अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच कोई इस तरह आ खड़ा होगा, न हमने सोचा था, न इन दोनों ने. लेकिन फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल जं-मीशेल फ्रेडरिक मैक्रों ने ऐसा ही किया. इसलिए मैं चाहता हूं कि भारत की तरफ से उन्हें महावीर चक्र प्रदान किया जाना चाहिए. मैं नहीं कह रहा हूं “ भारत सरकार की तरफ़ से”, क्योंकि मैं जानता हूं कि भारत सरकार में ऐसी कूवत नहीं है. देश व सरकार में फर्क होता है; है.
राष्ट्रपति बनते ही अंतरराष्ट्रीय राजनीति में जैसी बेसिर-पैर की आंधी बहा रहे हैं डोनल्ड ट्रंप, उसकी हवा जिस तरह मैक्रों ने निकाली है वैसी न किसी ने अब तक निकाली है, न ट्रंप ने कभी ऐसा सोचा ही होगा. उस दिन व्हाइट हाउस में, दोनों राष्ट्रपति साथ बैठ कर प्रेस को संबोधित कर रहे थे और ट्रंप बगैर हिचक के वह सब अनाप-शनाप कहे जा रहे थे जैसा उनके अलावा दूसरा कोई बोल नहीं सकता है. वे कह रहे थे कि यूक्रेन की जैसी सहायता अमरीका ने की है, वैसी यूरोप ने नहीं की. यूरोप ने तो इधर-उधर कुछ दिया भर ! वे अपनी सनक में और कुछ बोलते कि उनकी बगल में बैठे मैक्रों ने उनके कंधे पर हाथ रख कर उन्हें रोका: ‘ आपके पास गलत जानकारी है. मैं सही जानकारी देता हूं. अमरीका ने यूक्रेन को जो भी सहायता दी है वह सब शर्तों से बंधी, सौदे व कर्जे के रूप में है. यूरोप ने पिछले दो वर्षों में यूक्रेन की हर संभव मदद बेशर्त की है, और आज भी हम यूक्रेन के प्रति प्रतिबद्ध हैं !’ सारी दुनिया ने यह सुना, सारी दुनिया ने यह देखा. हतप्रभ ट्रंप बगलें झांकने लगे.
ट्रंप ने जब कहा कि युद्ध के खर्च की भरपाई यूक्रेन को करनी होगी, तो मैक्रों ने फिर दखल दी और कहा: ‘ हमलावर तो रूस है. भरपाई उसे करनी होगी.’ यूक्रेन का क्या होगा, ट्रंप उसे कहां तक निचोड़ेंगे, यह सब वक्त ही बताएगा लेकिन मैक्रों ने व्हाइट हाउस में, ट्रंप के बगल में बैठ कर उनकी पोल जिस तरह खोली, उसके लिए उन्हें महावीर चक्र मिलना ही चाहिए.
अमरीका इन दिनों सब दूर छाया हुआ है. यही तो ट्रंप का वादा भी था. कोई जादूगर जैसे हैट से खरगोश निकाल देता है; और यह जानते हुए भी कि यह खरगोश हैट से नहीं, हैट के पीछे छिपे हाथ की सफ़ाई से निकला है, हम हैरान रह जाते हैं; ठीक वैसे ही ट्रंप के खरगोश लगातार बाहर आ रहे हैं और उनकी सच्चाई जानते हुए भी कभी हम, तो कभी वो हैरान रह जाते हैं. मुझे पता नहीं है कि ट्रंप साहब ने यह कला ‘अपने दोस्त’ से सीखी है या दोस्त ने उनसे लेकिन जुगलबंदी ऐसी गजब की है कि दोनों गुरूभाई मालूम देते हैं. विश्वगुरू ने विश्वदादा को सिखलाया है कि विश्वदादा ने विश्वगुरू को, यह पहेली है जिसे वक्त ही सुलझाएगा.
