अावाज सर्वोच्च न्यायालय से अाई है अौर उसे वाणी दी है तीन जजों की बेंच के प्रमुख अौर हमारी न्यायपालिका के प्रमुख एस.ए.बोबडे साहब ने. किन्हीं वकील पुनीत कुमार ढांढा की याचिका थी कि अदालत सीएए को संवैधानिक घोषित करे अौर उसके खिलाफ चल रहे सारे अांदोलन को असंवैधानिक घोषित करे. न्यायमूर्ति बी.अार.गवई अौर सूर्यकांत की तरफ से इस याचिका पर टिप्पणी करते हुए बोबडे साहब ने कहा कि मैं पहली बार ही अदालत से ऐसी कोई मांग सुन रहा हूं जबकि यह तो सर्वविदित है संसद द्वारा पारित हर कानून संवैधानिक होता है. अदालत का काम यह देखना मात्र है कि जो पारित हुअा है वह कानूनसम्मत है या नहीं. देश बहुत नाजुक दौर से गुजर रहा है. ऐसी याचिकाअों से इसे कोई मदद मिलने वाली नहीं है. ऐसी अौर इतनी व्यापक हिंसा फैली हुई है कि सबसे पहले देशव्यापी शांति का प्रयास किया जाना चाहिए ताकि सीएए की वैधता पर विचार किया जा सके.
अदालत ने जो कहा वह सही ही कहा लेकिन अधूरा कहा. अाधी या अधूरी बात न न्याय के हित में होती है, न समाज के. देश में हिंसा की यह जो अाग भड़की है अौर दावानल की तरह फैल रही है वह अास्ट्रेलिया के जंगलों में लगी अाग जैसी नहीं है कि जिसके कारणों में जाए बिना भी उसे बुझाया जा सकता है. यह वह सामाजिक अाग है जो अकारण न तो लगती है अौर न बेवजह फैलती है. यह योजनापूर्वक भड़काई गई है अौर जिसके दावानल बनते जाने में किसी को अपना राजनीतिक फायदा दीख रहा है. इसलिए इसे बुझाने की जगह इसके खिलाफ एक दूसरी हिंसा खड़ी की जा रही है. सड़क पर घबराई-डरी अौर भटकाई भीड़ की हिंसा, जो हिंसा नहीं बल्कि छूंछे क्रोध में की जा रही तोड़-फोड़ भर है, के सामने अाप राज्य द्वारा नियंत्रित व संचालित हिंसा को खड़ा करते हैं तो यह अाग में घी डालने से कम बड़ा अपराध नहीं है. यह अलोकतांत्रिक भी है, अनैतिक भी अौर असंवैधानिक भी. उन्मत्त भीड़ की दिशाहीन तोड़-फोड़ अौर राज्य की प्रायोजित कुटिल हिंसा को एक ही पलड़े पर रख कर नहीं तोला जा सकता है. हिंसा गलत है, बुराई की जनक है अौर घुन की तरह अादमी को भी अौर समाज को भी खोखला कर जाती है. इसलिए उसका समर्थन कोई भी साबुत दिमाग अादमी कैसे कर सकता है ? लेकिन हिंसा अौर हिंसा के बीच फर्क करने का विवेक हम खो दें तो हिंसा की पहचान ही गुम हो जाएगी. चूहे को अपने फौलादी जबड़े में दबोच कर, झिंझोड़ती बिल्ली की हिंसा अौर अवश चूहे द्वारा पलट कर उसे काटने की कोशिश वाली हिंसा में फर्क तो महात्मा गांधी भी करते हैं. महात्मा गांधी भी कहते हैं कि जब दूसरा कोई विकल्प न हो सामने तो कायरता व हिंसा में से मैं हिंसा को चुनूंगा. इसका मतलब क्या यह निकाला जाए कि महात्मा गांधी हिंसा की वकालत कर रहे थे ? नहीं, वे हिंसा अौर हिंसा के बीच के फर्क को रेखांकित कर रहे थे. हमारी अदालत को भी हिंसा की इस अाग पर कोई भी टिप्पणी करने से पहले यह फर्क करना व समझना सीखना होगा अौर हिंसा के जनकों को संविधान का अाईना दिखाना होगा.
