Tuesday 16 July 2024

गोली की बोली

 अमरीका में फिर बंदूक गरजी ! जो भी सुनेगापलट कर पूछेगा कि कबक्योंकि वहां अकारणअसमय व सबसे अप्रत्याशित जगहों पर गोली बरसा कर दो-पांच-दस लोगों-बच्चों-महिलाओं को मार गिराना आम खबर की तरह होता है. यह अमरीकी समाज है जहां पागलपन सामान्य-सा बन गया है. लेकिन इस बार जो हुआ उसके निशाने पर पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप थे. छटांक भर की दूरी से मौत उन्हें छू कर निकल गई - उनका कान मौत के रास्ते में आ गया तो वह बेचारा थोड़ा घायल हो गया. घटना को देखने व जाननेवाले और गोली खाने से बच जाने वाले ट्रंप बता रहे हैं कि यह ईश्वर ही था कि जो उन्हें बचा ले गया. कैसा विद्रूप है कि जब हमारी जान बच जाती है तब हमें ईश्वर की साक्षात उपस्थिति महसूस होती हैजब हम दूसरों की जान लेते हैं तब कहां का ईश्वर और कहां की उसकी साक्षात उपस्थिति !  दुख में सुमरन सब करैं/ सुख में करे ना कोई / जो सुख में सुमरन करैं/ तो दुख काहे को होई ! इसलिए ट्रंप पर चली गोली के समर्थन या विरोध का सवाल नहीं है. सवाल गोली की इस बोली को समझने व समझाने का है.  

अपने-अपने देश में गोली की बोली से बात करने में जो सभी सत्ताधीश हैंवे सभी अमरीका में गोली की बोली की इस घटना से सदमे में हैं — कम-से-कम ऐसा दिखा तो रहे ही हैं !! हमारे प्रधानमंत्री मोदीजी को सदमा लगा है कि मेरे मित्र ट्रंप’ के साथ ऐसा हादसा हुआ ! मोदीजीअगर ट्रंप आपके मित्र नहीं होते तो फिर भी सदमा होता इतना होता कि आप बयान दे कर अपना सदमा जगजाहिर करते सोचिएगा ! आपने कहा कि राजनीति में हिंसा की कोई जगह नहीं है. अगर यह सच है तो हिंसाघृणाद्वेषझूठहिंसक भाषा व हिंसक मुद्रा की छौंक से चलने वाली आपकी अब तक की राजनीति क्या है हिंसा के पनपने व फूटने की जमीन जितनी तरह से तैयार हो सकती हैउतनी तरह से पिछले 10 सालों में आपकी तरफ से तैयार की गई है. 

दुनिया के दूसरे कुछ हुक्मरानों ने भी गोली की बोली पर ऐतराज उठाया है. इनमें इसराइल के बेंजामिन नेतन्याहू भी हैं और फ्रांस के मैक्रां भी. ये भी और दूसरे सारे भी कह रहे हैं कि हमारे सभ्य समाज में ऐसी हिंसा की कोई जगह नहीं है. किसी ने यह भी कहा कि लोकतंत्र में हिंसा नहीं चल सकती. ये सच में ऐसा मानते हैंइसलिए कह रहे हैंया कह रहे हैं कि हम सच में ऐसा मान लें कि ये सच में ऐसा मानते हैं मामला बहुत जटिल हैक्योंकि झूठ को सच बनाना और फिर उसे सच मानना बहुत-बहुत बड़ा झूठ है. 

हिंसा घटना नहीं है. हिंसा मनोवृत्ति है. जब आप हिंसा को एक परिणामकारी रास्ता मानते हैं तब किसी गांधी की हत्या की लंबी साजिश रचते हैं और प्रार्थना के लिए जाते 80 साल के वृद्ध कोप्रार्थना-स्थल पर पहुंचने से पहले ही भगवान के पास पहुंचा देते हैं. हाथ भी नहीं कांपता है आपकाऔर इतने लंबे वर्षों में कभी प्रायश्चित का भाव भी नहीं उभरा आपमें ! हम कायर इतने होते हैं कि उस हत्या के 76 साल बाद भीएक दशक से ज्यादा समय से सत्ता की चादर अोढ़े रखने के बाद भीकायरता की धुंध इतनी घनी है कि हर संभव मौकों पर वे सब गांधी की विरुदावलि गाते हैं लेकिन यह कह नहीं पाते हैं कि यह हत्या हमने की है ! जो हिंसक होते हैं वे कायर ही होते हैंयाकि ऐसे कहें कि जो कायर होते हैंवे ही हिंसक भी होते हैं. 