ट्रंप साहब ने अचानक यह शिगूफा उड़ाया कि उनसे पहले जो वहां राष्ट्रपति थे, उन बाइडन साहब ने कोशिश की थी कि भारत नरेंद्र मोदी को नहीं, किसी दूसरे को प्रधानमंत्री चुने. भारतीय राजनीति में विदेशी हाथ !! एकदम सनसनीखेज खबर एकदम शीर्ष से आई, तो भक्तों को उसे हाथोहाथ लेना ही था. ट्रंप साहब ने यह कहा ही नहीं, इसका ठोस प्रमाण भी दिया कि यूएसएड नामक संस्थान ने 21 मीलियन डॉलर की रकम भारत में झोंकी थी ताकि चुनाव में अधिकाधिक मतदाता मतदान केंद्रों तक लाए जा सकें. अमरीकी राज्य मियामी की एक सभा में बोलते हुए उन्होंने कहा :“ आख़िर हमें क्या पड़ी है कि हम भारत में मतदाताआों की संख्या बढ़ाने के लिए 21 मीलियन डॉलर खर्च करें ? बाप रे, 21 मीलियन डॉलर !! मेरा अनुमान है कि वे कोई ऐसा झोल करने में लगे थे कि भारत में कोई दूसरा आदमी चुना जाए.”
आप ध्यान दें कि विश्वगुरू व विश्वदादा जब भी ऐसी कोई युग परिवर्तनकारी घोषणा करते हैं तब मंच सार्वजनिक सभा का होता है, और मुद्रा उस अनाड़ी शिकारी की होती है जो यहां-वहां, इधर-उधर, दाएं-बाएं तीर चलाता जाता है कि कोई तो, कहीं तो निशाने पर लगेगा ! ट्रंप साहब के इस वक्तव्य में कितने तीर, कितनी दिशाआों में फेंके जरा इसका अंदाजा कीजिए : बात इस तरह कही गई कि ऐसा लगा कि उनके प्रतिद्वंद्वी जो बाइडन साहब ने यूसएसएड नाम का कोई निजी संस्थान बना रखा था ( पीएम केयर फंड !) जिससे पैसे फेंक कर वे दुनिया की राजनीति को मुट्ठी में करना चाहते थे. तो पहला निशाना यह कि जो बाइडन अपने देश को, अपने कानूनी प्रावधानों को धोखा देने वाले घटिया आदमी थे; दूसरा यह कि वे इन पैसों के बल पर दूसरे देशों के चुनावों में टांग अड़ाते थे; तीसरा यह कि वे भारत में नरेंद्र मोदी की जगह कोई दूसरा आदमी आगे लाना चाहते थे - “ लेकिन देखो भाइयो, मैंने बाइडन का वह सारा खेल मटियामेट कर दिया ! नरेंद्र मोदी, समझ लो, मैंने, डोनल्ड ट्रंप ने तुमको ऐसे षड्यंत्र का जाल काट कर, फिर से गद्दी पर बिठाया है !
यह सफेद झूठ है. वह आदमी यह कह रहा है जिसे मालूम है कि यूएसएड संस्थान बाइडन के राष्ट्रपति बनने से बहुत पहले से बना व चल रहा वह संस्थान है जो दुनिया भर में, दुनिया भर के दान-धंधे करता है. 1961 में राष्ट्रपति केनेडी ने फॉरेन असिस्टेंस एक्ट पारित किया था जिसमें से यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट ( यूएसएड) बना. ट्रंप को भी और हमें भी मालूम है कि अमरीका की सरकारें, और दुनिया की सरकारें ऐसे सारे धर्मादा कार्य अपने संकीर्ण राजनीतिक ध्येय हासिल करने के लिए करती हैं. उसमें ‘धर्म’ कम-से-कम, ‘मर्म’अधिक-से-अधिक होता है. ट्रंप साहब को ज़रूर बताया गया होगा कि 1954 में भारत के साथ अमरीका का पीएल 480 का समझौता हुआ था जिसे ‘फूड फॉर पीस’ कहा गया था. इस समझौते के तहत भूख की बंदूक में अनाज की गोली भरी गई थी. लंबे समय तक वह गोली खाते-खाते हम यह समझ सके थे कि कैसे अनाज के माध्यम से अमरीका ने हमारी स्वायत्तता पर हाथ डाला है. तब प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने ‘भूखे रहेंगे पर पीएल480 का अनाज नहीं खाएंगे’ जैसा राष्ट्र-संकल्प घोषित किया था.
