Monday, 23 June 2025

अब जंग का एक ही मतलब है - विनाश !

         हमारे तथाकथित अख़बार एक ग़ज़ब की बात बता रहे हैं कि हमारे प्रधानमंत्री ने अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप से फ़ोन पर बात की और उनसे कहा कि आप जो कह रहे हैं, कहते आ रहे हैं वह झूठ है:  मैंने भारत-पाकिस्तान युद्ध के बारे में न कभी आपसे बात की, न कभी आपसे युद्धबंदी की बात की और न कभी आपसे मध्यस्थता का अनुरोध किया. बता रहे हैं कि मोदीजी ने उस दिन बहुत कड़क रवैया अपनाया और आगे कहा कि मैं आगे भी कभी ऐसा कोई अनुरोध आपसे करने वाला नहीं हूं. हमारे देश में इस बारे में सर्वसम्मति है कि हम किसी तीसरे की मध्यस्थता कभी स्वीकार नहीं करेंगे. भक्त कह रहे हैं कि इधर मोदी ने यह कहा और उधर सारी दुनिया में सन्नाटा छा गया.   

 किसी को याद आया कि नहीं पता नहीं कि इन्हीं ट्रंप साहब को दोबारा राष्ट्रपति बनवाने के लिए इन्हीं मोदी साहब ने कभी अमरीका जा कर चुनाव प्रचार किया था. लेकिन तब दोनों हार गए थे. यह हार ट्रंप को इतनी नागवार गुजरी कि इस बार जब वे जीते तो उन्होंने मोदीजी को अपनी ताजपोशी के कार्यक्रम में नहीं बुलाया. समारोह में मोदीजी को न बुला कर ट्रंप ने उन्हें व उनकी भक्त-मंडली को उनकी औकात बता दी. यह बात मोदीजी को बहुत नागवार गुजरी. वे इस अभियान में जुट गए कि ट्रंप महोदयआपको मुझे बुलाना तो पड़ेगा ही. सारी तिकड़म के बाद उन्हें ट्रंप ने उन्हें बुला लिया. मोदीजी तुरंत ही पहुंचे और वहां पहुंच कर उन्होंने ट्रंप साहब के उन तमाम गुणों को सार्वजनिक रूप से याद किया जिनका पता न अमरीका को थान ट्रंप को. वे ट्रंप साहब की बहादुरी की याद करते हुए बहुत विह्वल भी होते रहे. लेकिन तभी ट्रंप ने उन्हें सामने बिठा कर बताया कि भारत जिस तरह अब तक अमरीका को लूटता आया हैवह आगे संभव नहीं होगा. मैं टैरिफ’ के हथियार से आपको आपकी औकात बता दूंगा. 

अब आप बताइए कि ऐसा रिश्ता क्या कहलाता है यह न तो मित्रता का रिश्ता हैन सम्मान कान बराबरी का. यह वह रिश्ता है जिसमें ‘ इस्तेमाल कर लोफिर फेंक दो’ का चलन चलता है. ट्रंप और मोदीदोनों इसके उस्ताद हैं. आज ट्रंप का पलड़ा भारी है.मोदी अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे हैं.    

मोदी की राजनीतिक शैली में बात कुछ ऐसी बना दी गई है कि देश के बारे मेंफौज के बारे मेंयुद्ध के बारे मेंदेश की सुरक्षा के बारे में कुछ भी न बोलोन पूछोन सोचो ! और पांचवें हैं नरेंद्र मोदीजिनके बारे में कुछ भी पूछना हिंदुत्व वालों को नागवार गुजरता है. आप सोचिएकि पहलगांव के बाद तमाम विपक्ष ने कह दिया कि हम सरकार के साथ हैं ! यह घबराई हुईजड़विहीनराजनीतिक दृष्टि से कायर विपक्ष की सोच है. संकट का आसमान रचना और फिर उस आसमान में अपने शिकार करना सरकारों का पुराना हथकंड्डा है. इसलिए स्थिति चाहे कैसी भी होहम ताश के सारे 52 पत्ते सरकार के हाथ में कैसे दे सकते हैं विपक्ष की एक ही भूमिका होनी चाहिएघोषित की जानी चाहिए कि हम हर हाल में देश के साथ खड़े रहेंगे. हमारी इस भूमिका से सरकार को जितनी मददजितना समर्थन मिलता हैउससे हमें एतराज़ भी नहीं है लेकिन सरकार की आंखों हम देखेंसरकार के कानों हम सुनें तथा सरकार के पांवों हम चलेंयह कैसे हो सकता है यह तो बौनों का बला का संकट है और इससे घिरा हमारा विपक्ष बौने-से-बौना हुआ जा रहा है. 