मैं मणिपुर की हिंसा की बात न भी करूं तो भी यह तो कहना ही होगा न कि  मोदीजी की भारत सरकार न यूक्रेन की हिंसा के बारे में कभी कुछ बोलीन गजा की हिंसा के बारे में बोली. मित्रों की हिंसा हिंसा नहीं होती हैमित्रों पर हिंसा ही हिंसा होती हैनैतिकता की ऐसी परिभाषा कितनी हिंसक हैइसका हिसाब कोई गांधी ही लगा सकते हैं. भारत की यह चुप्पी और अब यह मुखरता राष्ट्रीय शर्म का सबब है. बेंजामिन नेतन्याहू को भी ट्रंप पर चली गोली से एतराज हैजब कि गजा में दनादन चलती अपनी अमानवीय गोलियों पर उन्हें कभी एतराज नहीं हुआ. फ्रांस में पिछले दिनों हुए विरोध प्रदर्शन को गोली की बोली से ही मैक्रां ने चुप कराया था. और जिस अमरीका में यह गोली चलीउस अमरीका में राष्ट्रपति बाइडन ने उन बच्चों के साथ क्या किया था जो फलस्तीनियों के लिए न्याय की आवाज लगाते हुए वहां के अधिकांश विश्वविद्यालयों में जमा हुए थे 

डोनाल्ड ट्रंप खुद हिंसा भड़काने व नागरिकों को भीड़ में बदल करहिंसा के लिए उकसाने के सबसे बड़े अपराधी हैं. अमरीकी अखबार उनके बारे में लिखते रहे हैं कि वे बला के झूठेसड़कछाप आदमी हैं जो संयोगवश राष्ट्रपति बन गया था. उन पर अमरीकी अदालतों में मुकदमे भी चल रहे हैं जिसे पूर्व राष्ट्रपति को मिले विशेषाधिकार की आड़ में ट्रंप धता बताने में लगे हैं. पिछली बार राष्ट्रपति का चुनाव हारने के बाद भी वे जिस तरह गद्दी छोड़ने को तैयार नहीं हुए उसनेऔर जिस तरह उन्होंने अपने समर्थकों को कैपिटल हिल्स में घुस जाने तथा हिंसालूटपाट मचाने के लिए ललकारा तथा उस सारे हंगामे को चालना दी उसनेअमरीकी लोकतंत्र का चेहरा खासा धुंधला कर दिया है. ट्रंप जब तक राष्ट्रपति रहेव्हाइट हाऊस से सफेद चमड़ी का अहंकारसत्ता की बदबू तथा दौलतमंदों का कुसंस्कार ही अमरीका की पहचान बना रहा. चुनाव जीतना व देश के सर्वोच्च पदों पर जा कर बैठ जाना जैसे भारत में किसी नैतिक श्रेष्ठता का प्रमाण नहीं है - बल्कि उल्टा ही है ! - वैसे ही अमरीका में भी है. मैं तो कहूंगा कि भारत और अमरीका नहींसारी दुनिया के लिए यही सच है. 

आज अधिकांश अमरीकी नहीं चाहते हैंन बाइडन की पार्टी ही चाहती है कि बाइडन फिर से राष्ट्रपति बनने की कोशिश करें. उनकी दूसरी योग्यताओं की बात न भी करें हम तो भी यह तो सभी जान व देख रहे हैं कि बाइडन शारीरिक रूप से राष्ट्रपति बनने लायक नहीं हैं. लेकिन बाइडन खुद को खुद ही सर्टिफिकेट देते जाते हैं कि मैं हर तरह से राष्ट्रपति बनने लायक हूं : “ या तो मैं या भगवान ही इस बारे कोई दूसरा फैसला कर सकते हैं !” इसे लोकतांत्रिक हिंसा कहते हैं भाई ! 

