Saturday 24 June 2017

26 जून के दोस्त


26 जून भारतीय लोकतंत्र का सबसे काला दिन बन गया है क्योंकि उसी दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र को रफा-दफा कर, देश में अापातकाल लगाया था. वह 1975 था. अब 26 जून 2017 है जब वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमरीका के वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से अमरीका में बातचीत शुरू करेंगे.  यह तारीखों का संयोग भर है या कोई संकेत, इसका जवाब तो अाने वाला समय ही देगा लेकिन यह भारतीय कूटनीतिज्ञों की वह विफलता है जिसकी गहन पूछताछ इस सरकार को करनी चाहिए. इस सरकार के एकाधिक लोगों का राजनीतिक जन्म उस लड़ाई में से हुअा है जो अापातकाल के खिलाफ लड़ी गई थी.

नहीं, २६ जून की तारीख कैलेंडर से मिटाई तो नहीं जा सकती लेकिन यह सावधानी तो रखी ही जा सकती है, अौर रखी ही जानी चाहिए कि इस तारीख को कोई ऐसी पहल ही होनी चाहिए कि जो देश को भी अौर दुनिया को भी याद दिलाए कि कोई भी राजनीतिक नेतृत्व जब अपनी लोकतांत्रिक हदें पार करता है तब लोकतंत्र की अदृश्य ताकतें उसे सबक सिखाती हैं. अाज अमरीका में भी अौर भारत में भी लोकतंत्र के लिए घातक प्रवाहों का जोर बढ़ रहा है अौर इसलिए मोदी-ट्रंप की पहली मुलाकात की यह तारीख  अपशकुन सरीखी लग रही है.

भारत अौर अमरीका, दोनों के सामाजिक व राजनीतिक पटल पर ऐसा बहुत कुछ उभर रहा है जिसकी अाहट हमें समझनी चाहिए. अच्छा हो या बुरा, समय दोनों की अाहट देता है. जो अाहट नहीं सुनते, वे अाघात झेलते हैं. ट्रंप के बाद के अमरीका में श्रीनिवास कुच्छीमोतला से एक कहानी शुरू हुई थी जो हरनीस पटेल से होती हुई दीप राय तक पहुंची थी. इनके बीच में एक वह वीडियो भी था कि जिसमें किसी मॉल के खरीदारों की पंक्ति में खड़ी एक भारतीय लड़की को, एक अफ्रीकी-अमेरिकन घृणा व गुस्से से भरी अावाज में धमका रहा था कि तुम अपने देश वापस जाअो ! बहुत संभव है कि जब अाप मेरा यह लेख पढ़ रहे हों तब तक इस कहानी में कुछ नये पात्र भी जुड़ चुके हों. हम कहानी लंबी करें अौर नये-नये पात्र इसमें जोड़ें या फिर इतना ही कहें कि एक कहानी बराक अोबामा के अमरीका से शुरू हुई थी अौर डोनाल्ड ट्रंप के अमरीखा तक पहुंची है, तो भी बात वही होगी. कई लोगों के लिए यह समझ पाना मुश्किल हुआ जा रहा है कि अमरीका में जो हो रहा है, वह क्या है ! कुछ कहते हैं कि कल तक तो ऐसा कुछ नहीं हो रहा था. अचानक यह क्या हो रहा है; अौर पूछते हैं कि यह क्यों होने लगा है ? 

