Saturday, 26 July 2025

दो धमाके !

दो धमाके करीब-करीब साथ ही हुए ! एक धमाके से महाराष्ट्र की भारतीय जनता पार्टी की सरकार के परखच्चे उड़ गएदूसरे धमाके से उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने नरेंद्र मोदी सरकार में पलीता-सा लगा दिया. पहला धमाका मुंबई हाइकोर्ट ने किया जिसने 7 नवंबर 2006 कोमुंबई की लोकल ट्रेनों में एक लगातार हुए 7 बम विस्फोटों  के सारे अपराधियों को निर्दोष करार कर रिहा कर दिया. जिंदगी के अनमोल 18 लंबे वर्ष सरकार की जेल में निरपराध बंद रह रहे ये सभी लोग मुसलमान हैं और उन्हें इसकी ही सजा मिली थी.

मुंबई शहर में व लोकल गाड़ियों में हुआ बम विस्फोट कांड हाल के वर्षों की सबसे घिनौनीक्रूर और सांप्रदायिकता से भरी आतंकी कार्रवाई थी. लोकल ट्रेनों में शाम 6.30 बजे एक-के-बाद एक 7 गाड़ियों में हुए इन विस्फोटों में 189 लोग मारे गए तथा 824 लोग बुरी तरह जख्मी हुए. मुंबई में शाम का यह वक्त होता है जब ट्रेनें आदमियों को ढो रही हैं कि आदमी ट्रेन कोबताना मुश्किल होता है. ऐसी भीड़ के वक्त इस तरह का हमला कोई दुश्मन कर सकता है या फिर कोई हैवान ! इसलिए यह बहुत जरूरी थाऔर है कि इस अमानवीय कांड के पीछे के षड्यंत्रकारियों को खोजा जाएपकड़ा जाए और कानून के हवाले किया जाए. यह किसी भी सरकार व प्रशासन की योग्यता व सार्थकता की कसौटी है. 

महाराष्ट्र सरकार की आतंकरोधी टुकड़ी (एटीएस) ने यह मामला संभाला और हर तरफ़ धर-पकड़ शुरू हुई. एटीएस ने 17 लोगों को आरोपी बनाया जिनमें से 15 की वह गिरफ्तारी कर सकी. लंबी पुलिसिया कार्रवाई के बादमहाराष्ट्र सरकार के मोकोका एक्ट के तहत विशेष अदालत में इन पर मुकदमा चला. अदालत ने 2015 में सुनवाई पूरी की और सजा सुनाई - एक आरोपी की रिहाई, 5 को फांसी तथा 7 को आजीवन कैद ! तब से जेल ही इन 15 लोगों का घर बना हुआ था. कोविड-19 में फांसी की सजा पाए एक अपराधी की मृत्यु भी हो गई. 

मामला हाईकोर्ट पहुंचा. अब उसका फैसला एक धमाके की तरह आया है जिसकी चर्चा से मैंने यह लेख शुरू किया है. हम भी पूछते हैं और हाइकोर्ट ने भी पूछा है कि अपराधी की खोज का मतलब यह नहीं है कि आप सड़क से किसी को भी पकड़ करअपराधी घोषित कर दें और जेल में डाल दें. वे सालों जेलों में सड़ें और आप अपनी कुर्सी पर बैठ चैन की बांसुरी बजाएं. क्या जो सरकार और प्रशासन ऐसा करेउसे सरकार या प्रशासन माना भी जा सकता है और यह भी देखिए कि आपकी शंका के दायरे में आए भी तो सिर्फ मुसलमान ! क्यों सिर्फ इसलिए कि आपके कुकर्मों से मुंबई में तब सांप्रदायिक दंगा फूटा था जिसके पर्दे में मुसलमानों को निशाने पर लेना आसान हो गया था 

सामान्य समझ यह कहती है कि एक ऐसा वृहद योजनाबद्ध अपराध  सफल’ होने से पहले कितने ही अपराधी गिरोहों के हाथों से गुजरता है जिनका धर्म के आधार पर विभाजन करना एक सांप्रदायिक अपराध है. पैसों की हेराफेरी हुई होगीहवाला हुआ होगाकितने हाथों व रास्तों से छुपता-छुपाता बारूद पहुंचा होगा ! और भी न जाने क्या-क्या हुआ होगा ! कौन कह सकता है कि यह सारा मुसलमानों के जरिये ही हुआ होगा 

अपराधियोंतस्करोंगैंगेस्टरों का एक ही धर्म होता है - पैसा बनानाफिर एटीएस ने केवल मुसलमानों क्यों दबोचा क्योंकि उसे पता था कि उस वक्त की सरकार की राजनीति को यह सबसे अधिक सुहाएगा. “ किसी अपराध के मुख्य व्यक्ति को सजा दिलवाना आपराधिक गतिविधियों को दबानेकानून व्यवस्था को बनाए रखने तथा नागरिकों की सुरक्षा की गारंटी करने की दिशा में निहायत जरूरी काम है. लेकिन ऐसा झूठा आभास पैदा करना कि हमने मामला हल कर लिया है तथा अपराधी अदालत में पहुंचा दिए गए हैंएक खतरनाक दावेदारी है. ऐसे क्षद्मपूर्ण ढंग से मामले को निबटाने से लोगों का व्यवस्था पर से विश्वास टूटता है और समाज को झूठा आश्वासन मिलता है जबकि असली अपराधी कहीं छुट्टे घूमते रहते हैं. हमारे सामने जो मामला आया हैवह ऐसा ही है.” जस्टिस अनिल किलोर तथा श्याम चांडक ने 671 पन्नों का फैसला इस तरह लिख कर सारे मुसलमान आरोपियों को रिहा कर दिया. 

अब कठघरे में कौन है महाराष्ट्र की सरकार और महाराष्ट्र का एटीएस. महाराष्ट्र सरकार तुरंत सुप्रीम कोर्ट गई. वहां रोना यह रोया गया कि हम रिहा लोगों को फिर से जेल में डालने की मांग नहीं कर रहे हैं बल्कि यह निवेदन कर रहे हैं कि ऐसे फैसले का असर मकोका के दूसरे मामलों पर भी पड़ रहा है. सुप्रीम कोर्ट इसकी सफाई में आदेश जारी करे. सुप्रीम कोर्ट ने कुल जमा यह निर्देश दिया कि मुंबई हाइकोर्ट के इस फैसले को मकोका के दूसरे मामलों में आधार नहीं बनाया जाए- “ बसइससे अधिक कोई राहत हम आपको नहीं दे सकते.” मतलब मुंबई हाइकोर्ट का फैसला ज्यों-का-त्यों लागू है. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी जोड़ दिया कि इस मामले में जो लोग रिहा हो चुके हैंअब उन्हें आप वापस जेल में भी नहीं डाल सकते. 

सरकारों के पास शर्म भले न होजनता का अफरात पैसा तो है ही. वह वकीलों-अदालतों पर कुछ भी लुटा सकती है. लेकिन इस अनमोल सवाल का जवाब न महाराष्ट्र सरकार दे सकती हैन सुप्रीम कोर्ट कि वह कौन-सी अदालत होगी जहां ऐसी सरकार को व ऐसे प्रशासन को सजा मिलेगी जो बेकसूरों की जिंदगी से ऐसी बेरहमी से खेलती है हमारे संविधान में बहुत सारे संशोधन हुएऐसा एक जरूरी संशोधन कौन-सी सरकार ला सकती है और कौन-सी अदालत ऐसा करने का निर्देश सरकार को दे सकती है कि अपराध को रोकने के नाम पर आप अपराध नहीं कर सकते ऐसा प्रमाणित होने पर सरकार व प्रशासन को भी सज़ा मिलेगी! यह संसदीय लोकतंत्र को उन्नत करने वाला कदम होगा.  

महाराष्ट्र हाइकोर्ट के धमाके की गूंज अभी ठीक से गूंजी भी नहीं थी कि दूसरा धमाका दिल्ली से हुआ. इसमें सनसनी ज्यादा थीसो मुद्दों को किनारे करने वालीसनसनी का भूखा मीडिया इसके पीछे भागा. एक सत्वहीन उप-राष्ट्रपति ने जितना संभव थाउतने नाटकीय ढंग से इस्तीफा दे दिया. देश के संसदीय इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि किसी उप-राष्ट्रपति ने कार्यकाल समाप्ति से पहले त्यागपत्र दिया हो. लेकिन क्या जगदीप धनखड़ कभी किसी गंभीर राजनीतिक विमर्श के पात्र रहे हैं वे खुद ही खुद को गंभीरता से लेते हों तो होंबाकी उनका सारा राजनीतिक जीवन दूसरों द्वारा इस्तेमाल किए जाने की दरिद्र कहानी भर है. दल बदलते हुए वे भारतीय जनता पार्टी तक पहुंचे और प्रधानमंत्री को लगा कि यह आदमी मेरी मजबूत कठपुतली बन सकता हैसो उन्होंने अपने दरबार में उन्हें शामिल कर लिया. वे ममता बनर्जी को नाथने के लिए राज्यपाल बनाकर बंगाल भेजे गए. राज्यपालों को सर्कस का बंदर बनाने की कहानी यहीं से शुरू होती है. अब तो बंदरों की थोक आमद हो रही है. ऐसे सारे सुपात्रों से प्रधानमंत्री की अपेक्षा यही रहती है कि वे दिखाएं कि वे कितने स्तरों परकितनी तरह से अपनी कुपात्रता’ साबित कर सकते हैं. 