असहिष्णुताघृणाअंधी स्पर्धाझूठहिंसा आदि कुछ अलग-अलग वृत्तियां नहीं हैं. ये सब एक-दूसरे की संतानें हैं. समाज में आप जैसी वृत्तियों को चालना देते हैं वैसी ही लहरें उसमें उठती हैं. अमरीका में चुनावी बुखार चढ़ता जा रहा है जिसे उन्माद में बदलने की कोशिश में डोनाल्ड ट्रंप लगे हैं. वे जानते हैं कि अमरीकी समाज के दूसरे कई घटकों के खिलाफ उन्माद व असहिष्णुता फैला कर ही वे व्हाइट हाउस में दोबारा प्रवेश पा सकते हैं. वे अपने मित्र से सीखते हों शायद कि यदि यही सब कर के तीसरी बार सत्ता पाई जा सकती हैतो दूसरी बार क्यों नहीं 

सत्ता सबसे बड़ा सच हैतो हिंसा सबसे बड़ा हथियार है. इसलिए सारे सत्तावान इस सबसे बड़े हथियार पर अपना एकाधिकार चाहते हैं. ( 16.07.2024)  

Friday 5 July 2024

यह जो हमारी संसद है !

 हमारी नई लोकसभा अभी बनी ही है लेकिन चल नहीं पा रही है. चल पाएगी, इसमें शक है. चल कर भी क्या कर पाएगी, कह नहीं सकते. कहावत बहुत पुरानी है जो हर अनुभव के साथ नई होती रहती है कि  पूत के पांव पालने में ही दीख जाते हैं. जो पांव दीख रहा है, वह शुभ नहीं है. यदि मैं भूलता नहीं हूं तो कवि विजयदेव नारायण साही ने इस कहावत में एक दूसरी मार्मिक पंक्ति जोड़ दी थी :  पूत के पांव पालने में मत देखो/ वह पिता के फटे जूते पहनने आया है. इस लोकसभा के बारे में यही पंक्ति बार-बार मन में गूंज रही है. 

   जिस पार्टी नेजिन पार्टियों के साथ जोड़ बिठा कर सरकार बनाई हैउन सबको मालूम है कि यह वक्ती व्यवस्था है. कौनपहलेकिसे और कब लंगड़ी मारता हैइसी पर इस लोकसभा का भविष्य टिका हैऔर यह तो सारे संविधानतज्ञ जानते हैं कि लोकसभा के भविष्य पर ही सांसद नाम के निरीह प्राणियों का भविष्य टिका होता है. निरीह इसलिए कह रहा हूं कि पिछले कम-से-कम 10 सालों से हमारे सांसदों का एक ही काम रहा हैजिसे वे बड़ी शिद्दत से निभाते हैं : सरकार ही दी हुई सामने की मेज बजाना या भगवान की दी हुई हथेलियों से तालियां बजाना. प्रधानमंत्री जबजहां कहेंवे अपना काम ईमानदारी से करते हैं. विपक्ष भी ऐसा ही करता है. फर्क है तो बस इतना कि उसके पास कोई प्रधानमंत्री नहीं होता है. इस बार उसके पास एक छाया प्रधानमंत्री’ जरूर है जिसकी छाया कब तककहां तक रहती हैदेखना बाकी है. हम दुआ करते हैं कि अंग्रेजी के शैडो प्राइमिनिस्टर’ का मक्खीमार अनुवाद भले उसे छाया प्रधानमंत्री’ कहेनेता प्रतिपक्ष कभी इस प्रधानमंत्री की छाया न बनें. न उनकी छाया में रहेंन उनको छाया दें. 