3 दिन के युद्ध के बादयुद्ध से पहले और बाद की किसी भी स्थिति की गंभीर चर्चा व समीक्षा की हर संभावना को खत्म करते हुए प्रधानमंत्री ने संसदीय विपक्ष की आवाजों को चुन-चुन कर विदेश-यात्रा पर भेज दिया. कहा : विश्व मंच पर भारत सरकार का पक्ष अच्छी तरह रखने का राष्ट्रीय कर्तव्य निभाने की चुनौती हैसो आप सब तैयार हो जाएं. आख़िर पाकिस्तान को जवाब देना है न ! सीमा पर हमारे जवान अंतिम बलिदान दे रहे हैंतो क्या हम विदेश जा कर अपनी आवाज़ भी नहीं दे सकते कहने की देर थी कि सभी तैयार हो गए. किसी ने नहीं कहा कि हमें अपनी पार्टी की सहमति लेनी पड़ेगी ! जब राष्ट्रीय कर्तव्य निभाना होतो पार्टी की क्या बात है. पार्टी से राष्ट्र बड़ा होता है कि नहीं ! सब अटैची  के साथ एयरपोर्ट पर थे. कांग्रेस पार्टी ने अपने प्रतिनिधियों के नाम भेजे तो थे लेकिन सरकार को तो कोई और ही खेल खेलना था. उसने वे सारे नाम रद्दी में फेंक दिए और प्रतिनिधि मंडल में कांग्रेस के अपने प्रतिनिधि’ नियुक्त कर दिए. अब कांग्रेस के सामने दो ही रास्ते थे : इस संसदीय पिकनिक पर न जाने का व्हिप’ जारी करे व इसका उल्लंघन करने वालों को पार्टी से बाहर करे या फिर चुप्पी साध ले. कांग्रेस ने दूसरा विकल्प चुनातो तृणमूल कांग्रेस ने पहला विकल्प चुना. इस तरह सभी अपने-अपने हिस्से का विदेश घूम आए. जहां जिसे जैसा मौका मिलाउसने वहां वैसा सरकार का पक्ष रखा. लौटने पर सबने पाया कि वे तो विदेश से लौट आए हैं लेकिन उनकी आवाज कहीं विदेश में ही रह गई है. आज हमारे संसदीय विपक्ष के पास न चेहरा हैन आवाज़ ! सूरतविहीनगूंगे विपक्ष से सरकार को क्या खतरा हो सकता है 

जो सरकार व राष्ट्र का फर्क नहीं समझतेजो सत्ता प्रतिष्ठानों के इर्द-गिर्द इसलिए ही घूमते-मंडराते रहते हैं कि कबकहांकैसे मौका मिले कि हम भीतरखाने दाखिल हो सकेंजो विपक्ष की भूमिका चुनते नहीं हैं बल्कि उसे सजा काटने की तरह देखते हैं और पहले मौके पर उधर भाग खड़े होते हैं वे कहीं भी आदर-मान नहीं पाते हैं - न विपक्ष मेंन सत्तापक्ष में. वे होते हैं किसी कुर्सी की शक्ल मेंबस ! हमारा अधिकांश विपक्ष इसी शर्मनाक त्रासदी से गुज़र रहा है. हमारा मतदाता इसलिए ही उसे किसी विकल्प की तरह न देख पा रहा हैन स्वीकार कर पा रहा है. 