धनखड़ इनमें सबसे अव्वल रहेइसलिए वे दिल्ली लाए गए. राज्यसभा में सरकार का बहुमत नहीं थासो सरकार को ऐसे लठैत की जरूरत थी. वे राज्यपाल के रूप में जितना गिरेउप-राष्ट्रपति व राज्य सभा के अध्यक्ष के रूप में उससे भी आगे गए. उन्होंने किसी भी मर्यादा का पालन नहीं किया : न संवैधानिक मर्यादा कान राजनीतिक मर्यादा कान दो राज्य प्रमुखों के व्यवहार की मर्यादा कान मानवीय रिश्तों की मर्यादा का. प्रधानमंत्री की नजर में चढ़े-बने रहने की कवायद सभी राज्यपाल करते हैं- आरिफ़ मुहम्मद खान भी,  आर.एन.रवि भीआचार्य देवव्रत भीआनंद बोस आदि भी. न करें तो वहां टिकें कैसे हम यह भी देखते हैं कि राज्यपालों से मुख्यमंत्री की टकराहट तभी तक रहती है जब तक उस राज्य में गैर-भाजपा सरकार होती है. भाजपा की सरकार आई और सारी तकरार कपूर की तरह उड़ जाती है. दिल्ली इसका नायाब नमूना है. अब दिल्ली का उप-राज्यपाल कौन हैलोगों को पता भी नहीं चलता है. आम आदमी पार्टी के दौर में सिद्धांत ही बना था कि असली सत्ता उप-राज्यपाल के पास है जिसे खेलने के लिए एक सरकार दे दी गई है. 

धनखड़ साहब ने राज्यसभा को प्राइमरी स्कूल की कक्षा में बदल कर ख़ुद को हेडमास्टर नियुक्त कर लिया. विपक्ष का कोई ही वरिष्ठ सदस्य ऐसा नहीं होगा जिसे उन्होंने अपमानित न किया हो. उनके हाव-भाव से-बॉडी लाइंग्वेज-से उन सबके लिए गहरी हिकारत झलकती थी जो सत्तापक्ष के नहीं थे. वे अपना अज्ञान व कुसंस्कार छिपाने के लिए भारतीय परंपरावैदिक शीलसंवैधानिक गरिमा जैसे बड़े-बड़े शब्दों का इस्तेमाल करते तो थे लेकिन दिन-ब-दिन उनका खोखलापन जाहिर होता जाता था. हाल-फिलहाल में राज्यसभा के अध्यक्ष हामिद अंसारी थे जिनके दौर में राज्यसभा की शालीनता व विमर्श की हम आज भी याद करते हैं. 

धनखड़ साहब कभी वकील भी रहे थे. उन्हें यह मुगालता हो गया कि इस नाते वे संविधान विशेषज्ञ भी हैं. यह कुछ ऐसा ही था कि वार्डब्याय समझने लगे कि वह डॉक्टर है. वे संविधान की मनमानी व्याख्या करने लगेसुप्रीम कोर्ट को उसकी औकात बताने लगे. मोदी-राज में यह सबसे खतरनाक है. कठपुतलियां ही कठपुतली नचाने की कोशिश करने लगेंतो भला कोई कैसे सहे ! उन्हें लगता रहा कि इस तरह प्रधानमंत्री की नजर में बने रहने से अगली सीढ़ी चढ़ने को मिलेगी. बसयहीं आ कर वे गच्चा खा गए. 

प्रधानमंत्री को दूसरी सारी बकवासों से खास मतलब नहीं होता है. वे खुद ही इसमें निष्णात हैं. उन्हें हर वह आदमी नागवार गुजरता है जो अपनी हैसियत बनाने लगता है. पार्टी में सबकी हैसियत खत्म कर तो प्रधानमंत्री ने अपनी हैसियत बनाईं है. अब आप उसे ही चुनौती देने लगेंतो कैसे चले. सो धनखड़ साहब नप गए. वे इतनी हैसियत नहीं रखते हैं कि उनके जाने से कोई मक्खी भी भिनभिनाए. इसलिए सत्तापक्ष से कोई आवाज नहीं उठी. प्रधानमंत्री के ट्विट ने विदाई लेते धनखड़ साहब को न सिर्फ अपमानित किया बल्कि अपनी पार्टी को सावधान भी कर दिया कि कोई बात न करे . तब अपना तीर-कमान ले कर सामने आई कांग्रेस. उसने धनखड़ साहब के पक्ष में अबतक सबसे ज्यादा आवाज उठाई है. इन दिनों कांग्रेस की यही चारित्रिक विशेषता बन गई है कि वह बेनिशाने तीर चलाती है. वह धनखड़ साहब के लिए जो कह व कर रही हैवह सतही अवसरवादिता व अपरिपक्व राजनीतिक चालबाजी भर है. एक कमजोरदिशाहीन राजनीतिक दल ही इस तरह अपना सिक्का जमाने की कोशिश करता है. 

इस सरकार ने भारतीय लोकतंत्र को एक ऐसी खोखली व्यवस्था में बदल दिया है जिसमें व्यक्तित्वहीन कठपुतलियों का मेला लगा है. एक नहींकई धनखड़ हैं. एकाधिकारशाही के लिए ऐसा करना जरूरी होता है. एकाधिकारशाही में संविधान ऐसा मृत दस्तावेज होता है जिसे बाजवक्त प्रणाम किया जाता है और सारी संवैधानिक व्यवस्थाओं को प्राणहीन जी-हुजूरों का अस्तबल बना दिया जाता है. हम आज उसी के रू-ब-रू हैं. ( 25.07.2025)

Monday, 23 June 2025

अब जंग का एक ही मतलब है - विनाश !

         हमारे तथाकथित अख़बार एक ग़ज़ब की बात बता रहे हैं कि हमारे प्रधानमंत्री ने अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप से फ़ोन पर बात की और उनसे कहा कि आप जो कह रहे हैं, कहते आ रहे हैं वह झूठ है:  मैंने भारत-पाकिस्तान युद्ध के बारे में न कभी आपसे बात की, न कभी आपसे युद्धबंदी की बात की और न कभी आपसे मध्यस्थता का अनुरोध किया. बता रहे हैं कि मोदीजी ने उस दिन बहुत कड़क रवैया अपनाया और आगे कहा कि मैं आगे भी कभी ऐसा कोई अनुरोध आपसे करने वाला नहीं हूं. हमारे देश में इस बारे में सर्वसम्मति है कि हम किसी तीसरे की मध्यस्थता कभी स्वीकार नहीं करेंगे. भक्त कह रहे हैं कि इधर मोदी ने यह कहा और उधर सारी दुनिया में सन्नाटा छा गया.   

 किसी को याद आया कि नहीं पता नहीं कि इन्हीं ट्रंप साहब को दोबारा राष्ट्रपति बनवाने के लिए इन्हीं मोदी साहब ने कभी अमरीका जा कर चुनाव प्रचार किया था. लेकिन तब दोनों हार गए थे. यह हार ट्रंप को इतनी नागवार गुजरी कि इस बार जब वे जीते तो उन्होंने मोदीजी को अपनी ताजपोशी के कार्यक्रम में नहीं बुलाया. समारोह में मोदीजी को न बुला कर ट्रंप ने उन्हें व उनकी भक्त-मंडली को उनकी औकात बता दी. यह बात मोदीजी को बहुत नागवार गुजरी. वे इस अभियान में जुट गए कि ट्रंप महोदयआपको मुझे बुलाना तो पड़ेगा ही. सारी तिकड़म के बाद उन्हें ट्रंप ने उन्हें बुला लिया. मोदीजी तुरंत ही पहुंचे और वहां पहुंच कर उन्होंने ट्रंप साहब के उन तमाम गुणों को सार्वजनिक रूप से याद किया जिनका पता न अमरीका को थान ट्रंप को. वे ट्रंप साहब की बहादुरी की याद करते हुए बहुत विह्वल भी होते रहे. लेकिन तभी ट्रंप ने उन्हें सामने बिठा कर बताया कि भारत जिस तरह अब तक अमरीका को लूटता आया हैवह आगे संभव नहीं होगा. मैं टैरिफ’ के हथियार से आपको आपकी औकात बता दूंगा. 

अब आप बताइए कि ऐसा रिश्ता क्या कहलाता है यह न तो मित्रता का रिश्ता हैन सम्मान कान बराबरी का. यह वह रिश्ता है जिसमें ‘ इस्तेमाल कर लोफिर फेंक दो’ का चलन चलता है. ट्रंप और मोदीदोनों इसके उस्ताद हैं. आज ट्रंप का पलड़ा भारी है.मोदी अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे हैं.    