   लोकसभा के अध्यक्ष का चुनाव हुआ ही नहींसंख्या बल से उसे लोकसभा पर थोप दिया गया. विपक्ष ने अपनी तरफ से भी एक उम्मीदवार का नाम आगे बढ़ाया जरूर था जिसे ऐन वक्त पर पीछे  खींच लिया गया. जब ऐसा ही करना था तब उसकी घोषणा करने की जरूरत ही क्या थी कांग्रेस ने बाद में तर्क दिया कि हम सहयोग व सद्भावना का माहौल बनाना चाहते थेइसलिए चुनाव टाल गए. भाईजो आपके बीच कहीं है ही नहींवह आप बनाना ही क्यों चाहते थेऔर जो है ही नहींवही बनाना था तो अपना उम्मीदवार आगे ही क्यों करना था प्रतिबद्धताविहीन ऐसे निर्णय दूसरों को मजबूत बनाते हैं और आपकी किरकिरी करवाते हैं. 

   ओम बिरला को दोबारा लोकसभा का अध्यक्ष बनाने के पीछे प्रधानमंत्री का एक ही मकसद थाव है : विपक्ष को अंतिम हद तक अपमानित करना ! बिरला कभी इस पद के योग्य नहीं थेआज भी नहीं हैं. विद्वताकार्यकुशलताव्यवहार कुशलतावाकपटुता तथा सदन में गरिमामय माहौल बनाए रखने जैसे किसी भी गुण से उनका नाता नहीं रहा हैयह हमने पिछले पांच सालों में देखा है. पता नहीं विपक्ष ने उनका इतना स्वागत व गुणगान क्यों किया ! वह सब जो किया गया वह बहुत खोखला था और जो खोखला होता है वह जल्दी ही टूट व बिखर जाता है. वही अब हो रहा है. 

   बिरलाजी का यह गुण जरूर हम जानते हैं कि वे प्रधानमंत्री की धुन पर सतत नाचते रह सकते हैं. लेकिन यह गुण तो सारे सरकारी सांसदों में है. आप प्रसाद’ से त्रिवेदी’ तक किसी की भी परीक्षा ले कर देख सकते हैं. लेकिन ओम बिरला ने पिछली संसद में जिस तरह विपक्ष को तिरस्कृत व अपमानित किया थाउसे ही दोहराने के लिए इस बार भी उन्हें ही प्रधानमंत्री ने आगे किया है ताकि विपक्ष व देश समझे कि कहींकुछ भी बदला नहीं है. इसलिए नई लोकसभा के पहले ही दिन वे अपने पुराने अवतार में दिखाई दिए. जिस असभ्यता से उन्होंने दीपेंद्र हुड्डा को अपमानित कियाशशि थरूर के जय संविधान’ कहने से तिलमिलाएविपक्ष के सांसदों को कब उठना-कब बैठना सिखाने की फब्ती कसी वह सब यह समझने के लिए पर्याप्त है कि उन्हें क्या करने का निर्देश हुआ है. 

   राहुल गांधी ने जब यह कहा कि उनका माइक बंद क्यों किया गया हैतो अध्यक्ष का जवाब आया कि मैंने पहले भी यह व्यवस्था दी हैऔर आपको फिर से कहता हूं कि मेरे पास माइक का कोई बटन नहीं है. अध्यक्ष का बटन कहां हैयह तो सभी जानते हैं  लेकिन अभी जवाब तो यह आना था न कि माइक बंद कैसे हुआ और किसने किया ?  क्या अध्यक्ष की जानकारी व अनुमति के बगैर ही कोईकहीं से बैठ कर लोकसभा की काररवाई में दखल दे रहा है लोकसभा न हुईईवीएम मशीन हो गई ! अगर ऐसा है तो अध्यक्ष चाहिए ही क्यों जो अनदेखा- अनजाना आदमी बटन बंद कर सकता हैवही लोकसभा चला भी सकता है. इंडिया गठबंधन को तब तक न लोकसभा जाना चाहिएन राज्यसभा जब तक कि यह बता न दिया जाए कि माइक बंद किसने किया थाकिसकी अनुमति या निर्देश से किया था और यह भी व्यवस्था बना दी जाए कि सांसदों को बोलने से रोका तो जा सकता हैमाइक बंद नहीं किया जा सकता है. यह सांसदों का अपमान व तिरस्कार है जिसे किसी भी हाल में परंपरा में बदलने नहीं देना चाहिए. 