कोई आश्चर्य नहीं कि देश में आज एक ही विपक्ष बचा है और उसका नाम है राहुल गांधी ! लेकिन आप देखिए कि यह एक आदमी का विपक्ष भी हर कदम पर ठिठकताभटकता और असमंजस में पड़ा दिखाई देता हैतो इसलिए कि वह हर तरफ़ से अकालग्रस्त है - अकाल संख्या का नहींप्रतिभाप्रतिबद्धता का अकाल है ! किसी भी नेता के लिए निर्णायक भूमिका निभाने या उसकी जिम्मेवारी लेने के लिए कुछ आला सहकर्मियों की ज़रूरत होती है. ऐसे सहकर्मी बने-बनाए नहीं मिलते हैं. बनाने पड़ते हैं. राहुल के पास वे नहीं हैंक्योंकि अब तक का अनुभव बताता है कि उन्हें ग़लत सहकर्मियों को चुनने में महारत हासिल है. नरेंद्र मोदी के पास भी ऐसे सहकर्मी नहीं हैं. लेकिन नेताओं की एक प्रजाति ऐसी होती है जो दोयम दर्जे के चापलूसों से घिरे रहने में ही सुख व सुरक्षा पाती है. नरेंद्र मोदी उसी प्रजाति के हैं. उनके पास अभी सत्ता की छाया भी है.    

जब विपक्ष के ऐसे हाल हों और सत्तापक्ष के भीतर सत्ता-सुख व अहंकार के अलावा कुछ हो ही नहींतो यह सवाल कौन पूछे कि अंगुलियों पर गिने जाने जैसे आतंकवादी हमारी सीमा में घुस आए और उन्होंने हमारे 26 मासूम नागरिकों की हत्या कर दीइतने से सारा देश कैसे खतरे में आ गया किसी चौराहे पर वाहनों की टक्कर हो जाए और 26 लोग मारे जाएंतो क्या देश खतरे में आ जाता है आप समझ रहे हैं न कि मैं वाहनों की टक्कर व आतंकवादियों द्वारा की गई हत्या को एक पलड़े पर नहीं रख रहा हूंमैं देश पर खतरा कब आता हैइसे पहचानने की बात कर रहा हूं. पहलगांव में घुस आए उन आतंकवादियों व उन मासूम नागरिकों की हत्या से देश खतरे में नहीं आया था बल्कि वह खतरे में इसलिए आया कि आप कश्मीर की सीमा की सुरक्षा में विफल रहे थे. केंद्र सरकार की सीधी निगरानी में जो कश्मीर हैचोर उसकी दीवार में सेंध लगा लेता है तो यहां खतरा आतंकवादी नहीं हैआपका निकम्मापन है. खतरा यहां है कि आप उस आतंकी कार्रवाई का जवाब देने के लिए ऐसा रास्ता अख़्तियार करते हैं जो काइंया अंतरराष्ट्रीय शक्तियों को अपना खेल खेलने के लिए उकसाता हैखतरा यहां है कि आप देश में ऐसा माहौल बनाते हैं मानो यह जंग भारत-पाकिस्तान के बीच नहींहिंदू-मुसलमान के बीच हो रही हैखतरा यहां है कि आपको फौज की आला अधिकारी सोफिया कुरैशी अंतत: मुसलमान ही दिखाई देती है और आप उसे दुश्मन की बहन बताते हैंखतरा यहां है कि इसी संकट की आड़ ले कर आप कश्मीर में वैसे कितने ही घर गिरा देते हैं जिन्हें आपने आतंकवादियों का घर करार दिया हैखतरा यहां है कि बुलडोज़र से किसी का घर गिरा देने की योगी-मार्का प्रशासन की जिस शर्मनाक शैली पर सुप्रीम कोर्ट ने गंभीर टिप्पणी की है और योगी-सरकार को कठघरे में खड़ा किया हैआप भी वही कर रहे हैं. यह अदालत की अवमानना तो है हीसंविधान से बाहर जाने की निंदनीय कार्रवाई है. खतरा यहां है कि आप फौज का क्षुद्र राजनीतिक इस्तेमाल करते आ रहे हैं जो आग से खेलने जैसी मूर्खता है. 

