Saturday 18 February 2023

नदव लापिद की ‘कश्मीर फाइल्स’

 जिस तरह का सच यह है कि आईना झूठ नहीं बोलता, उसी तरह का सच यह भी है कि कैमरा झूठ नहीं बोलता. इसे हम इस तरह भी समझ सकते हैं कि सच प्राकृतिक है; झूठ गढ़ना पड़ता है- फिर वह झूठ सौंदर्य प्रसाधनों से बोला जाए या खुराफाती-स्वार्थी इंसानी दिमाग से ! गोवा में आयोजित भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के आखिरी दिन, महोत्सव की जूरी के अध्यक्ष इस्राइली फिल्मकार नदव लापिद ने यही बात कही - न इससे कम कुछ, न इससे अधिक कुछ ! इसके बाद गर्हित राजनीति का जो वितंडा हमारे यहां फूट पड़ा, वह भी इसी सच को मजबूत करता है कि सच घटे या बढ़े तो सच ना रहे / झूठ की कोई इंतहा ही नहीं. 

   इतिहास बनाना इंसानी साहस की चरम उपलब्धि हैइतिहास को विकृत करना मानवीय विकृति का चरम है. हम दोनों ताकतों को एक साथ काम करते देखते हैं. इंसानी व सामाजिक जीवन में कला की एक अहम भूमिका यह भी है कि वह इन दोनों के फर्क को समझे व समझाए ! जो कला ऐसा नहीं कर पाती है वह कला नहींकूड़ा मात्र होती है. इसलिए कोई पिकासो गुएर्निका’ रचता हैकोई चार्ली चैपलिन द ग्रेट डिक्टेटर’ बनाता हैकोई एटनबरो गांधी’ ले कर सामने आता है. अनगिनत पेंटिंगोंफिल्मों के बीच ये अपना अलग व अमर स्थान क्यों बना लेती हैंइसलिए कि युद्ध की कुसंस्कृति कोविकृत मन की बारीकियों को तथा इंसानी संभावनाओं की असीमता को समझने में ये फिल्में हमारी मदद करती हैं. तो कला की एक सीधी परिभाषा यह बनती है कि जो मन को उन्मुक्त न करेउद्दात्त न बनाए वह कला नहीं है. 

   दूसरी तरफ वे ताकतें भी काम करती हैं जो कला का कूड़ा बनाती रहती हैं ताकि सत्य व असत्य के बीच काशुभ व अशुभ के बीच काउद्दात्तता व मलिनता के बीच का फर्क इस तरह उजागर न हो जाए कि  ये ताकतें बेपर्दा हो जाएं. विवेक की इसी नज़र से गोवा फिल्मोत्सव में बनी जूरी को 14 अंतरराष्ट्रीय फिल्मों को देखना-जांचना था. लापिद इसी जूरी के अध्यक्ष थे. जूरी में या उसके अध्यक्ष के रूप में उनका चयन सही था या गलतइसका जवाब तो उन्हें देना चाहिए जिनका यह निर्णय था लेकिन 5 सदस्यों की जूरी अगर एक राय थी कि कश्मीर फाइल्स’ किसी सम्मान की अधिकारी नहीं हैतो इस पर किसी भी स्तर परकिसी भी तरह की आपत्ति उठना अनैतिक ही नहीं हैघटिया राजनीति है जिसका दौर अभी हमारे यहां चल रहा है. 

   लापिद ने जूरी के अध्यक्ष के रूप में महोत्सव के मंच से जब कश्मीर फाइल्स’ को अश्लील शोशेबाजी’ ( ‘वल्गर प्रोपगंडा’ का यह मेरा अनुवाद है) कहा तब वे कोई निजी टिप्पणी नहीं कर रहे थेजूरी में बनी भावना को शब्द दे रहे थे. जूरी के बाकी तीनों विदेशी सदस्यों ने बयान दे कर लापिद का समर्थन किया है. भारतीय सदस्य सुदीप्तो सेन ने अब जो सफाई दी है वह बात को ज्यादा ही सही संदर्भ में रख देती है : “ यह सही बात है कि यह फिल्म हमने कला की कसौटी पर खारिज कर दी. लेकिन मेरी आपत्ति अध्यक्ष ने बयान पर है जो कलात्मक’ नहीं था. वल्गर’ व प्रोपगंडा’ किसी भी तरह कलात्मक अभिव्यक्ति के शब्द नहीं हैं.”  मतलब साफ है कि कश्मीर फाइल्स’ कहीं से भी कला से सरोकार नहीं रखती हैइस बारे में जूरी एकमत थी. ऐसा क्यों थाइसकी सबसे गैर-राजनीतिक सफाई जो कोई भी अध्यक्ष दे सकता थालापिद ने दी. उन्हें यह बताना ही चाहिए था कि क्यों जूरी ने उन्हें सौंपी गई 14 फिल्मों में से मात्र 13 फिल्मों में से ही अपना चयन कियाऔर 14वीं फिल्म को फिल्म ही नहीं माना जूरी के अध्यक्ष लापिद का धर्म था कि वे यह बताते. जिन शब्दों में लापिद ने वह बतायावह कहीं से भी राजनीतिकगलतअशोभनीय या कला की भूमिका को कलंकित करने वाला नहीं था. 