समाज हिंसा की तरफ तब जाता है जब उसका विश्वास टूटता है; अौर चौतरफा हिंसा अौर अराजकता तब छाती है जब समाज चौतरफा विश्वासघात से घिर जाता है. अाज राजनीतिक-सामाजिक-अार्थिक क्षेत्र में जैसा पतन हम देख रहे हैं, गुंडों-बटमारों-सांप्रदायिकों-कुशिक्षितों की अाज जैसी बन अाई है, वह सब इसी चौतरफा भरोसाहीनता का परिणाम है. लोकतंत्र का यह कूड़ाघर अाज का नहीं,पुराने समय से जमा होता रहा है. अाज के सत्ताधारियों ने इसे चरम पर पहुंचा दिया है. हिंसा अौर क्षोभ का यह माहौल देश को ही ले डूबे इससे पहले हिंसा के जनक कौन हैं, इसकी पहचान कर लेना जरूरी है.
वह न्यायपालिका हिंसा की जनक है जो समय पर हस्तक्षेप कर, किसी भी सरकार या संवैधानिक संस्थान को उसकी मर्यादा से बाहर जाने से रोकती नहीं है. हमारे संविधान ने ऐसी अत्यांतिक परिस्थिति के लिए अपने संस्थानों को ऐसी विशेष शक्तियां दे रखी हैं कि जिनसे वे एक-दूसरे का पतन रोक सकती हैं. हमारी बेहतरीन संवैधानिक व्यवस्था में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका ही नहीं, दूसरे संवैधानिक संस्थान भी अपने-अपने दायरे में स्वंयभू-से हैं लेकिन संविधान ने उन सबकी दुम अापस में बांध भी दी है. ये सभी परस्परावलंबी स्वंयभू हैं. अदालत यह कह ही कैसे सकती कि जब तक शांति नहीं होगी तब तक वह संविधान की कसौटी पर किसी सरकारी कदम को जांचने का काम स्थगित करती है. उसे तो विधायिका या कार्यपालिका की विफलता से धधकते दावानल में पैठ कर अपनी संवैधानिक भूमिका देश के सामने रखनी ही चाहिए ताकि हिंसा की जड़ काटी जा सके. लोकतांत्रिक व्यवस्था में लगी हिंसा की अाग को संविधान के छींटे से बुझाना न्यायपालिका की पहली जिम्मेवारी है. जब-जब वह ऐसा करने से चूकती है, तब-तब वह हिंसा की जनक बनती है. हमारे संविधान ने इसलिए ही न्यायपालिका को सिर्फ कान नहीं दिए हैं बल्कि अांखें भी दी है कि वह स्वत:संज्ञान ले कर किसी को भी कठघरे में खड़ा कर सकती है. क्या न्यायपालिका इस जिम्मेवारी से खुद को अलग करती है ? संविधान उसे इसकी इजाजत नहीं देता है.