       लेकिन यह सच भी अजब-सी शै है. यह कहीं-न-कहीं से अपना सर उठा ही लेता है. भारत सरकार जो कह रही है,  उसे हम न मानें तो ट्रंप साहब ने जो कह रहे हैं उसे हम कैसे मान लें ट्रंप साहब की असलियत यह हैऔर सारी दुनिया उसे जानती है कि सचईमानदारीनैतिकता आदि से वे ज्यादा निस्बत नहीं रखते. इसलिए उनके हर कहे व किए को हम उनकी औकात से ही तौलते हैं. लेकिन हमारे वायु सेना प्रमुख एयरमार्शल ए.पी. सिंह और बाद में सैन्य सेवा प्रमुख जेनरल अनिल चौधरी की बात ऐसी नहीं है कि हम उसे नजरंदाज करें. ये वे फौजी अधिकारी हैं जिनका यह सरकार अब तक राजनीतिक इस्तेमाल करती आई है. अब वे कह रहे हैं कि 3 दिनों का यह युद्ध दोनों तरफ़ को बेहद नुक़सान पहुंचा गया है. पाकिस्तान का नुक़सान ज्यादा हुआ है लेकिन उसने हमारा जितना नुक़सान किया हैवह स्थिति को ख़तरनाक बनाता है. पाकिस्तान ने हमारे विमान भी गिराए और सैनिक अड्डों को भी नुक़सान पहुंचाया. यह युद्ध रुकना ही चाहिए थाक्योंकि इस युद्ध से हासिल कुछ नहीं हो सकता था. परिस्थिति का यह आकलन व अंतरराष्ट्रीय शक्तियों का दवाब हमें युद्धविराम तक ले आया. यह मुख़्तसर में वह है जो इन दो आला फौजी अधिकारियों ने कहा है. 

हमें यह सच्चाई समझनी चाहिए कि हथियार के व्यापारियों से खरीद-खरीद कर जो जखीरा हम भी और पाकिस्तान भी जमा करता रहता हैवह हर देश को करीब-करीब एक ही धरातल पर ला खड़ा करता है. इसलिए आज की दुनिया में कोई लड़ाई अंतिम तौर पर किसी को जीत नहीं दिलाती है. जीत नहींविनाश ही आज के युद्ध का सच है. आप रूस-यूक्रेन का दो बरस से ज्यादा लंबा युद्ध देखिए. कौन जीत रहा है दोनों बर्बाद हो रहे हैं. अमरीका व यूरोप की फौजी मदद से लड़ रहा यूक्रेन और हथियारों का अकूत जखीरा रखने वाला पुतिन- दोनों का दम फूल रहा है. दोनों का देश बर्बाद हो रहा है. फौजी भी मारे जा रहे हैंनागरिक भीशहर-गांव-कस्बे सब मलबों में बदल रहे हैं. ऐसे में आप जीत-हार की बात क्या पूछेंगे ! पूछने वाला सवाल यही है कि बताइएकितना विनाश हो चुका हैऔर कितना विनाश कर के आप रुकेंगे इसराइल ने ईरान पर हमला कर किया क्या या फिर ट्रंप ने वहां अपनी नाक घुसेड़ कर क्या किया आप सोचिएअगर ईरान ने अमरीका पर हमला बोला तो क्या होगा जीत या हार होगी नहींऐसा कुछ नहीं होगा. विश्वयुद्ध भी नहीं होगावैश्विक विनाश होगा - शायद वैसाजैसा दुनिया ने अब तक देखा नहीं है. हिंसा में से वीरता तो पहले ही निकली चुकी हैअब युद्ध में से जीत-हार भी निकल गई है. बची है विशुद्ध हैवानियत- क्रूरताअश्लीलता और अपरिमित विनाश !   