1950 में इसी अमरीका की पहल पर एक सांस्कृतिक मंच बना था जिसका नाम था कांग्रेस फॉर कल्चरल फ़्रीडम. यह मंच बना और देखते-देखते दुनिया के कोई 40 देशों में काम भी करने लगा. सांस्कृतिक स्वतंत्रता के संवाहक व संरक्षक का मुखौटा लगाए इस मंच से, उस दौर की, दुनिया की तमाम विशिष्ठ हस्तियां जुड़ गई थीं. हमारे जयप्रकाश नारायण इसकी भारतीय शाखा ने मानद अध्यक्ष थे. फिर पर्दाफाश हुआ कि यह साम्यवादी प्रभाव को काटने के लिए, अमरीकी गुप्तचर एजेंसी सीआईए के धनतंत्र से संचालित वह उपक्रम है जो अमरीकी हितों के संरक्षण के लिए काम करता है. यह पर्दाफाश हुआ तो जयप्रकाश समेत सारे नामी-गरामी लोगों ने इस संस्थान से इस्तीफा दे दिया. तो बात फिर खुली कि अमरीका अपने धनबल से अपना राजनीतिक हित छीनने-खरीदने का काम करता आया है. लेकिन यहां जिस 21 मीलियन डॉलर की बात ट्रंप ने की और भक्तों ने जिसे कांग्रेस से जोड़ दिया दरअसल वह रकम बांग्लादेश में चुनावी प्रक्रिया को लोकप्रिय बनाने के लिए भेजी गई थी. भारत का या कांग्रेस का उससे कोई नाता नहीं था. यह बात ट्रंप को भी पता थी लेकिन ऐसे जुमले भारत में ही नहीं, अमरीका में भी राजनीतिक काम करने के काम आते हैं. इसलिए ट्रंप ने झूठ की गोली दाग दी. भूख, बीमारी, अशांति, युद्ध, प्राकृतिक आपदा, विशेष अध्ययन व शोध जैसे शीर्षकों की आड़ में अधिकांशत: ऐसे अधार्मिक धार्मिक कार्य किए जाते हैं. इसलिए ट्रंप जो कह रहे हैं, वह उन जैसे दादा देशों की पोल खोलता है, शिकार देशों की नहीं.
लेकिन यहां कमाल यह है कि यह बात वह आदमी कह रहा है जो खुद पिछले राष्ट्रपति चुनाव में अपना पलड़ा भारी करने के लिए नरेंद्र मोदी को मोहरा बना कर अमरीका ले गया था. अमरीका में बसे सुविधापरस्त व सांप्रदायिक भारतीयों को सम्मोहित कर, उनका वोट हासिल करने का यह शर्मनाक आयोजन था. मोदी भी वहां सहर्ष गए तथा भारतीय प्रधानमंत्री ने अमरीकी चुनाव में खुलेआम दखलंदाजी की. इससे पहले किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने ऐसा करने की कल्पना भी नहीं की थी. उस अमरीकी चुनाव में मोदी व ट्रंप दोनों हारे. इस हार से ही ट्रंप समझ गए मोदी-ढोल की पोल ! इसलिए इस बार उन्होंने चुनाव में न मोदी को बुलाया, न शपथ ग्रहण में पूछा, न किसी तरह अमरीका पहुंचे मोदी का किसी अलग उत्साह से स्वागत ही किया. अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सब कुछ ऐसा ही वक्ती होता है.
अब ट्रंप रूस को साथ ले कर चीन को अमरीकी हितों के अनुकूल बनाने का समीकरण साधने में लगे हैं. आंतरिक मामलों के लिए उन्होंने बेलगाम मस्क को लगाम थमा दी है. अब भारत को भी अमरीका की अनदेखी न करते हुए, अपने नये समीकरण बनाने हैं जो ट्रंप-पक्षधरता की अपनी छवि के कारण भारत के लिए आसान नहीं होगा. मतलब, विश्वगुरू और विश्वदादा के आपसी रिश्ते में कोई विषम कोण बन सकता है. हम उस विषम कोण के लाचार शिकार बनेंगे. ( 28.02.2025)
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