मोदी की राजनीतिक शैली में बात कुछ ऐसी बना दी गई है कि देश के बारे मेंफौज के बारे मेंयुद्ध के बारे मेंदेश की सुरक्षा के बारे में कुछ भी न बोलोन पूछोन सोचो ! और पांचवें हैं नरेंद्र मोदीजिनके बारे में कुछ भी पूछना हिंदुत्व वालों को नागवार गुजरता है. आप सोचिएकि पहलगांव के बाद तमाम विपक्ष ने कह दिया कि हम सरकार के साथ हैं ! यह घबराई हुईजड़विहीनराजनीतिक दृष्टि से कायर विपक्ष की सोच है. संकट का आसमान रचना और फिर उस आसमान में अपने शिकार करना सरकारों का पुराना हथकंड्डा है. इसलिए स्थिति चाहे कैसी भी होहम ताश के सारे 52 पत्ते सरकार के हाथ में कैसे दे सकते हैं विपक्ष की एक ही भूमिका होनी चाहिएघोषित की जानी चाहिए कि हम हर हाल में देश के साथ खड़े रहेंगे. हमारी इस भूमिका से सरकार को जितनी मददजितना समर्थन मिलता हैउससे हमें एतराज़ भी नहीं है लेकिन सरकार की आंखों हम देखेंसरकार के कानों हम सुनें तथा सरकार के पांवों हम चलेंयह कैसे हो सकता है यह तो बौनों का बला का संकट है और इससे घिरा हमारा विपक्ष बौने-से-बौना हुआ जा रहा है. 

3 दिन के युद्ध के बादयुद्ध से पहले और बाद की किसी भी स्थिति की गंभीर चर्चा व समीक्षा की हर संभावना को खत्म करते हुए प्रधानमंत्री ने संसदीय विपक्ष की आवाजों को चुन-चुन कर विदेश-यात्रा पर भेज दिया. कहा : विश्व मंच पर भारत सरकार का पक्ष अच्छी तरह रखने का राष्ट्रीय कर्तव्य निभाने की चुनौती हैसो आप सब तैयार हो जाएं. आख़िर पाकिस्तान को जवाब देना है न ! सीमा पर हमारे जवान अंतिम बलिदान दे रहे हैंतो क्या हम विदेश जा कर अपनी आवाज़ भी नहीं दे सकते कहने की देर थी कि सभी तैयार हो गए. किसी ने नहीं कहा कि हमें अपनी पार्टी की सहमति लेनी पड़ेगी ! जब राष्ट्रीय कर्तव्य निभाना होतो पार्टी की क्या बात है. पार्टी से राष्ट्र बड़ा होता है कि नहीं ! सब अटैची  के साथ एयरपोर्ट पर थे. कांग्रेस पार्टी ने अपने प्रतिनिधियों के नाम भेजे तो थे लेकिन सरकार को तो कोई और ही खेल खेलना था. उसने वे सारे नाम रद्दी में फेंक दिए और प्रतिनिधि मंडल में कांग्रेस के अपने प्रतिनिधि’ नियुक्त कर दिए. अब कांग्रेस के सामने दो ही रास्ते थे : इस संसदीय पिकनिक पर न जाने का व्हिप’ जारी करे व इसका उल्लंघन करने वालों को पार्टी से बाहर करे या फिर चुप्पी साध ले. कांग्रेस ने दूसरा विकल्प चुनातो तृणमूल कांग्रेस ने पहला विकल्प चुना. इस तरह सभी अपने-अपने हिस्से का विदेश घूम आए. जहां जिसे जैसा मौका मिलाउसने वहां वैसा सरकार का पक्ष रखा. लौटने पर सबने पाया कि वे तो विदेश से लौट आए हैं लेकिन उनकी आवाज कहीं विदेश में ही रह गई है. आज हमारे संसदीय विपक्ष के पास न चेहरा हैन आवाज़ ! सूरतविहीनगूंगे विपक्ष से सरकार को क्या खतरा हो सकता है 

जो सरकार व राष्ट्र का फर्क नहीं समझतेजो सत्ता प्रतिष्ठानों के इर्द-गिर्द इसलिए ही घूमते-मंडराते रहते हैं कि कबकहांकैसे मौका मिले कि हम भीतरखाने दाखिल हो सकेंजो विपक्ष की भूमिका चुनते नहीं हैं बल्कि उसे सजा काटने की तरह देखते हैं और पहले मौके पर उधर भाग खड़े होते हैं वे कहीं भी आदर-मान नहीं पाते हैं - न विपक्ष मेंन सत्तापक्ष में. वे होते हैं किसी कुर्सी की शक्ल मेंबस ! हमारा अधिकांश विपक्ष इसी शर्मनाक त्रासदी से गुज़र रहा है. हमारा मतदाता इसलिए ही उसे किसी विकल्प की तरह न देख पा रहा हैन स्वीकार कर पा रहा है. 

कोई आश्चर्य नहीं कि देश में आज एक ही विपक्ष बचा है और उसका नाम है राहुल गांधी ! लेकिन आप देखिए कि यह एक आदमी का विपक्ष भी हर कदम पर ठिठकताभटकता और असमंजस में पड़ा दिखाई देता हैतो इसलिए कि वह हर तरफ़ से अकालग्रस्त है - अकाल संख्या का नहींप्रतिभाप्रतिबद्धता का अकाल है ! किसी भी नेता के लिए निर्णायक भूमिका निभाने या उसकी जिम्मेवारी लेने के लिए कुछ आला सहकर्मियों की ज़रूरत होती है. ऐसे सहकर्मी बने-बनाए नहीं मिलते हैं. बनाने पड़ते हैं. राहुल के पास वे नहीं हैंक्योंकि अब तक का अनुभव बताता है कि उन्हें ग़लत सहकर्मियों को चुनने में महारत हासिल है. नरेंद्र मोदी के पास भी ऐसे सहकर्मी नहीं हैं. लेकिन नेताओं की एक प्रजाति ऐसी होती है जो दोयम दर्जे के चापलूसों से घिरे रहने में ही सुख व सुरक्षा पाती है. नरेंद्र मोदी उसी प्रजाति के हैं. उनके पास अभी सत्ता की छाया भी है.    

जब विपक्ष के ऐसे हाल हों और सत्तापक्ष के भीतर सत्ता-सुख व अहंकार के अलावा कुछ हो ही नहींतो यह सवाल कौन पूछे कि अंगुलियों पर गिने जाने जैसे आतंकवादी हमारी सीमा में घुस आए और उन्होंने हमारे 26 मासूम नागरिकों की हत्या कर दीइतने से सारा देश कैसे खतरे में आ गया किसी चौराहे पर वाहनों की टक्कर हो जाए और 26 लोग मारे जाएंतो क्या देश खतरे में आ जाता है आप समझ रहे हैं न कि मैं वाहनों की टक्कर व आतंकवादियों द्वारा की गई हत्या को एक पलड़े पर नहीं रख रहा हूंमैं देश पर खतरा कब आता हैइसे पहचानने की बात कर रहा हूं. पहलगांव में घुस आए उन आतंकवादियों व उन मासूम नागरिकों की हत्या से देश खतरे में नहीं आया था बल्कि वह खतरे में इसलिए आया कि आप कश्मीर की सीमा की सुरक्षा में विफल रहे थे. केंद्र सरकार की सीधी निगरानी में जो कश्मीर हैचोर उसकी दीवार में सेंध लगा लेता है तो यहां खतरा आतंकवादी नहीं हैआपका निकम्मापन है. खतरा यहां है कि आप उस आतंकी कार्रवाई का जवाब देने के लिए ऐसा रास्ता अख़्तियार करते हैं जो काइंया अंतरराष्ट्रीय शक्तियों को अपना खेल खेलने के लिए उकसाता हैखतरा यहां है कि आप देश में ऐसा माहौल बनाते हैं मानो यह जंग भारत-पाकिस्तान के बीच नहींहिंदू-मुसलमान के बीच हो रही हैखतरा यहां है कि आपको फौज की आला अधिकारी सोफिया कुरैशी अंतत: मुसलमान ही दिखाई देती है और आप उसे दुश्मन की बहन बताते हैंखतरा यहां है कि इसी संकट की आड़ ले कर आप कश्मीर में वैसे कितने ही घर गिरा देते हैं जिन्हें आपने आतंकवादियों का घर करार दिया हैखतरा यहां है कि बुलडोज़र से किसी का घर गिरा देने की योगी-मार्का प्रशासन की जिस शर्मनाक शैली पर सुप्रीम कोर्ट ने गंभीर टिप्पणी की है और योगी-सरकार को कठघरे में खड़ा किया हैआप भी वही कर रहे हैं. यह अदालत की अवमानना तो है हीसंविधान से बाहर जाने की निंदनीय कार्रवाई है. खतरा यहां है कि आप फौज का क्षुद्र राजनीतिक इस्तेमाल करते आ रहे हैं जो आग से खेलने जैसी मूर्खता है. 