कोई राहुल गांधी यदि पूछता है कि हमें बताइए कि 3 दिनों के इस युद्ध में हमारा कितना नुक़सान हुआकितने विमान गिरेकितने जवान मरे तो यह देशभक्ति की कमी या अपनी सेना की क्षमता पर भरोसे की कमी जैसी बात नहीं है. यही सवाल है जो पाकिस्तान में भी पूछा जाना चाहिएइसराइल में भीयूक्रेन और गजा व ईरान में भी. आज किसी भी कारण जो जंग का रास्ता चुनते हैं या जबरन किसी को जंग में खींच लाते हैं उन सबके संदर्भ में यही सबसे अहम सवाल है जो आंखों में आंखें डाल कर पूछा जाना चाहिए. लेकिन कौन पूछे जिस विपक्ष की ज़ुबान खो गई है वह पूछे भी तो कैसे ? ( 23.06.2025)  

3 दिन का युद्ध : न 3 के, न 13 के !

       वह कहावत है न : हाथ के तोते उड़ जाना, वह ऐसे ही वक्त के लिए बनी है. उन सभी जंगबाजों के हाथ के तोते उड़ गए हैं जो पिछले 3 दिनों से प्रधानमंत्री को ललकार रहे थे कि बस, अब रुकना नहीं है, इस्लामाबाद व लाहौर जेब में ले कर ही लौटना है-  बस, देखिएगा मोदीजी, अब पीओके जैसा कोई क्षेत्र नक्शे पर बचना नहीं चाहिए. लेकिन ऐसे सारे शोर धरे रह गए और 3 दिनों में पाकिस्तान के साथ हमारा अब तक का सबसे छोटा युद्ध समाप्त हो गया. 

कोई भी युद्ध समाप्त हो और शांति किसी भी रास्ते लौटे तो मेरे जैसा आदमी उसका हर हाल में स्वागत ही करेगा. शांति शर्त नहींजीवन है. लेकिन नहींयहां मुझे यह भी कह देना चाहिए कि ऑपरेशन सिंदूर ( इस नाम से मुझे वितृष्णा होती है लेकिन यही नाम चलाया गया है !) जिस रास्ते विराम तक आया हैउससे मुझे आशंका हो रही है कि यह शांति किसी बाज के चंगुल में दबी हुई है. होंगे अमरीका के वर्तमान राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप किसी के परम मित्र लेकिन शांति के लिए उनकी मध्यस्थता युद्ध से कम खतरनाक नहीं है. यदि प्रधानमंत्री का यह कहना सच है कि यह शांति अमरीका की मध्यस्थता से नहींभयाक्रांत पाकिस्तान व विजयश्री को वरण करने वाले हिंदुस्तान की समझदारी से आई हैतो ट्रंप महाशय के इस काइयांपन को कठोरता से बरजना नहीं चाहिए क्या कि उन्होंने सबसे पहलेकिसी से भी पहले ट्विट कर मध्यस्थता का दावा भी कर दियासमझदारी दिखाने के लिए दोनों बच्चों’ की पीठ भी थपथपा दीदोनों को साथ बिठा कर सॉरी’ कहने के लिए तटस्थ स्थान’ भी बता दिया और इस विवाद से बाहर आने में मार्गदर्शक बनने की पेशकश भी कर दी इतना ही नहींयह भी कह दिया कि मेरे कहने से आत्मसमर्पण’ नहीं करोगे तो मैं धंधा-पानी बंद कर दूंगा. यह सब किसी के हवाले से नहींसीधे ट्रंप महाशय के श्रीमुख से हमने भी सुनामोदीजी ने भी सुना और सारी दुनिया ने सुना. उनके इस काइंयापने को बरजना तो दूरन भारत नेन पाकिस्तान ने मित्र ट्रंप से ऐसा कुछ भी कहाबल्कि पाकिस्तान ने तो उनका सार्वजनिक तौर पर आभार भी माना. अंतरराष्ट्रीय राजनीति के इस दौर में अमरीका व ट्रंप का यह रवैया अत्यंत खतरनाक है. इसकी गहरी और गहन छानबीन होनी चाहिए. लेकिन अभी हम ख़ुद को तो देखेंफिर ट्रंप महाशय की बात करते हैं.  

