाव अायुक्त सुकुमार सेन की स्मृति में शुरू की गई व्याख्यानमाला का पहला व्याख्यान दे रहे थे. उस व्याख्यान में प्रणव मुखर्जी ने बहुत कुछ ऐसा कहा कि जिसे कहने, समझने अौर बरतने की जैसी जरूरत अाज है वैसी पहले कभी नहीं थी. ऐसा इसलिए कि भारतीय लोकतंत्र पहले कभी ऐसे अलोकतांत्रिक रेगिस्तान से गुजरा नहीं था जिससे अाज गुजर रहा है. अाज देश में बमुश्किल ऐसी कोई लोकतांत्रिक छांव बची है कि जिसके तले सांस ली जा सके.
जब देश की लोकतांत्रिक सांस उखड़ने पर हो,सारा देश संविधान की किताब ले कर सड़कों पर उतरा हुअा हो अौर गुहार लगा रहा हो कि हमारा दम टूट जाए इससे पहले हमारे साथ इस किताब को पढ़ो, तब संविधान के संरक्षण की रोटी तोड़ने वाली न्यायपालिका देश से कहे कि चार सप्ताह तक जिंदा रह सकते हो तो रहो वरना खुदा हाफिज, ऐसे गाढ़े वक्त में किसी राष्ट्रपति का यह कहना कि ऐसे जनांदोलनों से ही लोकतंत्र प्राणवान व अर्थवान बनता है, ताजा हवा के झोंके की तरह है. तोहमतों, धमकियों, गालियों, चालों- कुचालों के इस अंधे दौर में कोई तो यह फिक्र करे कि देश दलों से कहीं बड़ा अौर अापकी या उनकी सत्ता से कहीं ऊपर है ! लोकतंत्र में तंत्र का काम ही है कि वह लोक के अनुकूल बने या लोक को अनुकूल बनाए लेकिन लोक का दमन-मर्दन किसी भी तरह, किसी भी हाल में लोकतंत्र में स्वीकार्य नहीं है. ‘ हम एक इंच भी पीछे नहीं हटेंगे’, यह लोकतंत्र की भाषा नहीं है; लोकतंत्र की भाषा तो होगी - ‘हम एक इंच भी अागे नहीं बढ़ेंगे जब तक अापको साथ नहीं ले लेंगे.’ इसलिए राष्ट्रपति ने कहा कि सुनना, विमर्श करना, बहस करना, तर्क-वितर्क करना अौर यहां तक कि असहमत होना- यही वह खाद है जिस पर लोकतंत्र की फसल लहलहाती है. अौर फिर किसी को कोई भ्रम न रह जाए इसलिए राष्ट्रपति ने यह भी कहा कि देश का युवा भारतीय संविधान में भरोसा जता रहा है अौर उसकी हिमायत में रास्तों पर अाया है, यह कलेजा चौड़ा करने जैसी बात है. वे कहते गये : “ भारतीय लोकतंत्र की कई बार परीक्षा हुई है. पिछले कुछ महीनों से हम देख रहे हैं कि लोग,खास कर युवा,अपनी बातें कहने के लिए बड़ी संख्या में सड़कों पर निकल अाए हैं. इनकी राय सुनना बहुत जरूरी है. अाम सहमति ही तो लोकतंत्र की अात्मा है. मुझे लगता है कि अाज सारे देश को अपने दायरे में ले लेने वाला जो अधिकांशत: शांतिपूर्ण प्रतिरोध चल रहा है, इससे लोकतंत्र की जड़ें अौर भी गहराई में जाएंगी.”
सारा सवाल यही है कि लोकतंत्र की अापकी समझ क्या है ? क्या यह सीटें जीतने अौर कुर्सियों पर पहुंचने का खेल मात्र है ? अगर लोकतंत्र इतना ही है तब तो हमें इसकी फिक्र करने की जरूरत नहीं है कि कौन कैसे जीता है अौर कुर्सी पर बैठ कर कौन, क्या कर रहा है. फिर तो यह खुला खेल फरुख्खाबादी है. लेकिन लोकतंत्र की अात्मा यदि यह है कि वह सर्वाधिक सहमति से चलाया जाने वाला वह तंत्र है जिसमें जनता की भागीदारी लगातार बढ़ती जानी चाहिए,तो सत्ता में बैठे लोगों को इसकी निरंतर सावधानी रखनी चाहिए अौर सत्ता में उन्हें भेजने वाली जनता को हर वक्त यह कोशिश करनी चाहिए कि लोकतंत्र का दायरा कैसे बढ़ता व फैलता रहे. इसके लिए जरूरी है कि सत्ता का अधिकाधिक विकेंद्रीकरण हो. तब सवाल यह रह जाता है कि सत्ता का मतलब क्या है अौर वहां कौन बैठा है ? सत्ता का मतलब है निर्णय करने व फैसला सुनाने की शक्ति ! अौर वहां सिर्फ वही नहीं बैठा है कि जो प्रधानमंत्री बना है याकि मंत्रिमंडल का सदस्य है या कि राजनीतिक दलों से ताल्लुक रखता है. हमारे संविधान के मुताबिक सत्ता में त्रिमूर्ति बैठी है - विधायिका, कार्यपालिका अौर न्यायपालिका; अौर अब चौथी मूर्ति है प्रेस ! तो चार ताकतें हैं जो भारतीय संदर्भ में सत्ता का सर्जन करती हैं. लेकिन इन चारों खंभों की सर्जक भारत की जनता है. वह इन्हें बनाती है, वही इनका मानती है अौर वही इन्हें बदलती व मिटाती भी है. यही जनता जन अांदोलन की जनक भी है अौर इसकी अभिन्न घटक भी.