वह प्रधानमंत्री अौर उसकी कृपा पर बने वे सभी मंत्रिगण हिंसा के जनक हैं जो सच छुपाने में अौर येनकेनप्रकारेण अपनी सत्ता की रखवाली में लगे हैं. सत्ता की निरंकुश हिंसा जिस प्रधानमंत्री को दिखाई ही न देती हो अौर जिसका मंत्रिमंडल हुअां-हुअां करने वाले सियारों से ज्यादा की अौकात नहीं रखता हो, हिंसा की यह अाग उसकी ही लगाई हुई है. देश में छिड़ा नागरिकता अांदोलन सरकारी दुमुंहेपन से पैदा हुअा है अौर प्रधानमंत्री की निंदनीय मक्कारी से फैला है. जामिया मीलिया, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, अलीगढ़, वाराणसी के विश्वविद्यालयों में जैसी क्रूर अौर नंगी हिंसा हुई है, उसके बाद भी क्या किसी को कहने की जरूरत है कि हिंसा के जनक कौन हैं अौर कहां हैं ? यह राजधर्म में हुई वैसी ही लज्जाजनक व अक्षम्य चूक है जैसी चूक 2002 में, गुजरात में सांप्रदायिक दंगे को भड़काने अौर उसे निरंकुश चलते रहने देने में की गई थी. तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने तब-के-तब ही अाज के प्रधानमंत्री को, जो तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, सार्वजनिक रूप से फटकारते हुए राजधर्म का सवाल खड़ा किया था. भारतीय जनता पार्टी का दुर्भाग्य है कि अाज उसके पास कोई अटलबिहारी वाजपेयी नहीं है. अटलबुहारी वाजपेयी की जगह उसके पास वह मुख्यमंत्र, जिसने अपने विपक्षी अवतार में सार्वजनिक संपत्ति को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाया है, गुंडा ताकतों की फौज बनाई है, महात्मा गांधी के बारे में हद दर्जे की फूहड़, घटिया बातें कही हैं. वह अाज सार्वजनिक तौर पर कह रहा है कि वह ‘ बदला लेगा’ अौर अांदोलनकारियों की कैमरे में पहचान कर, उनकी संपत्ति की कुर्की-जब्ती कर, सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान की भरपाई करेगा. ऐसा अालम बनाया गया है कि लाचार हो कर पूछना पड़ता है कि क्या राज्यतंत्र गुंडातंत्र में बदला गया है ? प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि हम कपड़ों से पहचान रहे हैं कि अांदोलनकारी कौन हैं, मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि हम कैमरे से पहचान कर रहे हैं कि अांदोलनकारी कौन हैं; अौर अांदोलनकारी नागरिक कह रहे हैं कि हम हिंसक असंवैधानिक हरकत करने वालों का चेहरा पहचान रहे हैं. कपड़े बदल जा सकते हैं,कैमरे खाली किए जा सकते हैं लेकिन चेहरे का अाप क्या करेंगे ?
इस हिंसा के जनक वे अाला पुलिस अधिकारी हैं जो पुलिस मैनुअल के सारे निर्देशों अौर पेशेवराना नैतिकता को सिरे से भूल कर, सत्ताधारियों की कृपादृष्टि के कायर याचक भर रह गये हैं. अाज से ज्यादा रीढ़विहीन पुलिस अधिकारियों की जमात देश ने इससे पहले कभी देखी नहीं थी. जब पुलिस-अधिकारी ऐसे हों तब हम सामान्य कांस्टेबल से किस विवेक की अपेक्षा कर सकते हैं ? वह डंडे चलाता है तो वह समझता भी नहीं है कि जिसकी पीठ-सर-हाथ-पांव पर वह बेरहमी से वार किए जा रहा है, गालियां उगल रहा है, वह लोकतंत्र का मालिक नागरिक है कल जिसके दरवाजे इनके सारे अाका कोर्निस बजाते मिलेंगे. यह विवेकहीनता हिंसा की जनक है.
वे सारे कलमधारी निरक्षर पत्रकार, चैनलों के विदूषक अौर बौद्धिकता का चोला अोढ़ कर राजनीतिक दलों की दलाली करने वाले संभ्रांत लोग हिंसा के जनक हैं जो स्थिति को संभालने व शांत करने की जगह उसे भड़काने का अायोजन करने में लगे होते हैं. उनकी मुद्रा, उनकी भाषा, उनके शीर्षक अौर उनके निष्कर्ष सब किसी जहर-कुंड से निकले दिखाई अौर सुनाई देते हैं.
हिंसा न हो यह सामूहिक जिम्मेवारी है - उनकी सबसे ज्यादा जो सत्ता की उन जगहों पर बैठे हैं जहां से सामूहिक हिंसा का अादेश भी दिया जाता है अौर अायोजन भी किया जाता है. हम सब अपनी सूरत अाईने में देखें अौर हिंसा के पाप में अपनी भागीदारी का सार्वजनिक प्रायश्चित करें. यह गांधी की 150 वीं जयंती का वर्ष है. पाप की गठरी ढीली करने का इससे अच्छा अवसर हो नहीं सकता है. ( 13.01.2020)
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