Friday 28 April 2017

संविधान की पूजा या संविधान का पालन ?



हमने पहले ही कहा है अौर कई बार कहा है कि पुरानी, क्षत-विक्षत बाबरी मस्जिद हिंदुत्व वालों के लिए तब तक वरदान है जब तक वह खड़ी है ! उसे अापने एक बार तोड़ा तो वह ध्वस्त मस्जिद अापके जान का जंजाल बन जाएगी ! ऐसा ही हुअा. संघ परिवार चाहे जितना हिसाब लगाए कि सेनापति लालकृष्ण अाडवाणी के नेतृत्व में जमींदोज की गई मस्जिद से उसके एजेंडे को क्या-क्या फायदा हुअा, सच तो यह है कि दूध की हांडी में मुंह डालने वाली बिल्ली की गर्दन जैसे उसमें फंस जाती है, वैसे ही संघ परिवार की गर्दन बाबरी मस्जिद में फंसी हुई है. सर्वोच्च न्यायालय ने बिल्ली, हांडी अौर दूध तीनों को अभी-अभी फिर से तराजू पर चढ़ा दिया है. संघ परिवार में चुप्पी छाई हुई है लेकिन यह चुप्पी कितना शोर मचा रही है, सुन पा रहे हैं अाप ?   

हमारी परंपरा में ऐसा तो कहीं नहीं है कि न्याय अंधा होता है बल्कि हमने तो उसे दस अांखें, दस हाथ, दस पांव अौर दस मुख दिए हैं कि वह अांखें खोल कर सच को पहचान सके; दौड़ कर सच की तलाश कर सके; हाथ बढ़ा कर अपराधी का गरेबान थाम सके अौर ऊंची, सम्मिलित अावाज में सच बोल सके. मेरी नजर में पंच बोले परमेश्वर का यही अाशय है. लेकिन अपने परमेश्वर को किनारे ठेल कर, न्याय की जिस पश्चिमी संकल्पना को हमने अपनाया है, वह कहती है कि न्याय की देवी देखती नहीं है ! वह अंधी नहीं है, वह गांधारी है. उस गांधारी ने परात्पर कृष्ण को शापबद्ध किया था, इस गांधारी ने २५ साल पहले के मस्जिद-ध्वंस को कब्र से निकाल कर देश के सामने धर दिया है. उसने रायबरेली की जिला अदालत के धूल भरे किसी कोने में पटक दिए गए मामले को वहां से निकाल कर लखनऊ की सीबीअाई अदालत को सौंप दिया है. 

सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की धारा १४२ के तहत मिले असाधारण अधिकार का इस्तेमाल करते हुए निर्देश दिया है कि सीबीअाई अदालत बाबरी मस्जिद विध्वंस के मामले अौर विध्वंस के लिए हुए षड्यंत्र के मामले को मिला कर एक करे अौर तुरंत उसकी सुनवाई करे. उसने यह भी कहा है कि यह सुनवाई मामले की समाप्ति तक लगातार चलेगी अौर जब तक मामला समाप्त नहीं हो जाता सुनवाई कर रहे जज का कहीं तबादला नहीं किया जा सकेगा. अदालत ने कहा है : “ इस अदालत को अधिकार है, अधिकार ही नहीं बल्कि यह इसका कर्तव्य भी है कि जहां उसे जरूरी लगे तो वहां वह मामले को न्याय की अंतिम हद तक पहुंचाए. इस मामले में ऐसा अपराध हुअा है जिसने भारतीय संविधान के सेक्यूलर ताने-बाने को झकझोर कर रख दिया है.” ४० पन्नों के इस फैसले को सुनाते हुए न्यायमूर्ति पी.सी. घोष व रोहिंग्टन नरीमन ने साफ कर दिया है कि सर्वोच्च न्यायालय क्या चाहता है. सर्वोच्च न्यायालय इस मामले को अब तुरंत किसी नतीजे तक पहुंचाना चाहता है, क्योंकि अनिर्णय अौर उसकी अाड़ में चल रही राजनीतिक चालबाजी के कारण भारतीय समाज व संवैधानिक प्रक्रिया का अकथनीय नुकसान हो चुका है, हो रहा है. उनसे यह भी कहा है कि इस मामले के तेजी से निबटारे में यदि सीबीअाई अदालत को किसी भी प्रकार की दिक्कत अाती है तो वह सीधे सर्वोच्च न्यायालय से निर्देश प्राप्त करे. 