यह बुनियादी बात है - लोकतंत्र का यह वह ककहरा जिसे इन चारों ताकतों को सीखने अौर मानने की जरूरत है. जब सरकार अपनी सत्ता को मजबूत व चुनौतीविहीन करने के लिए सांप्रदायिकता फैला रही हो, चुनाव में राम मंदिर बनवाने के अदालती अादेश को भुनाने की कोशिश कर रही हो, संसदीय बहुमत को तोप की तरह दाग कर लोगों की हर अावाज व अाकांक्षा को ध्वस्त कर रही हो, समाज के घटकों को अामने-सामने खड़ा कर रही हो अौर अमर्यादित साधनों के इस्तेमाल से सामूहिक विमर्श को कुंठित कर रही हो, ऐसी असंवैधानिक अापाधापी के दौर में न्यायपालिका न्याय के अपने संवैधानिक दायित्व को भूल कर शांति का राग अलापने लगे तो वह संविधान को विफल करती है. कार्यपालिका जब विधायिका की पिछलग्गू बन कर दुम हिलाने लगती है, तब वह संविधान को धता बताती है. चुनाव अायोग चुनाव के मैदान में उतरे सभी दलों को अगर समान नजर से नहीं देखता है अौर सत्तापक्ष को अपनी तमाम व्यवस्थाअों का बेजा फायदा उठाने देता है, तो वह संविधान को निष्प्रभावी बनाने का अपराध करता है. वे तमाम संवैधानिक संस्थाएं,जो संविधान ने गढ़ी ही इसलिए हैं कि वे हर नाजुक समय पर उसके लिए ढाल बन कर खड़ी होंगी, अगर अपनी रीढ़ कभी सीधी ही नहीं करती हैं तो वे संविधान से घात करती हैं. तो मतलब सीधा है कि जब संवैधानिक व्यवस्थाएं घुटने टेकने लगें तब संविधान की जनक जनता को अागे अा कर लोकतंत्र की कमान संभालनी पड़ती है. यही गांधी ने सिखाया था, यही जयप्रकाश ने कर के दिखाया था. यही वह जनांदोलन है जिसकी जरूरत राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को दिखलाई पड़ती है.
जनांदोलन लोकतंत्र को नया संस्कार देते हैं,नया स्वरूप देते हैं, नई परिभाषाएं सिखाते हैं, नये लक्ष्यों व नारों से लैस करते हैं. लोकतंत्र के लिए जनांदोलन इंजन का काम करते हैं. वह लोकतंत्र सजीव व सार्थक बना रहता है जो जनांदोलनों को अपनी ताकत बनाना जानता है. कोरे संविधान से चलने वाला लोकतंत्र पुराना पड़ने लगता है, यथास्थिति की ताकतें उसे अप्रभावी बनाने लगती हैं. उसका अाकार भले बड़ा हो जाए, उसका अासमान सिकुड़ने लगता है. इसलिए जरूरी है कि उसकी रगों में जनांदोलनों का ताजा खून दौड़ता रहे. लोकतंत्र अौर जनांदोलन का ऐसा गहरा रिश्ता है. जनांदोलन लोकतांत्रिक हो, अौर लोकतंत्र जनांदोलनों की ताकत से शक्ति व दिशा अर्जित करे, ऐसा एक समीकरण हमें संपूर्ण क्रांति की उस दिशा में ले जाएगा जिसकी साधना जयप्रकाश ने की थी अौर जिसकी संभावना उन्होंने ’74-77 के दौर में दिखलाई थी. नागरिकता के सवाल पर अाज जो जनांदोलन देश की सड़कों पर है, महीनों से टिका हुअा है अौर लगातार फैल रहा है, उसे इसी नजरिये से देखा व समझा जाना चाहिए. लाखों-लाख लोग, सभी उम्र-धर्म-जातियों-भाषाअों के लोग,किसी निजी मांग या लाभ के लिए नहीं, भारतीय समाज की संरचना का सवाल उठते हुए, संविधान की अात्मा को समझने का संकल्प दोहराते हुए, गांधी-अांबेडकर के बीच की समान डोर तलाशते हुए यदि सड़कों पर हैं तो किसी भी लोकतांत्रिक सरकार का एक ही काम हो सकता है, एक ही काम होना चाहिए कि वह पुलिस व बंदूक अौर दमन की ताकत से नहीं, विमर्श की मानसिकता के साथ अांदोलनकारियों के साथ सीधी व खुली बात शुरू करे. वह गृहमंत्री कैसे घर चलाएगा जिसे घरवालों के साथ मिलने की हिम्मत नहीं है अौर जो उन्हें दूर से धमकाता है ? कपड़ों-साफों अौर स्मारकों के नये रंग में ‘अपना नया हिंदुस्तान’ खोजने में खोये प्रधानमंत्री को यह कैसे नहीं दिखाई दे रहा है कि ‘नया हिंदुस्तान’ वहां बन रहा है जहां अनगिनत मुसलमान-ईसाई-सिख-हिंदू-दलित, लड़कियां-लड़के अपनी कितनी सारी पुरानी पहचानें परे हटा कर मिल रहे हैं अौर देश व संविधान के अलावा दूसरी कोई बात न कर रहे हैं,न करने दे रहे हैं ? वे हमारे गणतंत्र के भाल पर नया टीका लगा रहे हैं. यह नया भारत है जो करवट ले रहा है. हमें इसका स्वागत करना चाहिए, इसके साथ खड़ा होना चाहिए. यह हम ही नहीं कह रहे हैं, राष्ट्रपति भी कह रहे हैं. (27.01.2020)
No comments:
Post a Comment