       लेकिन यह सच भी अजब-सी शै है. यह कहीं-न-कहीं से अपना सर उठा ही लेता है. भारत सरकार जो कह रही है,  उसे हम न मानें तो ट्रंप साहब ने जो कह रहे हैं उसे हम कैसे मान लें ट्रंप साहब की असलियत यह हैऔर सारी दुनिया उसे जानती है कि सचईमानदारीनैतिकता आदि से वे ज्यादा निस्बत नहीं रखते. इसलिए उनके हर कहे व किए को हम उनकी औकात से ही तौलते हैं. लेकिन हमारे वायु सेना प्रमुख एयरमार्शल ए.पी. सिंह और बाद में सैन्य सेवा प्रमुख जेनरल अनिल चौधरी की बात ऐसी नहीं है कि हम उसे नजरंदाज करें. ये वे फौजी अधिकारी हैं जिनका यह सरकार अब तक राजनीतिक इस्तेमाल करती आई है. अब वे कह रहे हैं कि 3 दिनों का यह युद्ध दोनों तरफ़ को बेहद नुक़सान पहुंचा गया है. पाकिस्तान का नुक़सान ज्यादा हुआ है लेकिन उसने हमारा जितना नुक़सान किया हैवह स्थिति को ख़तरनाक बनाता है. पाकिस्तान ने हमारे विमान भी गिराए और सैनिक अड्डों को भी नुक़सान पहुंचाया. यह युद्ध रुकना ही चाहिए थाक्योंकि इस युद्ध से हासिल कुछ नहीं हो सकता था. परिस्थिति का यह आकलन व अंतरराष्ट्रीय शक्तियों का दवाब हमें युद्धविराम तक ले आया. यह मुख़्तसर में वह है जो इन दो आला फौजी अधिकारियों ने कहा है. 

हमें यह सच्चाई समझनी चाहिए कि हथियार के व्यापारियों से खरीद-खरीद कर जो जखीरा हम भी और पाकिस्तान भी जमा करता रहता हैवह हर देश को करीब-करीब एक ही धरातल पर ला खड़ा करता है. इसलिए आज की दुनिया में कोई लड़ाई अंतिम तौर पर किसी को जीत नहीं दिलाती है. जीत नहींविनाश ही आज के युद्ध का सच है. आप रूस-यूक्रेन का दो बरस से ज्यादा लंबा युद्ध देखिए. कौन जीत रहा है दोनों बर्बाद हो रहे हैं. अमरीका व यूरोप की फौजी मदद से लड़ रहा यूक्रेन और हथियारों का अकूत जखीरा रखने वाला पुतिन- दोनों का दम फूल रहा है. दोनों का देश बर्बाद हो रहा है. फौजी भी मारे जा रहे हैंनागरिक भीशहर-गांव-कस्बे सब मलबों में बदल रहे हैं. ऐसे में आप जीत-हार की बात क्या पूछेंगे ! पूछने वाला सवाल यही है कि बताइएकितना विनाश हो चुका हैऔर कितना विनाश कर के आप रुकेंगे इसराइल ने ईरान पर हमला कर किया क्या या फिर ट्रंप ने वहां अपनी नाक घुसेड़ कर क्या किया आप सोचिएअगर ईरान ने अमरीका पर हमला बोला तो क्या होगा जीत या हार होगी नहींऐसा कुछ नहीं होगा. विश्वयुद्ध भी नहीं होगावैश्विक विनाश होगा - शायद वैसाजैसा दुनिया ने अब तक देखा नहीं है. हिंसा में से वीरता तो पहले ही निकली चुकी हैअब युद्ध में से जीत-हार भी निकल गई है. बची है विशुद्ध हैवानियत- क्रूरताअश्लीलता और अपरिमित विनाश !   

कोई राहुल गांधी यदि पूछता है कि हमें बताइए कि 3 दिनों के इस युद्ध में हमारा कितना नुक़सान हुआकितने विमान गिरेकितने जवान मरे तो यह देशभक्ति की कमी या अपनी सेना की क्षमता पर भरोसे की कमी जैसी बात नहीं है. यही सवाल है जो पाकिस्तान में भी पूछा जाना चाहिएइसराइल में भीयूक्रेन और गजा व ईरान में भी. आज किसी भी कारण जो जंग का रास्ता चुनते हैं या जबरन किसी को जंग में खींच लाते हैं उन सबके संदर्भ में यही सबसे अहम सवाल है जो आंखों में आंखें डाल कर पूछा जाना चाहिए. लेकिन कौन पूछे जिस विपक्ष की ज़ुबान खो गई है वह पूछे भी तो कैसे ? ( 23.06.2025)  

3 दिन का युद्ध : न 3 के, न 13 के !

       वह कहावत है न : हाथ के तोते उड़ जाना, वह ऐसे ही वक्त के लिए बनी है. उन सभी जंगबाजों के हाथ के तोते उड़ गए हैं जो पिछले 3 दिनों से प्रधानमंत्री को ललकार रहे थे कि बस, अब रुकना नहीं है, इस्लामाबाद व लाहौर जेब में ले कर ही लौटना है-  बस, देखिएगा मोदीजी, अब पीओके जैसा कोई क्षेत्र नक्शे पर बचना नहीं चाहिए. लेकिन ऐसे सारे शोर धरे रह गए और 3 दिनों में पाकिस्तान के साथ हमारा अब तक का सबसे छोटा युद्ध समाप्त हो गया. 

कोई भी युद्ध समाप्त हो और शांति किसी भी रास्ते लौटे तो मेरे जैसा आदमी उसका हर हाल में स्वागत ही करेगा. शांति शर्त नहींजीवन है. लेकिन नहींयहां मुझे यह भी कह देना चाहिए कि ऑपरेशन सिंदूर ( इस नाम से मुझे वितृष्णा होती है लेकिन यही नाम चलाया गया है !) जिस रास्ते विराम तक आया हैउससे मुझे आशंका हो रही है कि यह शांति किसी बाज के चंगुल में दबी हुई है. होंगे अमरीका के वर्तमान राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप किसी के परम मित्र लेकिन शांति के लिए उनकी मध्यस्थता युद्ध से कम खतरनाक नहीं है. यदि प्रधानमंत्री का यह कहना सच है कि यह शांति अमरीका की मध्यस्थता से नहींभयाक्रांत पाकिस्तान व विजयश्री को वरण करने वाले हिंदुस्तान की समझदारी से आई हैतो ट्रंप महाशय के इस काइयांपन को कठोरता से बरजना नहीं चाहिए क्या कि उन्होंने सबसे पहलेकिसी से भी पहले ट्विट कर मध्यस्थता का दावा भी कर दियासमझदारी दिखाने के लिए दोनों बच्चों’ की पीठ भी थपथपा दीदोनों को साथ बिठा कर सॉरी’ कहने के लिए तटस्थ स्थान’ भी बता दिया और इस विवाद से बाहर आने में मार्गदर्शक बनने की पेशकश भी कर दी इतना ही नहींयह भी कह दिया कि मेरे कहने से आत्मसमर्पण’ नहीं करोगे तो मैं धंधा-पानी बंद कर दूंगा. यह सब किसी के हवाले से नहींसीधे ट्रंप महाशय के श्रीमुख से हमने भी सुनामोदीजी ने भी सुना और सारी दुनिया ने सुना. उनके इस काइंयापने को बरजना तो दूरन भारत नेन पाकिस्तान ने मित्र ट्रंप से ऐसा कुछ भी कहाबल्कि पाकिस्तान ने तो उनका सार्वजनिक तौर पर आभार भी माना. अंतरराष्ट्रीय राजनीति के इस दौर में अमरीका व ट्रंप का यह रवैया अत्यंत खतरनाक है. इसकी गहरी और गहन छानबीन होनी चाहिए. लेकिन अभी हम ख़ुद को तो देखेंफिर ट्रंप महाशय की बात करते हैं.  

  पहलगांव में पाकिस्तान ने जो अमानवीय कारनामा कियाउसके बाद किसी भी सरकार के लिए चुप बैठना संभव नहीं था. आजादी के बाद से अब तक पाकिस्तान से हमारी जितनी भी जंग हुई हैउसके पीछे कहानी यही रही है कि पाकिस्तान ने हमारे सामने दूसरा कोई रास्ता छोड़ा ही नहीं ! लेकिन एक फर्क भी है जिसे भी समझना जरूरी है. कारगिल और पहलगांवदोनों के साथ एक बात समान है कि इन दोनों युद्ध के पीछे सरकार की अक्षम्य विफलता को छिपाने और ख़ुद को महिमामंडित करने की कोशिश हुई है. आप हिसाब लगाएं तो इन दोनों मौकों पर देश की कमान भारतीय जनता पार्टी के हाथ में थी. कारगिल में पाकिस्तान भीतर घुस आयापहाड़ियों में उसने अपनी मजबूत जगह बना लीहथियारगोला-बारूद जमा कर लिया और अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार सोती रही. बाद में सैंकड़ों जवानों के रक्त से अपनी यह नंग छुपाई गई. ऐसा ही पहलगांव में हुआ. हमारी गुप्तचर एजेंसी और हमारी सुरक्षा-व्यवस्था कहां सो रही थी कि पाकिस्तान से आतंकवादी निकले और पहलगांव के उस इलाके में पहुंच गए जहां सैंकड़ों सैलानी जमा थे जिस कश्मीर का चप्पा-चप्पा आपकी मुट्ठी में है और जहां कोई कश्मीरी पलक भी झपकाता हैतो आपको पता चल जाता हैऐसा दावा गृहमंत्री करते नहीं अघाते हैंवहां ऐसी असावधानी और शर्मनाक यह कि उसके बारे में कोई सफ़ाई आज तक नहीं दी गईकोई माफी नहीं मांगी गई. सिर्फ एक ही आवाज सुनाई देती है कि ट्रेडऔर टॉक’ एक साथ नहीं चल सकतेकि ख़ून और पानी एक साथ नहीं बह सकते ! यह किसी तुक्काड़ की कविताई न हो तो मैं पूछना चाहता हूं कि सरकार’ व बेकार’ एक साथ चल सकते हैं क्या इतिहास बताता है कि मात्र संसदीय बहुमत के बल पर देश नहीं चलता है. पूछना हो तो इंदिरा गांधी और राजीव गांधी दोनों से पूछिएऔर पूछिए अटलबिहारी वाजपेयी से. फिर आप इस गफ़लत में क्यों जी रहे हैं कि संसदीय बहुमत हैतो आप देश को मनमाना हांक लेंगे ?  