   परंपरा की बात है तो यह समझना जरूरी है कि विपक्ष के नेता की भी परंपराएं हैं.  इस अध्यक्ष को न वे परंपराएं पता हैंन विपक्ष के नेता का मतलब इसे मालूम है. जिस सांसदों का जन्म ही 10 साल पहले हुआ हैउनकी यह त्रासदी स्वाभाविक है. उनकी तो आंखें जब से खुली हैं तब से उन्होंने यही देखा-जाना है कि लोकसभा का मतलब एक ही आदमी होता है. भाईयह एकदम सच नहीं है. जैसे यह परंपरा है कि अध्यक्ष जब खड़ा हो जाए तो सभी सांसदों को बैठ जाना चाहिएप्रधानमंत्री जब बोल रहा हो तब सांसदों को शांति से उसे सुनना चाहिएवैसी ही परंपरा यह भी है कि विपक्ष का नेता जब बोल रहा हो तब उसे अध्यक्ष द्वारा बार-बार टोकनाबार-बार समय का भान करानाक्या बोलेंक्या न बोलें आदि का निर्देश देना गलत हैअशिष्टता हैलोकतांत्रिक परंपरा का उल्लंघन है. आखिर परंपराएं बनती कैसे हैं और उन्हें ताकत कहां से मिलती है परंपराएं कानूनी प्रावधानों से भी अधिक मान्य क्यों होती हैं सिर्फ इसलिए कि कोई भी उन्हें तोड़ता नहीं है. संविधान प्रदत्त शक्तिवान भी उनका शालीनता से पालन करउसे और अधिक मजबूत व काम्य बनाते हैं. राष्ट्रगान चल रहा हो तब राष्ट्रपति के सामने से धड़फड़ाते हुए निकल कर अपनी कुर्सी पकड़ने वाला लोकसभा अध्यक्ष हो कि राष्ट्रपति प्रवेश करें तब भी अपनी कुर्सी पर बैठा रहने वाला प्रधानमंत्री होये सब परंपराओं को ठेस पहुंचाती हैं. निश्चित अवधि में समय निकाल कर प्रधानमंत्री का राष्ट्रपति से मिलना व उन्हें देश-दुनिया के बारे में सरकारी रवैये की जानकारी देना भी एक स्वस्थ परंपरा है जिसका पालन सिरे से बंद है. वैसे यह बात भी अपनी जगह है ही कि राष्ट्रपति जब व्यक्तित्वहीन कठपुतली की भूमिका से संतुष्ट कुर्सी पर बैठा हो तब ऐसी परंपरा कोई निभाए भी क्यों ?   

   यह लंगड़ी व पतनशील गठबंधनों की संसद है जो जब तक रहेगीराष्ट्र व लोकतंत्र को शर्मसार करती रहेगी. विपक्ष के नेता व संपूर्ण विपक्ष को लगातार यह दबाव बनाए रखना चाहिए कि यह संसद सुधरे या टूटे ! 

   अंधभक्त अपनी फिक्र आप करें लेकिन हम-आप तो सोचें कि ऐसा क्यों है कि सत्तापक्ष के सारे शब्द इतने खोखले लगते हैं शिक्षामंत्री ठीक ही तो कह रहे थे कि नीट’ के बारे में हम विपक्ष के सारे सवालों का जवाब देने को तैयार हैं. वे कह तो रहे थे लेकिन उनके हाव-भाव व तेवर यह कहते सुनाई यह दे रहे थे कि कर लो जो करना होहम कोई चर्चा नहीं करेंगे. ऐसा इसलिए था कि इसी मंत्री नेइसी नीट’ के बारे में लगातार यही कहा था कि न कोई लीक हुआ हैन कोई घोटाला हुआ हैसब विपक्ष का कराया हुआ है. न कोई घुसा थान कोई घुसा है”, वाला प्रधानमंत्री का बयान इसी तरह चीन में कुछ दूसरा ही सुनाई दियाऔर वे हमारी सीमा के भीतर ज्यादा खुल कर अपना काम करने लगे. यह वह संसद है जिसके शब्दों का कोई मोल ही नहीं रह गया है. शेरो-शायरी भी हो रही हैकहावतें भी दोहराई जा रही हैंप्रधानमंत्री बड़े-बड़े विचारकों-दार्शनिकों के उद्धरण भी ला-ला कर पढ़ते हैं लेकिन सब-के-सब इतने प्रभावहीन क्यों हो जाते हैं इसलिए कि उनके पीछे विश्वसनीयता का बल नहीं है. आस्थाहीन प्रवचन आत्माहीन कंकाल की तरह होता है. 