  पहलगांव में पाकिस्तान ने जो अमानवीय कारनामा कियाउसके बाद किसी भी सरकार के लिए चुप बैठना संभव नहीं था. आजादी के बाद से अब तक पाकिस्तान से हमारी जितनी भी जंग हुई हैउसके पीछे कहानी यही रही है कि पाकिस्तान ने हमारे सामने दूसरा कोई रास्ता छोड़ा ही नहीं ! लेकिन एक फर्क भी है जिसे भी समझना जरूरी है. कारगिल और पहलगांवदोनों के साथ एक बात समान है कि इन दोनों युद्ध के पीछे सरकार की अक्षम्य विफलता को छिपाने और ख़ुद को महिमामंडित करने की कोशिश हुई है. आप हिसाब लगाएं तो इन दोनों मौकों पर देश की कमान भारतीय जनता पार्टी के हाथ में थी. कारगिल में पाकिस्तान भीतर घुस आयापहाड़ियों में उसने अपनी मजबूत जगह बना लीहथियारगोला-बारूद जमा कर लिया और अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार सोती रही. बाद में सैंकड़ों जवानों के रक्त से अपनी यह नंग छुपाई गई. ऐसा ही पहलगांव में हुआ. हमारी गुप्तचर एजेंसी और हमारी सुरक्षा-व्यवस्था कहां सो रही थी कि पाकिस्तान से आतंकवादी निकले और पहलगांव के उस इलाके में पहुंच गए जहां सैंकड़ों सैलानी जमा थे जिस कश्मीर का चप्पा-चप्पा आपकी मुट्ठी में है और जहां कोई कश्मीरी पलक भी झपकाता हैतो आपको पता चल जाता हैऐसा दावा गृहमंत्री करते नहीं अघाते हैंवहां ऐसी असावधानी और शर्मनाक यह कि उसके बारे में कोई सफ़ाई आज तक नहीं दी गईकोई माफी नहीं मांगी गई. सिर्फ एक ही आवाज सुनाई देती है कि ट्रेडऔर टॉक’ एक साथ नहीं चल सकतेकि ख़ून और पानी एक साथ नहीं बह सकते ! यह किसी तुक्काड़ की कविताई न हो तो मैं पूछना चाहता हूं कि सरकार’ व बेकार’ एक साथ चल सकते हैं क्या इतिहास बताता है कि मात्र संसदीय बहुमत के बल पर देश नहीं चलता है. पूछना हो तो इंदिरा गांधी और राजीव गांधी दोनों से पूछिएऔर पूछिए अटलबिहारी वाजपेयी से. फिर आप इस गफ़लत में क्यों जी रहे हैं कि संसदीय बहुमत हैतो आप देश को मनमाना हांक लेंगे ?  

  कोई बताए कि 3 दिनों के इस युद्ध से हासिल क्या हुआ खोखली राजनीतिक शेखी  व चुनावी फसल काटने की तैयारी आदि की बातें तो अहले-सियासत जानेहम तो देख रहे हैं कि 3 दिनों की इस ड्रोनबाजी से हमारे हाथ कुछ भी नहीं आया. न हम पाकिस्तान को इतना कमजोर कर सके कि वह आगे कोई दूसरा पहलगांव करने की हिम्मत न करेन हम अंतरराष्ट्रीय शक्तियों को अपने पीछे इस तरह खड़ा कर सके कि कोई पाकिस्तानकि कोई चीन उसकी तपिश महसूस कर सके. सीखना ही हो तो यूक्रेन से सीखें हम कि जिसके पीछे सारा यूरोप खड़ा ही नहीं हैउसकी सक्रिय मदद भी कर रहा है. वहां भी सबसे कमजोर कड़ी मित्र ट्रंप’ ही हैं. दौड़-दौड़ कर विदेश जाने वालाजबरन गले पड़ने वाला हमारा कूटनीतिक बौनापन ऐसा रहा है कि आज हमें व पाकिस्तान दोनों को एक ही पलड़े में रख करट्रंप ने अपनी झोली में डाल लिया है. अमरीका भी जानता है कि पाकिस्तान के पीछे चीन खड़ा हैऔर वह यह भी जानता है कि आज पुतिन का रूसचीन के ख़िलाफ़ दूर तक नहीं जा सकता है. अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में हमारे इस तरह अलग-थलग पड़ जाने से देश बड़ी अटपटी हालत में आ गया है. 