  कोई बताए कि 3 दिनों के इस युद्ध से हासिल क्या हुआ खोखली राजनीतिक शेखी  व चुनावी फसल काटने की तैयारी आदि की बातें तो अहले-सियासत जानेहम तो देख रहे हैं कि 3 दिनों की इस ड्रोनबाजी से हमारे हाथ कुछ भी नहीं आया. न हम पाकिस्तान को इतना कमजोर कर सके कि वह आगे कोई दूसरा पहलगांव करने की हिम्मत न करेन हम अंतरराष्ट्रीय शक्तियों को अपने पीछे इस तरह खड़ा कर सके कि कोई पाकिस्तानकि कोई चीन उसकी तपिश महसूस कर सके. सीखना ही हो तो यूक्रेन से सीखें हम कि जिसके पीछे सारा यूरोप खड़ा ही नहीं हैउसकी सक्रिय मदद भी कर रहा है. वहां भी सबसे कमजोर कड़ी मित्र ट्रंप’ ही हैं. दौड़-दौड़ कर विदेश जाने वालाजबरन गले पड़ने वाला हमारा कूटनीतिक बौनापन ऐसा रहा है कि आज हमें व पाकिस्तान दोनों को एक ही पलड़े में रख करट्रंप ने अपनी झोली में डाल लिया है. अमरीका भी जानता है कि पाकिस्तान के पीछे चीन खड़ा हैऔर वह यह भी जानता है कि आज पुतिन का रूसचीन के ख़िलाफ़ दूर तक नहीं जा सकता है. अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में हमारे इस तरह अलग-थलग पड़ जाने से देश बड़ी अटपटी हालत में आ गया है. 

3 दिनों की इस ड्रोनबाजी ने हमें एकदम बेपर्दा कर दिया है. हमें यह सच्चाई पहली बार समझ में आई है कि हथियारों का जितना भी जखीरा हम जमा कर लेंउसका हम मनमाना इस्तेमाल नहीं कर सकते. इसलिए युद्ध में किसी को निर्णायक रूप से परास्त कर देना आज आसान नहीं है. हमारी फौज बली हैयह दावा हम करते रहें लेकिन यह सच्चाई भी समझते रहें कि कोई भी फौज उतनी ही बली होती है जितना बली होता है उसके पीछे खड़ा समाज ! हमने अपने समाज का क्या हाल बना रखा है 

 हमारा समाज कैसे ऐसी भीड़ में बदल दिया गया है कि जिसके पास युद्धोन्माद की मूढ़ नारेबाजी के अलावा कहने को कुछ बचा ही नहीं है ! हमारा मीडिया इन 3 दिनों में अपने पन्नों व पर्दों पर जैसा फेक’ युद्ध लड़ने में जुटा हुआ थाउससे तो वीडियो गेम खेलने वाला कोई बच्चा भी शर्मा जाए ! पहलगांव में असावधानी की हर सीमा पार करने वाली सरकारदेश के भीतर खबरों के बारे में इतनी सावधान थी कि सबको वही कहना व लिखना था जो सरकार कहे. इस सरकार ने ऐसा माहौल बना रखा है कि जैसे आज राष्ट्रीय सुरक्षा को सबसे बड़ा खतरा स्वतंत्र सोच व समाचार से है. हमारा तथाकथित विशेषज्ञ बौद्धिक’ कितना विपन्न हैयह भी इन 3 दिनों में पता चला. यूट्यूब जैसे माध्यमजो देश के विमर्श को एक दूसरा आयाम दे रहे थेउन सबको चुन-चुन कर बंद कर दिया गया. एक माहौल ऐसा बनाया गया कि जब राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में पड़ी हो तब आप लोकतांत्रिक अधिकारों की बात कैसे कर सकते हैं आपके ऐसे रवैये से दो बातें पता चलीं : पाकिस्तान जैसा खोखला हो चुका देश भी मात्र 3 दिनों में हम जैसे सर्वसाधनसंपन्न देश की सुरक्षा को खतरे में डाल सकता हैऔर यह भी कि लोकतांत्रिक अधिकारों से देश मजबूत नहीं बल्कि कमजोर होता है. अगर सर्वोच्च न्यायपालिका को अपने नमक का कर्ज उतारना हो तो उसे इस अवधारणा का स्वत: संज्ञान लेना चाहिए.         

सारे चैनल कह रहे थेसारे अखबार भयानक उबाऊ एकरसता से लिख रहे थेप्रधानमंत्री भी बोल रहे थे और उसकी प्रतिध्वनि सारे मंत्रियों के भीतर से भी उठ रही थी कि हमने जवाब दे दिया- 26 निरपराध भारतीयों की हत्या का जवाब हमने दे दिया ! कैसे जवाब दिया 26 लाशों के बदले 100 लाशें गिरा कर यह किसी शांतिवादी या गांधी या बुद्ध वाले का तर्क नहीं हैसामान्य समझ की बात है कि बदला भले लिया हमने लेकिन जवाब तो कुछ भी नहीं बना. दोनों सरकारें नहीं बता रही हैं कि फौजी व नागरिक मिला कर कुल कितने लोग मारे गए लेकिन आपकी ही दी खबरेंआपके  ही दिखाए मंजर बताते हैं कि हमारी अचूक गोलाबारी तथा पाकिस्तान की जवाबी कार्रवाई में कई जानें गई हैंकाफी बर्बादी हुई है. सत्ता व संपन्नता के शिखर पर बैठे लोग एक ही बात बार-बार दोहराते हैं कि हमारे जांबाज जवानों ने… हमारी फौज की वीरता ने… वे हैं तो हम रात में चैन की नींद सो पाते हैं आदि-आदि. लेकिन जांबाज जवानों से अपनी जगह बदले की तैयारी कितनों की हैकोई बताता नहीं है. ट्विटर-फ़ेसबुक आदि ने बहादुरी की टके भर क़ीमत नहीं रहने दी है. जो यहां हो रहा हैवही पाकिस्तान में भी हो रहा है. पराजित आदमी की तरह ही पराजित मुल्क भी ज्यादा प्रगल्भ होता हैतो पाकिस्तान की यह मनोभूमिका हम समझते हैं. लेकिन अपनी मनोभूमिका पाकिस्तान जैसी क्यों होती जा रही है तो कहना होगा कि दोनों ने अपना-अपना जवाब दे दिया हैऔर खाली हो गए हैं. युद्ध के दरवाजे भी फ़िलहाल बंद हो गए हैं तो बात खत्म हो गई. अब कोई कहे कि किसने किसको जवाब दे दिया अपनी परंपरा व पौराणिकता की शेखी बघारने वालों को याद रखना चाहिए कि महाभारत के युद्ध के अंत में आ कर धर्मराज युधिष्ठिर का रथ भी धरा से आ लगा था और वे भी अपनी खाली हथेली देख कर यही पूछ रहे थे कि हाथ क्या आया 

मौत जिंदगी का जवाब नहीं हैवह तो जिंदगी का अंत है. जिंदगी है तो सवाल हैंऔर सवाल हैं तो उनका जवाब भी होगा जिन्हें हमें खोजना है. आज हम नहीं खोज सकेतो कोई बात नहीं. खोजते रहेंगे तो जवाब मिलेगा. हमारे बस में इतना ही है कि हम खोजने में ईमानदार हों. बुद्ध अनगिनत सालों पहले यही तो कह गए : तुम जैसा सोचते होवैसे ही बन जाते हो. इसलिए युद्ध भी लड़ें तो मानवीयता भूल कर नहींज्वर भी चढ़े तो युद्धोन्माद का नहींक्योंकि हमें किसी भी सूरत में न अमानवीय बनना हैन बनाना है. हमें वैसा देश नहीं बनाना हैहमें वैसा नागरिक नहीं बनना है जो नेवी के लेफ्टिनेंट विनय नरवाल की पत्नी हिमांशी के चरित्र पर इसलिए कीचड़ उछालता है कि उसने पहलगांव में आतंकवादियों द्वारा अपने पति की हत्या के बाद भी देश को देशी आतंकवादियों के हाथ सौंपने से मना कर दियामध्यप्रदेश के भाजपा मंत्री विजय शाह ने कर्नल सोफिया कुरैशी के बारे में जो अपमानजनक बातें कहीं वह ज़ुबान की फिसलन भर नहींउस खास मानसिकता का परिचायक है जिसके प्रधान व्याख्याता कपड़ों से अपने नागरिकों की पहचान की बात करते हैंयही लोग हैं जो हमारे आला विदेश सचिव विक्रम मिसरी पर इसलिए लांक्षन लगाते हैं कि उन्होंने युद्धविराम की खबर देते हुए शालीनता नहीं छोड़ी. उन्माद का राक्षस हमेशा इसी तरह भूखा होता है- “ उसे पानी नहीं भाता / सियासत ख़ून पीती है.” 