उसने इशारों में सीबीअाई से कहा है कि सरकारी तोते की उसकी अब तक की भूमिका अब न्यायालय को स्वीकार्य नहीं है. उसकी बात एकदम साफ है कि अब तक यह मामला जिस तरह लटकाया गया है वह सीबीअाई की विश्वसनीयता पर गहरी चोट करता है. उसने जिन लोगों को अपराध के लिए जिम्मेवार मान कर, अदालत में बुलाने अौर सुनवाई की बात कही है उनमें वह संघ-परिवार पूरा-का-पूरा समा जाता है जो अब तक किसी दूर से अाते इशारे पर राजनीति करता अाया है: सर्वश्री लालकृष्ण अाडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, विनय कटियार, साध्वी ऋतंभरा, अाचार्य गिरिराज किशोर, अशोक सिंघल, विष्णु हरि डालमिया, सतीश प्रधान, चंपतराय बंसल, महंत अवैद्यनाथ, परमहंस रामचंद्र, रामविलास वरदांती, जगदीश मुनि महाराज, महंत नृत्यगोपाल दास, धरमदास चोला, सतीश नागर, मोरेश्वर सावे अौर बैकुंठलाल शर्मा. अदालत मानती है कि ६ दिसंबर १९९२ को, बाबरी मस्जिद से बमुश्किल २०० मीटर दूर बने रामकथा कुंज के मंच से इन सबके व्याख्यान-व्यवहार से ऐसा माहौल बना कि जिसकी जांच जरूरी है. नामों की इस लंबी सूची में कल्याण सिंह का नाम दर्ज नहीं है तो इसका एकमात्र कारण यह है कि वे अभी राजस्थान के राज्यपाल हैं जिस पद को सीधे अदालत में खींचा नहीं जा सकता है यानी यह नाम उधार है. यही नाम है जिसने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ कर तब अदालत को सार्वजनिक रूप से पक्का भरोसा दिलाया था कि मस्जिद का बाल भी बांका नहीं होने दूंगा. गिरिराज किशोर, अशोक सिंघल तथा परमहंस रामचंद्र बच जाएंगे क्योंकि ये तीनों सिधार चुके हैं.  

अब हम सोचें कि तस्वीर क्या बनती है ! 

बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद ऐसा हुअा कि संघ परिवार को लंबे समय तक सत्ता में रहने का मौका मिला. सैंया भये कोतवाल जैसी स्थिति बनी. ध्वंस अभियान का सेनापति ही सत्तापति बन गया. विपक्ष के बौनों की स्वार्थी राजनीति ने भी मदद की अौर यह विध्वंस जितने गहरे दफनाया जा सकता था, दफनाया दिया गया. बोतल से जिन्न बाहर अाता है कि नहीं पता नहीं लेकिन सबको भरोसा था कि इस कब्र से उनका अपराध कभी बाहर नहीं निकलेगा. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने उसे निकाल लाया है. जांच दो स्तरों पर चलेगी - ६ दिसंबर १९९२ को रामकथा कुंज के मंच पर कौन-कौन थे अौर वे वहां से क्या कह रहे थे तथा यह भी कि वहां से भीड़ को संचालित व उत्तेजित करने वाले कौन-कौन थे अौर उनमें से किसने क्या कहा. यह सीधे अपराध-स्थल से अपराधी को पकड़ने जैसी काररवाई होगी.  
जांच का दूसरा पक्ष अौर भी खतरनाक होगा जब इसकी पड़ताल की जाएगी कि अाखिर बाबरी मस्जिद के ध्वंस का षड्यंत्र कब, कहां, कैसे अौर किनके बीच बना. यह पड़ताल कई वैसे नामों को भी घेरे में ले अाएगी जो अभी सामने नहीं अाए हैं. तब बात अाडवाणीजी की रथयात्रा से शुरू होगी अौर फिर वे सब बातें भी निकलेंगी जो भाजपा या संघ परिवार की अंदरूनी बैठकों में हुईं. उनका कोई रिकार्ड भले न मिले लेकिन कई संकेत, घटनाएं, बयान, विवाद अदालत के सामने अाएंगे जिनसे नतीजा निकालने में मदद मिलेगी. यह बात भूलने जैसी नहीं है कि रथयात्रा के इस पूरे अभियान से अटलबिहारी वाजपेयी ( अौर उनका गुट ! ) सहमत नहीं थे अौर वे इसमें कहीं शरीक भी नहीं हुए थे. वह असहमति कब, कहां अौर कैसे प्रकट हुई थी, यह जानना दिलचस्प होगा. अौर यह भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तब मामूली संघ-सेवक थे अौर रथयात्रा के सबसे प्रखर अायोजकों में गिने जाते थे. 



यह पूरी जांच कब तक पूरी होगी अौर तब तक अदालत व सरकार के रिश्ते क्या होंगे, अौर देश का सामाजिक माहौल कैसा होगा, जैसी कई बातें हैं जिनका अनुमान करना अभी संभव नहीं है. लेकिन यह कहना अौर समझना जरूरी है कि अभी जब देश में सब तरफ मनमानी का अालम बनाया जा रहा है, अदालत ने एक बार फिर वह लक्ष्मण-रेखा हमारे सामने ला रखी है जिसे संविधान कहते हैं. लोकतंत्र इसके बाहर जब भी ले जाया जाएगा, वह लोकतंत्र नहीं रह जाएगा. इस तरह सर्वोच्च न्यायालय ने हमारे लोकतंत्र को ही कसौटी पर खड़ा कर दिया है. ( 20.04.2017)  

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