   हमारे यहां ही कला-साहित्य-पत्रकारिता का आसमान इन दिनों इतना कायर व कलुषित हो गया है कि वहां कला व सच की जगह बची नहीं है. जूरी के विदेशी सदस्यों ने अपने बयान में इसे पहचाना है : “ हम लापिद के बयान के साथ खड़े हैं और यह साफ करना चाहते हैं कि हम इस फिल्म की विषयवस्तु के बारे में अपना कोई राजनीतिक नजरिया बताना नहीं चाहते हैं. हम केवल कला के संदर्भ में ही बात कर रहे हैं और इसलिए महोत्सव के मंच का अपनी राजनीति के लिए व नविद पर निजी हमले के लिए जैसा इस्तेमाल किया जा रहा हैउससे हम दुखी हैं. हम जूरी का ऐसा कोई इरादा नहीं था.” 

   जब नविद से पूछा गया कि जिस फिल्म को जूरी ने किसी सम्मान के लायक नहीं मानाउस फिल्म पर आपको कोई टिप्पणी करनी ही क्यों चाहिए थीनविद ने बड़ी ईमानदारी के साथ अपनी बात रखी. यह कहने की जरूरत नहीं है कि ईमानदारी से खूबसूरत कलात्मक अभिव्यक्ति दूसरी नहीं होती है. नविद ने कहा : “ हांआप ठीक कहते हैंजूरी सामान्यत: ऐसा नहीं करती है. उनसे अपेक्षा यह होती है कि वे फिल्में देखेंउनका जायका लेंउनकी विशेषताओं का आकलन करें तथा विजेताओं का चयन करें. लेकिन तब यह बुनियादी सावधानी रखनी चाहिए थी कि द कश्मीर फाइल्स’ जैसी फिल्में महोत्सव के प्रतियोगता खंड में रखी ही न जाएं. दर्जनों महोत्सवों में मैं जूरी का हिस्सा रहा हूंबर्लिन में भीकेंस में भीलोकार्नो और वेनिस में भी. इनमें से कहीं भीकभी भी मैंने द कश्मीर फाइल्स ’ जैसी फिल्म नहीं देखी. जब आप जूरी पर ऐसी फिल्म देखने का बोझ डालते हैंतब आपको ऐसी अभिव्यक्ति के लिए तैयार भी रहना चाहिए.

   सारा खेल तो यही था. यह सरकारी आदेश था या आयोजकों की स्वामी भक्ति का खुला प्रदर्शन थायह तो वे ही जानें लेकिन चाल यह थी कि झांसे में एक अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में सरकारी क्षद्म का यह चीथड़ा दिखा लिया जाए. जूरी मेजबानी के दवाब में आ कर अगर इसे सम्मानित कर देतो बटेर हाथ लगीहाथ नहीं लगी तो दुनिया भर में हम अपना प्रचार दिखा गएयह उपलब्धि तो हासिल होगी ही. नविद ने यह सारा खेल बिगाड़ दिया. इसलिए हमने देखा कि नविद को भारत स्थित इसराइल के राजदूत से गालियां दिलवाई गईं. जिन अनुपम’ शब्दों में ‘ द कश्मीर फाइल्स’ गैंग ने नविद का शान-ए-मकदम कियावह कला के चेहरे पर गर्हित राजनीति का कालिख मलना तो था हीअंतरराष्ट्रीय कला बिरादरी में भारत को अपमानित करना भी था. ( 05.12.2022)

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