14 मई 2025)   

Monday, 28 April 2025

वक्फ एक नकली मुद्दा है

       वक्फ विवाद को अपनी मर्जी से हल करने के लिए बनाई गई संसदीय समिति की लंबी बैठकों में जो बात न कही जा सकी, न सुनी जा सकी, सुप्रीम कोर्ट ने वह सारा सुना भी, सरकार से टेढ़े-मेढ़े सवाल पूछे भी और फिर कहा कि इन सबका सरकारी जवाब आ जाए फिर हम अपनी बात कहेंगे. उसने सरकार को स्टैच्यू कर दिया है. सरकार अपने जवाबी हलफनामे में बहुत कर के भी इतना ही कह पा रही है कि वक्फ एमेंडमेंट एक्ट 2025 मजबूत संवैधानिक आधार पर खड़ा है. वह मजबूत संवैधानिक आधार क्या है, यह बात उसके जवाब में कहीं आई नहीं है. 

अदालत के रुख से कुपित सरकार के इशारे पर भारतीय जनता पार्टी के दो सांसदों ने हमारे चीफ जस्टिस संजीव खन्ना साहब को इसके पीछे का शैतानी दिमाग’ तथा गृहयुद्ध भड़काने वाला बता दिया. बात जो कहनी थीकह दी गईबात जहां पहुंचनी थीपहुंचा दी गई फिर पार्टी अध्यक्ष ने कहा कि हम इन सांसदों से नहींउनकी बातों से ख़ुद को अलग करते हैं. यह कुछ वैसा ही हुआ जैसे यह होता रहा है कि चोरी का माल घर में रख लिया और चोर को पिछले दरवाजे से भगा दिया. 

  कहना कठिन है कि अपने अंतिम फैसले में अदालत क्या रुख लेती है. अभी तक का अनुभव यही रहा है कि हमारी सर्वोच्च अदालत कहती कुछ है और लिखती कुछ है. हम अब तक यह भी नहीं समझ सके हैं कि चीफ जस्टिस यदि देश के भीतर चल रहे तमाम गृहयुद्धों के मास्टरमाइंड’ हैंतो वे अपने पद पर बने कैसे हैंऔर यदि ऐसा नहीं है तो सरकारी सांसद पर अदालत की अवमानना की कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है अरुंधती राय व निशिकांत दुबे में अदालत इतना फर्क कैसे कर सकती है यह मुकदमा किस अदालत में पेश किया जाए ?  

अखबारों की मानें तो प्रधानमंत्री ने वक्फ बिल पारित होने के बाद अपनी पहली प्रतिक्रिया में कहा कि इस कानून के द्वारा उन्होंने कांग्रेस की चाल को नाकाम कर दिया है. क्या कांग्रेस की चालों को नाकाम करने के लिए कानून बनते या बदलते हैं क्या सिर्फ इस कारण से एक गैर-कानूनी कानून देश का कानून बन गया हमारा संविधान किसी भी सरकार को इसकी इजाजत नहीं देता है कि उसका कोई भी कानून या कदम ऐसा हो कि जो इस देश के नागरिकों के बीच भेद करता हो. 

आज यदि देश का कुछ उधार है सरकारों पर तो एक ऐसी तरमीम उधार है जो किसी भी स्तर परकिसी भी तरह का कानूनी भेद-भाव यदि कहीं बचा हो तो उसे भी समाप्त करे. वक्फ भेद-भाव का ऐसा कोई मुद्दा है ही नहीं. बिलाशक वक्फ की आड़ में बहुत कुछ नाजायज व मनमाना होता रहा है. उसे रोका जाए व किसी कानूनी प्रक्रिया के तहत उसे नियंत्रित किया जाएइसकी जरूरत थी भीऔर है भी. लेकिन ऐसा कुछ करने से पहले यह भी तो देखा जाए कि क्या हर धर्म के अपने-अपने वक्फ नहीं हैं आप उन सबका क्या करने वाले हैं हर धर्मसत्ता ने अपने वक्त की अनुकूल राजसत्ता से सांठ-गांठ करके अपने लिए विशेष सुविधाएं हासिल की हैं. जमीनें हैंदान-चढ़ावा पर एकाधिकार हैट्रस्ट आदि की सुविधाजनक व्यवस्थाएं हैंधार्मिक शिक्षा के नाम पर अपने धर्म के प्रचार की सहूलियतें हैंविभिन्न पर्दों की आड़ में धर्म-परिवर्तन का चलन हैरवायतों के नाम पर ऐसी सामाजिक प्रथाओं को जारी रखने की चालाकी है जो लिंगभेद पर आधारित हैं आदि-आदि. सारे धर्म-संगठन निरपवाद रूप से एक-दूसरे के प्रति नफरत फैलाते हैं. ये सब लोकतंत्र का विकास ही रुद्ध नहीं कर रहीं बल्कि उसे विकृत भी बनाती जा रही हैं.  

जब हमने संविधान बनाया था तब हमारा लोकतंत्र बहुत कच्चा था. बड़े अभागे दौर से गुजरते हुए हम अपनी आजादी तक पहुंचे थे. नेतृत्व नया भी था व बंटा हुआ भी था. एक गांधी थे कि जिनमें इतना आत्मबल था कि वे कैसी भी बाजी पलट सकते थे लेकिन आजादी पाते ही हमने सबसे पहले उनसे ही आजादी पा ली. वे क्या गए कि हमने अपना कंपास ही खो दिया. 

अंग्रेजों ने देश को खोखला कर छोड़ा था तो विभाजन ने प्रशासन को छिन्न-भिन्न कर डाला था. उस वक्त एक ही प्राथमिकता थी : देश की एकता व संप्रभुता को अक्षुण्ण रखा जाए ! जरूरत थी कि देश के हर नागरिक व समुदाय को स्वांत्वना दी जाएसबमें भरोसा पैदा होनयी लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति किसी समुदाय के मन में नाहक शंका न बने. बहुत कुछ था जो तब दांव पर लगा थाइसलिए बहुत कुछ था कि जिनकी अनदेखी जरूरी थी. हमारे तब के प्रौढ़ नेतृत्व ने बहुत सारी बातें कबूल कर लीं और कदम-दर-कदम देश को उस अभागे दौरे से निकाल लाए. वह सब पीछे छोड़ कर हम अब दूर निकल आए हैं. 

हम दूर निकल आए हैंइसका मतलब यह नहीं है कि हम मनमाना कर सकते हैं. इसका मतलब इतना ही है कि अब हम संवैधानिक समता व एकता को मजबूत करने की दिशा में कुछ नये कदम उठा सकते हैं. इसके लिए हमारे पास एक नायाब औजार भी है जिसे संविधान कहते हैं. संविधान हमें यह नहीं बताता है कि हमें नया क्या करना हैवह बताता है कि हमें जो भी करना हैवह कैसे करना है. हमें संगठित धर्मों के एकाधिकार को ढीला करना हैहमें धर्म व परंपरा के नाम पर जारी सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करना हैहमें राज्य का धर्मनिरपेक्ष चरित्र मजबूत भी करना है व उजागर भी करना हैहमें आर्थिक विपन्नताअमानवीय विषमता तथा अकल्पनीय शोषण को रोकना है. हमें राज्य को उसकी संवैधानिक मर्यादा बतानी भी है. 