3 दिनों की इस ड्रोनबाजी ने हमें एकदम बेपर्दा कर दिया है. हमें यह सच्चाई पहली बार समझ में आई है कि हथियारों का जितना भी जखीरा हम जमा कर लेंउसका हम मनमाना इस्तेमाल नहीं कर सकते. इसलिए युद्ध में किसी को निर्णायक रूप से परास्त कर देना आज आसान नहीं है. हमारी फौज बली हैयह दावा हम करते रहें लेकिन यह सच्चाई भी समझते रहें कि कोई भी फौज उतनी ही बली होती है जितना बली होता है उसके पीछे खड़ा समाज ! हमने अपने समाज का क्या हाल बना रखा है 

 हमारा समाज कैसे ऐसी भीड़ में बदल दिया गया है कि जिसके पास युद्धोन्माद की मूढ़ नारेबाजी के अलावा कहने को कुछ बचा ही नहीं है ! हमारा मीडिया इन 3 दिनों में अपने पन्नों व पर्दों पर जैसा फेक’ युद्ध लड़ने में जुटा हुआ थाउससे तो वीडियो गेम खेलने वाला कोई बच्चा भी शर्मा जाए ! पहलगांव में असावधानी की हर सीमा पार करने वाली सरकारदेश के भीतर खबरों के बारे में इतनी सावधान थी कि सबको वही कहना व लिखना था जो सरकार कहे. इस सरकार ने ऐसा माहौल बना रखा है कि जैसे आज राष्ट्रीय सुरक्षा को सबसे बड़ा खतरा स्वतंत्र सोच व समाचार से है. हमारा तथाकथित विशेषज्ञ बौद्धिक’ कितना विपन्न हैयह भी इन 3 दिनों में पता चला. यूट्यूब जैसे माध्यमजो देश के विमर्श को एक दूसरा आयाम दे रहे थेउन सबको चुन-चुन कर बंद कर दिया गया. एक माहौल ऐसा बनाया गया कि जब राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में पड़ी हो तब आप लोकतांत्रिक अधिकारों की बात कैसे कर सकते हैं आपके ऐसे रवैये से दो बातें पता चलीं : पाकिस्तान जैसा खोखला हो चुका देश भी मात्र 3 दिनों में हम जैसे सर्वसाधनसंपन्न देश की सुरक्षा को खतरे में डाल सकता हैऔर यह भी कि लोकतांत्रिक अधिकारों से देश मजबूत नहीं बल्कि कमजोर होता है. अगर सर्वोच्च न्यायपालिका को अपने नमक का कर्ज उतारना हो तो उसे इस अवधारणा का स्वत: संज्ञान लेना चाहिए.         