   राहुल गांधी चाहें न चाहेंवे कसौटी पर हैं. कभी रहा होगा लेकिन आज नेता विपक्ष शोभा का पद नहीं है. आज यह पद विकल्प खड़ा करने की चुनौती का पद है. विपक्ष को वक्त की सीधी चुनौती यह है कि क्या पंडित जवाहरलाल के दौर वाली संसद वापस लाने की कूवत उसमें है नेहरू वाली संसद इसलिए कह रहा हूं कि हमने वहीं से अपना सफर शुरू किया था और लगातार फिसलते हुए यहां आ पहुंचे हैं. तो कैसे कहूं कि उस दौर से भी बेहतर संसद बनानी चाहिए ! पहले  वहां तक तो पहुंचोजहां से गिरे थेफिर उससे ऊपर उठने की बात करेंगे.  

   राहुल गांधी व इंडिया गठबंधन ने संविधान की किताब दिखा-दिखा कर प्रधानमंत्री को जिस तरह चुनाव में पीटाउसकी काट उन्होंने यह निकाली कि लोकसभा अध्यक्ष को मोहरा बना कर आपातकाल की निंदा का प्रस्ताव पारित करवाया. यह उस घटिया विज्ञापन की तरह था कि “ उसकी कमीज मुझसे सफेद कैसे ?” लेकिन मैं समझ नहीं पाया कि कांग्रेस को इससे बौखलाने की क्या जरूरत थी कोई 50 साल पहले हुई चूकजिसे इंदिरा गांधी नेकांग्रेस अध्यक्ष ने कई बार सार्वजनिक रूप स्वीकार किया हैउसे ले कर कांग्रेस अब क्यों बिलबिलाती है वह इतिहास की बात हो गई. उसके बाद से कांग्रेस ने संविधान से वैसा कोई खेल खेलने की कोशिश तो की नहीं है. यह भी याद रखना चाहिए कि जनता पार्टी की अल्पजीवी सरकार ने 1977 में ऐसी संवैधानिक व्यवस्था खड़ी भी कर दी है कि किसी सरकार के लिए आपातकाल लगाना असंभव-सा है. फिर आपातकाल का जिक्र आने पर इतना मुंह छिपाने की जरूरत नहीं है. एक गलती हुई जिससे हम दूर निकल आए हैंकांग्रेस यह क्यों नहीं कहती है 

   इतिहास का जवाब देना हो तो संघ परिवार को देना है कि जिस संविधान में इसकी कभी आस्था नहीं रहीजिस तिरंगे को इसने कभी स्वीकार नहीं कियाजिस राष्ट्रगान को इसने कभी माना नहींजिस राष्ट्रपिता को इसने कभी मान नहीं दियाजिस भारतीय समाज की संरचना को यह हमेशा तोड़ने में लगी रहीउसी की आड़ में यह सत्ता में आ कर बैठी हैतो इसमें कैसी नैतिकता व ईमानदारी है कांग्रेस की तरह यह सरकार नहीं कह सकती है कि 50 साल पहले हमारे तब के नेतृत्व से एक चूक हुई थी. यह तो आज भी उसी सावरकरी एजेंडा को मानती हैऔर उसी को लागू करने का मौका ढूंढ़ती रहती है. इस कठघरे में विपक्ष सरकार को खड़ा कर सकेगा तभी अपनी भूमिका निभा सकेगा.  (01.07.2024)