इतना कुछ है जो अब हम कर सकते हैंहमें करना चाहिए. लेकिन यहां भी दो सवाल हैं जिनका सामना हमें करना है. पहला यह कि जो यह करना चाहते हैंक्या उनकी मंशा साफ है मंशा का सवाल हमारी बनाई या कही बातों पर निर्भर नहीं करता है बल्कि समय उसकी गवाही देता है. हमारा इतिहास व हमारा वर्तमान बताता है कि जो धर्मसंस्कृति व परंपरा के आधार पर भारतीय समाज में भेद-भाव करते रहे हैंउन्होंने उसका एक सिद्धांत गढ़ रखा है. वे  घृणाकठमुल्लापनअवैज्ञानिक अवधारणाओं को हथियार की तरह बरतते हैं. ऐसे सारे लोग इस नई शुरुआत के पात्र नहीं हैं. जिनके वर्तमान पर देश को भरोसा नहीं हैउनके हाथ में कोई अपना भविष्य कैसे सौंप सकता है इसलिए हमें वह पात्रता अर्जित करनी होगी जो सत्ता की कुर्सी अर्जित करने से नहीं मिलती है. दूसरा सवाल यह है कि क्या आप भारतीय समाज से वैसे परिवर्तनों के लिए सहमति प्राप्त कर सकते हैं जिन्हें आप ख़ुद पर लागू नहीं करते हैं 

वक्फ की मर्यादा तय करनी ही चाहिए लेकिन उसी के साथउसी सांस में यह भी करना चाहिए कि हिंदू धर्म संस्थानों कीचर्चों व गुरुद्वारों कीआतशबहेरामों की मर्यादा भी तय हो. आज के हिंदुस्तान में कोई भी मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारा-गिरिजा-आतशबहेराम यह कैसे घोषणा कर सकता है कि उसके यहां दूसरे धर्मों का प्रवेश वर्जित है 75 से अधिक सालों से साथ रहने वाले हम लोग क्या सहजीवन का इतना शील भी नहीं सीख पाए हैं अगर संविधान व सहजीवन की इतनी लंबी संगत में हम यह पूरी तरह नहीं सीख पाए हैं तो अब संवैधानिक पहल व सरकारी निर्देश की मदद लेनी पड़ेगी. आज के हिंदुस्तान में कोई भी धर्म संस्थानशिक्षा संस्थान ऐसा नहीं हो सकता है जो अपने लोगों को भारतीय समाज की विविधता काभारतीय सामाजिक बुनावट काहमारे पर्व-त्योहारों काहमारी संवैधानिक व्यवस्थाओं काहमारे राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान करना न सिखाए. मदरसों का लोकतांत्रिक मिजाज बनाना जितना जरूरी हैउतना ही जरूरी है सरस्वती शिशु मंदिर सरीखे संस्थानों का लोकतांत्रिक मिजाज बनाना. यह किसी के खिलाफ नहींसबके हित में संविधानसम्मत पहल होगी. सांप्रदायिक राजनीति से यह काम करेंगे तो आप समाज को ज्यादा प्रतिगामीकठमुल्ला तथा हिंसक बना देंगे. तो रास्ता गांधी का ही पकड़ना होगा कि संवेदना के साथ व्यापक सामाजिक संवादलोक-शिक्षण व लोक-संगठन का अभियान चलाना होगा. किसी धर्मकिसी वर्गकिसी दल को निशाने पर लेंगे तो आप अपने समाज की संरचना पर घात करेंगे. चुनावी गणित से यह काम करेंगे तो कुर्सी भले वक्ती तौर पर आपके हाथ आ जाएदेश अंतिम तौर पर आपके हाथ से निकल जाएगा. 

वक्फ के मामले पर विचार करते वक्त सर्वोच्च न्यायालय ख़ुद भी संविधान की कसौटी पर है. हमारा संवैधानिक इतिहास बताता है कि सर्वोच्च न्यायालय हमेशा इस कसौटी पर खरा नहीं उतरा है. आप संविधान की शाश्वत मालिक जनता से पूछेंगे तो अपार बहुमत से आपको यही जवाब मिलेगा कि आपातकाल का संदर्भ तो है हीसर्वोच्च न्यायालय उससे पहले भी और उसके बाद भी संविधान को समझने व उसकी रक्षा करने में बारहा विफल होता आया है. कारण यह है कि उसने संविधान से इतर कारणों को अपने निर्णय का आधार बनाया है. हमारे एक न्यायाधीश महाशय ने तो यह भी कहा है कि वे भगवान से पूछ कर फैसला करते थे !  जिसका भगवान ही संविधान हैउसे किसी दूसरे भगवान के पास जाने की जरूरत ही कैसे पड़ी जब न्यायाधीश भगवान से फैसला पूछने लगते हैं तब राजनीति कपड़ों से अपने नागरिक पहचानने लगती है. इसलिए न्यायपालिका से जुड़े हर व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि संविधान के बाहर जो हैवह न तो उसका क्षेत्र हैन उसकी संवैधानिक भूमिका है. 

राहुल गांधी इतिहास कैसे पढ़ें व उससे क्या निष्कर्ष निकालेंयह तय करना अदालत की संवैधानिक भूमिका है ही नहीं. अदालत को इतना ही देखने व जांचने का अधिकार है कि राहुल गांधी को अपनी तरह से इतिहास पढ़ने व अपना नजरिया बनाने का अधिकार है या नहींऔर यह भी कि ऐसा करते हुए राहुल गांधी किसी का अपमान या किसी को अपशब्द तो नहीं कह रहे ऐसा हो तो अदालत को राहुल गांधी को पकड़ना चाहिए लेकिन अदालत को यह अधिकार कहां से मिला कि वह राहुल गांधी को धमकाए कि वह सावरकर को खारिज नहीं करें अन्यथा हम उन्हें अदालत में खींचेंगे ?

वक्फ का पिटारा खुला है तो यह सब उसके भीतर से निकल रहा है. सर्वोच्च न्यायालय को इन सबको समेट कर वह फैसला करना है जिसका इंतजार यह देश कर रहा है. ( 27.04.2025 )

Wednesday, 12 March 2025

इतिहास के औरंगजेब

इतिहास तीन ही काम करता है - दर्ज करता हैभूलता है और आगे चलता है ! जो लोगसमुदाय या देश ऐसा नहीं कर पाते हैंवे खुद की तरह ही इतिहास को भी कूड़ाघर बना डालते हैं. हमारा देश आज ऐसा ही कूड़ाघर बनता जा रहा है. चरित्रत: इतिहास न सहृदय होता हैन क्रूरन किसी के पक्ष में झुका होता हैन किसी की तरफ़ तना होता है. वह सिर्फ होता है ताकि हम उसके आईने में अपनी बीती सूरतें देख करअपनी आज की सूरत सजा व संवार सकें. हम यह कर्तव्य जितनी शिद्दत से निभा पाते हैंइतिहास हमारे भविष्य को वैसा ही आकार देता है. मतलबइतिहास भूत-वर्तमान-भविष्य के तिहरे धागे से हमें जोड़ने वाली वह जीवंत शक्ति है जिसे हम पहचानने में अक्सर चूक जाते हैं.

इतिहास की त्रासदी यह है कि यह बनता है कितनी ही जानी-अनजानी ताकतों के सम्मिलित प्रभाव व प्रवाह से लेकिन हमेशा लिखा जाता है किसी एक आदमी की समझ व आकलन से. यह अत्यंत खतरनाक बात है. इसलिए इतिहास कभी एक स्रोत से न तो पढ़ा जाना चाहिएन समझा जाना चाहिए. इतिहास के हर अध्येता के लिए जरूरी है गंभीर तटस्थताखोज करने की बालसुलभ व्यापक उत्सुकता तथा उद्देश्य के बारे में साफ समझ. यह न हो तो आप इतिहास के अध्येता या जानकार न हो कर इतिहास के विदूषक बन कर रह जाते हैं. हमारे यहां पिछले दसेक वर्षों में कुकुरमुत्तों की तरह इतिहासकारों की जो फसल पैदा हुई हैवह विदूषकों को भी शर्माने की कूवत रखती है. इनमें से कई नया इतिहास लिख रहे हैं तो कई ऐतिहासिक फिल्में बना रहे हैं. सच यह है कि ये दोनों अपना व्यवसाय कर रहे हैं. 

इतिहास के इस बाज़ार में सबसे ताजा व्यापारी बन कर उतरे हैं दिनेश विजयन ! उनकी फिल्म छावा’ बक़ौल प्रधानमंत्री छा गई है. छावा’ के निर्देशक हैं लक्ष्मण उत्तेकर. मराठी कथा-लेखक शिवाजी सावंत की इसी नाम की किताबइस फिल्म का आधार हैऐसा निर्देशक का दावा है. बताया जा रहा है कि छावा’ ने भी वैसी ही कमाई की है जैसी तरह-तरह की फाइलों के नाम से बनी फिल्मों ने की है. अभी तक यह खबर कहीं देखी तो नहीं है कि प्रधानमंत्री अपने पूरे मंत्रिमंडल के साथ छावा’ देखने बैठे. वैसे यह जरूरी हैक्योंकि प्रधानमंत्री ऐसी फिल्मों से ही अपना इतिहास जान पाते हैं. उन्होंने ही तो देश को बताया था कि जब तक रिचर्ड एटनबरो ने गांधी’ फिल्म नहीं बनाई थीतब तक दुनिया गांधी को जानती नहीं थी. यह सच है या नहींइसकी बहस हम करते रहें लेकिन प्रधानमंत्री के लिए यह बिल्कुल सच हैयह हमें मान लेना चाहिए. 