ऐसा नहीं है कि पहले वहां कुछ नहीं होता था. बहुत कुछ बुरा अौर बहुत कुछ निंदनीय हो रहा था वहां. ऐसा बहुत कुछ होता रहा था कि जिससे किसी भी सभ्य व्यक्ति अौर समाज को तकलीफ पहुंचे, सर शर्म व विशाद से झुक जाए. अाप याद करें कि एक बार नहीं, कई बार ऐसा हुअा कि राष्ट्रपति बराक अोबामा टीवी पर अा कर रो पड़े. रोते-रोते वे जो कुछ कह पाए, उससे कहीं ज्यादा व साफ बातें उनके अांसू कह जाते थे. वे लाचारी के अांसू थे, शोक के अांसू थे, लज्जा अौर पश्चाताप के अांसू थे. अमरीका जैसे कीर्तिवान राष्ट्र का राष्ट्रपति यानी चलताऊ विशेषण का इस्तेमाल करूं तो दुनिया का सबसे शक्तिशाली अादमी टीवी पर हो अौर सारी दुनिया को अांसू बहाता दीखे तो पहली बात तो मन में यही अाती है कि घड़ियाली अांसू हैं ! फिर लगता है कि अांसुअों में लिपटी यह कोई राजनीतिक चाल है. 
मंच पर रोते अौर नेपथ्य में जाते ही कुटिल मक्कारी के साथ अपने अभिनय-कला की चुटकी लेते अपने राजनेताअों का हमारा अनुभव रोज-ब-रोज नया होता ही रहता है. तो अोबामा भी ऐसा कर ही सकते थे. लेकिन ऐसा था नहीं. अोबामा के अांसू भी सच्चे थे अौर उनकी लज्जा भी ! उनकी असहाय स्थिति को भी समझना अासान था. पावर का जो मुल्लमा राजनीति ने अोढ़ रखा है, वह कितना खोखला है अौर पदों से जुड़ी शक्ति की अवधारणा कितनी पोली है, यह सच्चाई तभी समझ में अाती है जब अाप समाज से रू-ब-रू होते हैं. सत्ता की राजनीति में अपनी जगह बनाने को िबलबिलाती लोगों की भीड़ से समाज नहीं बनता है; न केरियर के कायरों के चरणचंपू करने से तत्पर अौर ईमानदार नौकरशाही जन्म लेती है. समाज को अाप धोखा दे सकते हैं, उसे खरीद-बेच सकते हैं, डरा-धमका सकते हैं लेकिन उसे नये मूल्यों से सज्जित करना चाहें तो अापके पसीने छूट जाते हैं. तब अापको उस पावर के पावरलेस होने का अंदाजा होता है जिसे पाने के लिए अापने एंड़ी-चोटी का जोर लगाया था. 

अब यह बात खुल चुकी है कि डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति का चुनाव जीतने के लिए रूसी मदद ली थी. यह कितना संभव है कि अमरीकी सीनेट द्वारा बिठाई जांच में यह सत्य इस तरह स्थापित हो जाए कि ट्रंप को कुर्सी छोड़नी पड़े, यह तो देखने की बात है लेकिन हम जो देख रहे हैं वह तो यह है कि अपने १०० दिनों के शासन में ट्रंप किसी राष्ट्रपति की तरह नहीं, किसी जागीरदार की तरह बरत रहे हैं. वे अमरीका को अौर विश्व बिरादरी को अपने व्यापारिक साम्राज्य की एक कंपनी की तरह देखते हैं अौर उसी तरह सबसे  निबटना चाहते हैं. लेकिन वे बेतरह विफल हो रहे हैं अौर अमरीका एक भोंडा, क्रूर जोकर बनता जा रहा है. 

इधर नरेंद्र मोदी सरकार के भी तीन साल पूरे हो चुके हैं अौर तीन सालों की तीसियों उपलब्धियों का समारोह मनाने के लिए चारो दिशाअों में उनके लोग दौड़ भी पड़े हैं. लेकिन उपलब्धियां क्या हैं, यह न कहने वालों की समझ में अा रहा है अौर न सुनने वालों की. इसमें कोई शक नहीं कि इस सरकार ने कुछ संभावनाएं पैदा की थीं, सिद्ध कुछ भी नहीं कर सकी है. अधूरी संकल्पनाएं सतही संकल्पों की अंधेरी गुफाअों में गुम हैं. अौर देखिए कि यहां तक अाते-अाते इस सरकार का दम फूल रहा है. अब घोषणाएं भी चमक खोती जा रही है अौर जुमलों में भी कोई ताकत नहीं बची है. चुनाव जीते भी गए हैं, जीते जाएंगे भी लेकिन चुनावी जीतों से सफलता मिलती होती तो इंदिरा गांधी अौर राजीव गांधी ऐसी सफलता के शिखर छू कर, फिर रसातल को नहीं पहुंच जाते !      