सारे चैनल कह रहे थेसारे अखबार भयानक उबाऊ एकरसता से लिख रहे थेप्रधानमंत्री भी बोल रहे थे और उसकी प्रतिध्वनि सारे मंत्रियों के भीतर से भी उठ रही थी कि हमने जवाब दे दिया- 26 निरपराध भारतीयों की हत्या का जवाब हमने दे दिया ! कैसे जवाब दिया 26 लाशों के बदले 100 लाशें गिरा कर यह किसी शांतिवादी या गांधी या बुद्ध वाले का तर्क नहीं हैसामान्य समझ की बात है कि बदला भले लिया हमने लेकिन जवाब तो कुछ भी नहीं बना. दोनों सरकारें नहीं बता रही हैं कि फौजी व नागरिक मिला कर कुल कितने लोग मारे गए लेकिन आपकी ही दी खबरेंआपके  ही दिखाए मंजर बताते हैं कि हमारी अचूक गोलाबारी तथा पाकिस्तान की जवाबी कार्रवाई में कई जानें गई हैंकाफी बर्बादी हुई है. सत्ता व संपन्नता के शिखर पर बैठे लोग एक ही बात बार-बार दोहराते हैं कि हमारे जांबाज जवानों ने… हमारी फौज की वीरता ने… वे हैं तो हम रात में चैन की नींद सो पाते हैं आदि-आदि. लेकिन जांबाज जवानों से अपनी जगह बदले की तैयारी कितनों की हैकोई बताता नहीं है. ट्विटर-फ़ेसबुक आदि ने बहादुरी की टके भर क़ीमत नहीं रहने दी है. जो यहां हो रहा हैवही पाकिस्तान में भी हो रहा है. पराजित आदमी की तरह ही पराजित मुल्क भी ज्यादा प्रगल्भ होता हैतो पाकिस्तान की यह मनोभूमिका हम समझते हैं. लेकिन अपनी मनोभूमिका पाकिस्तान जैसी क्यों होती जा रही है तो कहना होगा कि दोनों ने अपना-अपना जवाब दे दिया हैऔर खाली हो गए हैं. युद्ध के दरवाजे भी फ़िलहाल बंद हो गए हैं तो बात खत्म हो गई. अब कोई कहे कि किसने किसको जवाब दे दिया अपनी परंपरा व पौराणिकता की शेखी बघारने वालों को याद रखना चाहिए कि महाभारत के युद्ध के अंत में आ कर धर्मराज युधिष्ठिर का रथ भी धरा से आ लगा था और वे भी अपनी खाली हथेली देख कर यही पूछ रहे थे कि हाथ क्या आया 

मौत जिंदगी का जवाब नहीं हैवह तो जिंदगी का अंत है. जिंदगी है तो सवाल हैंऔर सवाल हैं तो उनका जवाब भी होगा जिन्हें हमें खोजना है. आज हम नहीं खोज सकेतो कोई बात नहीं. खोजते रहेंगे तो जवाब मिलेगा. हमारे बस में इतना ही है कि हम खोजने में ईमानदार हों. बुद्ध अनगिनत सालों पहले यही तो कह गए : तुम जैसा सोचते होवैसे ही बन जाते हो. इसलिए युद्ध भी लड़ें तो मानवीयता भूल कर नहींज्वर भी चढ़े तो युद्धोन्माद का नहींक्योंकि हमें किसी भी सूरत में न अमानवीय बनना हैन बनाना है. हमें वैसा देश नहीं बनाना हैहमें वैसा नागरिक नहीं बनना है जो नेवी के लेफ्टिनेंट विनय नरवाल की पत्नी हिमांशी के चरित्र पर इसलिए कीचड़ उछालता है कि उसने पहलगांव में आतंकवादियों द्वारा अपने पति की हत्या के बाद भी देश को देशी आतंकवादियों के हाथ सौंपने से मना कर दियामध्यप्रदेश के भाजपा मंत्री विजय शाह ने कर्नल सोफिया कुरैशी के बारे में जो अपमानजनक बातें कहीं वह ज़ुबान की फिसलन भर नहींउस खास मानसिकता का परिचायक है जिसके प्रधान व्याख्याता कपड़ों से अपने नागरिकों की पहचान की बात करते हैंयही लोग हैं जो हमारे आला विदेश सचिव विक्रम मिसरी पर इसलिए लांक्षन लगाते हैं कि उन्होंने युद्धविराम की खबर देते हुए शालीनता नहीं छोड़ी. उन्माद का राक्षस हमेशा इसी तरह भूखा होता है- “ उसे पानी नहीं भाता / सियासत ख़ून पीती है.” 

14 मई 2025)