हम अब छावा’ और औरंगजेब-विवाद की ओर आते हैं. 1526 में मुगल साम्राज्य बाबर के साथ शुरू होता है और अकबरजहांगीरशाहजहां से होता हुआ औरंगजेब के हाथ आता है. हम देखते हैं कि बाबर से शाहजहां तक मुगल साम्राज्य अपेक्षाकृत सहजता से पिता से पुत्र तक पहुंचता रहा है लेकिन शाहजहां के वक्त इसमें पहली बार बड़ा व्यवधान पड़ता है. जैसी राजतंत्र की रवायत थीशाहजहां अपने बड़े बेटे दाराशिकोह को राजगद्दी सौंपना चाहते हैं. लेकिन दूसरे नंबर के बेटे औरंगजेब को यह गंवारा नहीं है. उसे लगता है कि वह गद्दी का असली व सबसे योग्य अधिकारी है. वह असहमत पिता से बगावत करता हैदाराशिकोह को युद्द के मैदान में परास्त करता है और फिेर उसकी हत्या करपिता शाहजहां को मृत्यु तक के लिए जेल में डाल कर गद्दी पर कब्जा करता है. छावा’ जैसी फिल्म व दूसरे माध्यमों सेसरकारी समर्थन व प्रोत्साहन से यह प्रचारित करने की घुआंधार कोशिश की जा रही है कि औरंगजेब मदांधक्रूरधर्मांध तथा कई दूसरे कुटैवों का सिरमौर था. मेरे लिए यह समझना असंभव की हद तक कठिन है कि यदि औरंगजेब ऐसा था तो उससे कौन-सा ऐसा रहस्योद्घाटन होता है जिससे हमें आज अपना जीवन जीने या अपना देश चलाने में मदद मिलेगी मैं ऐसा कहता हूं तो सामने से तपाक से एक ‘ असली इतिहासकार’ बोल उठता है : “ तो आपको इतिहास की सच्चाई जानने-बताने में कोई दिलचस्पी नहीं है ? … अगर ऐसा है तो आपसे क्या बात की जाए… आप इतिहासकार ही नहीं हैं.”  

मैं पूरी विनम्रता व दृढ़ता से कहता हूंकहना चाहता हूं कि मैं वैसा इतिहासकार नहीं हूं जिसकी रोजी-रोटी सत्ताधीशों की भृकुटि से मिलती या छिनती है. ऐसा इतिहास उन्हें ही मुबारक हो जिनका जीवन-व्यापार इसी से चलता है. मैं उस इतिहास को खोलता-पढ़ता-समझता व समझाता हूं जो बताता है कि मेरा देश व मेरी दुनिया की ऐसी शक्ल-ओ-सूरत बनाने वाले प्रवाह कौन-कौन-से रहे हैंवे कब व कैसे बने और उनसे हम क्या सीखें कि आज से बेहतर देश व दुनिया बना सकें. समय की इस आंधी में सूखे पत्तों जैसे उड़ते-गिरते अनेक पात्र भी आते ही हैं. वे अपने वक्त के आका नहीं होतेअधिकांश: उसके शिकार होते हैं. इतिहास पर इससे ज्यादा उनका प्रभाव होता नहीं है. मैं जानना चाहता हूंऔर अपने समाज को बताना चाहता हूं कि औरंगजेब से पहले जो मुगल राजा हुए वे सब भी उतनी ही मनमानी करने वाले दमनकारी थे. कोई भी सत्ता बगैर दमन व कठोरता के न चलती हैन टिकती है. 

मैं उसे बताना चाहता हूं कि बाबर से अकबर ( 1526-1605) के बीच के 79 वर्षों में यदि भारत में एक ऐसा बड़ा साम्राज्य खड़ा हुआ जैसा देश ने इससे पहले कभी देखा नहीं थातो वह वैसे ही खड़ा तो नहीं हुआ होगा. साम-दाम-दंड-भेद सबका का पूरा इस्तेमाल हुआ होगाहत्याएं करवाई गई होंगीषडयंत्र रचे गए होंगेविभीषणों को पाला-पोसा गया होगा. नवरत्न बना कर उनकी वफादारी सुनिश्चित की गई होगी. राज्य के हित व विस्तार के लिए रोटी-बेटी के संबंध बनाए गए होंगे. तब कोई भी साम्राज्य बनाने-टिकाने के लिए यह सब करना जरूरी होता थासहज माना जाता था. आज अपनी सरकार बनाने-चलाने-टिकाने के लिए यही सारे मोहरे नहीं चले जाते हैं क्या फिर औरंगजेब का इतना जाप क्यों हो रहा है यह क्यों नहीं बताते हैं कि आरंगजेब से पहले क जहांगीर भी था जिसने सिख गुरु अर्जनदेव को मरवाया था. यह भी तो याद रखें हम कि अकबर ने अपने ही बेटे को काबू में करने के लिए हर हिंसक उपाय किए थे. उसने बेटे के समर्थक सरदारों को मरवाया नहीं था अनारकली की कहानी फिल्मी है कि सच्चीइस पर थोड़ा विवाद है लेकिन इस पर भी कोई विवाद कर सकता है क्या कि राजमहल के भीतर ऐसी कितनी की लड़कियों की जिंदगी दफ्न होती रही है ताकि साम्राज्य निष्कलंक चलता रहे 

औरंगजेब ने ज्यादा क्रूरता व संकीर्णता से अपना राज चलायाक्योंकि उसे राज आसानी से मिला नहीं था. शाहजहां से उसके सर पर साम्राज्य का मुकुट नहीं धरा थाउसने कितने ही सर काट करपिता को कारावास में धकेल कर मुकुट छीन लिया था. जो छीन कर मिलता हैवह ज्यादा असुरक्षित होता है. उस पर ज्यादा गिद्ध-दृष्टि लगी होती है. इसलिए औरंगजेब को हर वक्त चौकन्ना रहना पड़ता हैऔर कहीं से छाया भी उठे तो उसका सर कलम करने की तैयारी रखनी पड़ती है.  वह छाया हिंदू की है कि मुसलमान की कि किसी दूसरे मतवाद वाले कीयह देखने का अवकाश भी उसके पास नहीं है. लेकिन दूसरे सम्राटों की तरह औरंगजेब को पता है सबको साथ भी रखना जरूरी है. इसलिए उसने भी मंदिरों को दान दिया हैविद्वानों का सम्मान किया हैहिंदू शासकों से समझौते किए हैं. उसके दरबार में बड़ी संख्या में हिंदू अधिकारी व सिपहसालार हैं. सवाई राजा जयसिंह को भूल जाएं आप तो इतिहास का क्या होगा भाई ! और यही जयसिंह हैं जो संभाजी को शरण भी देते हैं. संभाजी को धोखे से कैदी बनवाने वाले कौन हिंदू सिपहसालार थेयह भी याद कीजिए. संभाजी की हत्या के बाद संभाजी का अबोध बेटा साहूजी महाराज किसके यहां पलाऔरंगजेब के यहां ! इस तरह उसकी परवरिश हुई कि औरंगजेब की मृ्त्यु के बाद वह नंगे पांव उनकी कब्र पर जाता रहा. यह सब भी तो इतिहास ही है न! इसे हम नहीं पढ़ें क्या फिर इतिहास पढ़ें ही क्यों ?  

औरंगजेब में जिनकी इतनी दिलचस्पी हैवे अशोक का अध्ययन क्यों नहीं करते वह तो चंडाशोक’ कहलाता था. कहते हैं कि कलिंग-युद्ध से पहले तक उसे अपनी तलवार सूखी देखना बहुत नागवार होता था. वह अपने अनगिनत भाइयों को मरवा कर राजा बना था. राजशाही के इतिहास में भाई सबसे बड़ा खतरा होता था. वह हर तरह से बराबरी की हैसियत रखता थाराज्य में उसके अपने लोग हुआ करते थे. वह हमेशा राज्य के उत्तराधिकारी के सर पर तलवार की तरह लटकता होता था. इसलिए अधिकांश सम्राटों ने अपने भाइयों को साफ़ करअपना रास्ता साफ़ किया है. और आज प्रधानमंत्रियों ने प्रधानमंत्री पद हथियाने के लिए अपनी पार्टी के भीतर कितना ग़दर मचाया हैइसका देश-दुनिया का इतिहास भी पढ़िएफिर क्रूरता आदि का फैसला कीजिए. 

इतिहास ही हमें बताता है कि क्रूरता व वीरता के बीच रत्ती-मासे का फर्क होता है. यह भी होता है कि एक के लिए जो क्रूरता हैदूसरे के लिए वही वीरता है. इसलिए इतिहास तटस्थता की मांग भी करता है और विवेक की भी. उसकी नक़ल करनाउसके प्रेत से लड़नातब का बदला आज चुकाना जहरीली अभद्रता हैअश्लीलता हैसांप्रदायिकता है. यह आदमी को वहशी बनाती हैसमाज को तोड़ती हैराष्ट्रों को धूल में मिला देती है. हम अपना 1947 याद रखें जब हमने अपना ही मुल्क धूल-धूल कर लिया था. उस इतिहास के खलनायकों को खोजिए व पढ़िए ! 

इतिहास सावधान करता है:  देखोमुझे समझे बग़ैर पढ़ते-लिखते-आंकते होप्रचारित व प्रसारित करते हो तो तुम भी औरंगजेब होक्योंकि हम सबके भीतर औरंगजेब नाम का एक सांप पलता है. उसे दूध पिलाना अपने अंतर्मन को जहर से भरना है. इसलिए मैंने जो दर्ज किया हैउसे जरूरी हो तो पढ़ोपढ़ो तो गहराई से समझोऔर समझो तो यह समझो कि आज इससे आगे चलने में क्या मदद मिलती है. आज के भारत राष्ट्र को समेट-संभाल कर आगे ले चलने में छावा’ मदद नहीं करती हैक्योंकि यह इतिहास का व्यापार करती हैइतिहास समझाती नहीं है. ( 11.03.2025)