समाज को नया तन देना अासान होता है, नया मन देना बहुत मुश्किल ! अौर जब कभी ऐसा कुछ करने की अाप कोशिश करते हैं तब सामने से समाज ही यह पूछ बैठता है कि जो देने चले हैं अाप, क्या वह अापके पास है भी ? समाज को नया मन देने चले हैं तो कोई नया मन अापके पास है भी क्या ? मन अौर तन का फर्क हम कुछ यूं समझें कि नया तन देने में दरअसल अाप देते कुछ नहीं हैं सिवा ठेकेदारों को ठेका देने के. जिसे ठेका देते हैं अाप, वह अपना काम जैसे-तैसे पूरा करता ही है, क्योंकि उसके बाद ही उसे उसका भुगतान मिलता है जिसमें कितनों का हिस्सा होता है. इसलिए कहीं रोड बन जाती है, कहीं पुल, कहीं मंदिर अौर कहीं मस्जिद; मुफ्त में टीवी तो लैपटॉप तो साड़ी बंट जाती है तो पेंशन, वजीफा अादि मिल जाता है. बुलेट ट्रेन हो कि अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट  कुछ भी, कहीं भी खड़ा किया जा सकता है. अाप एक ही सांस में मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारा, राणीसती मंदिर, गो-पूजा से ले कर अछूतोद्धार तक कर अाते हैं. ये सारी राजनीतिक चालबाजियां तन के अासपास घूम कर ठहर जाती हैं. 

मन बदलना हो तो पवित्र मन अौर तन का मेल जरूरी होता है; अौर जरूरी होती है समाज में गहरी पैठ ! अौर समाज के मन की गलियां बहुत संकरी होती हैं.  राजनीति की तमाम गंदी चालें-कुचालें चलें हम अौर स्वच्छता मिशन भी चलाएं तो गंदगी दोनों तरफ से हमला करती है. एक ईमानदार प्रधानमंत्री कितनी बेईमान सरकार चला सकता है, इसका पाठ बच्चों को पढ़ाना हो तो हमें मनमोहन-सरकार को पाठ्यक्रम में शामिल कर लेना चाहिए; एक अात्ममुग्ध, बड़बोला प्रधानमंत्री कितनी खोखली नीतियों वाली भटकी हुई सरकार चला सकता है, इसका पाठ बच्चों को पढ़ाना हो तो हमें मोदी-सरकार को पाठ्यक्रम में शामिल कर लेना चाहिए. इसमें किसी के प्रति दुर्भावना नहीं, तथ्यों का अाकलन भर है. 

ट्रंप भी इसी कतार में अाते हैं. अमरीकी समाज की तमाम गर्हित शक्तियों को उकसा कर वे राष्ट्रपति बने अौर अब उन्हीं को अपनी सत्ता का अाधार बनाने में लगे हैं लेकिन न सत्ता बन रही है, अौर न अाधार खड़ा हो रहा है ! राष्ट्रपति बनते ही ट्रंप ने जिस अादेश से मुस्लिमबहुल देशों की यात्रा पर रोक लगाई थी, अमरीकी अदालतें उसे एक-एक कर असंवैधानिक बताती जा रही हैं. ट्रंप ने जिस एफबीअाई प्रमुख जेम्स कोमे को पद से बर्खास्त कर दिया, वह बता रहा है कि ट्रंप प्रशासन के सभी प्रमुख पदों पर योग्य लोगों को नहीं, चमचों को चाहते हैं. उन्होंने कोमे से भी यही कहा कि मैं अपने मातहत लोगों से अंध स्वामीभक्ति अौर पूर्ण समर्पण की मांग करता हूं. ट्रंप जो मांग रहे हैं वह लोकतंत्र के ताबूत की कीलें हैं. 

२६ जून ऐसी कई बातों की याद अापको भी दिला रहा है क्या?  (24.06.2017)                                                                                                                                                              

1 comment:

  1. Trump aur Modi ke jariye aaj ke samay aur unake kam ka achchha vishleshan. Jis daur ko inhone paida Kia hai. Jisase aaj sari janata tarast hai...

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