Wednesday, 12 March 2025

इतिहास के औरंगजेब

इतिहास तीन ही काम करता है - दर्ज करता हैभूलता है और आगे चलता है ! जो लोगसमुदाय या देश ऐसा नहीं कर पाते हैंवे खुद की तरह ही इतिहास को भी कूड़ाघर बना डालते हैं. हमारा देश आज ऐसा ही कूड़ाघर बनता जा रहा है. चरित्रत: इतिहास न सहृदय होता हैन क्रूरन किसी के पक्ष में झुका होता हैन किसी की तरफ़ तना होता है. वह सिर्फ होता है ताकि हम उसके आईने में अपनी बीती सूरतें देख करअपनी आज की सूरत सजा व संवार सकें. हम यह कर्तव्य जितनी शिद्दत से निभा पाते हैंइतिहास हमारे भविष्य को वैसा ही आकार देता है. मतलबइतिहास भूत-वर्तमान-भविष्य के तिहरे धागे से हमें जोड़ने वाली वह जीवंत शक्ति है जिसे हम पहचानने में अक्सर चूक जाते हैं.

इतिहास की त्रासदी यह है कि यह बनता है कितनी ही जानी-अनजानी ताकतों के सम्मिलित प्रभाव व प्रवाह से लेकिन हमेशा लिखा जाता है किसी एक आदमी की समझ व आकलन से. यह अत्यंत खतरनाक बात है. इसलिए इतिहास कभी एक स्रोत से न तो पढ़ा जाना चाहिएन समझा जाना चाहिए. इतिहास के हर अध्येता के लिए जरूरी है गंभीर तटस्थताखोज करने की बालसुलभ व्यापक उत्सुकता तथा उद्देश्य के बारे में साफ समझ. यह न हो तो आप इतिहास के अध्येता या जानकार न हो कर इतिहास के विदूषक बन कर रह जाते हैं. हमारे यहां पिछले दसेक वर्षों में कुकुरमुत्तों की तरह इतिहासकारों की जो फसल पैदा हुई हैवह विदूषकों को भी शर्माने की कूवत रखती है. इनमें से कई नया इतिहास लिख रहे हैं तो कई ऐतिहासिक फिल्में बना रहे हैं. सच यह है कि ये दोनों अपना व्यवसाय कर रहे हैं. 

इतिहास के इस बाज़ार में सबसे ताजा व्यापारी बन कर उतरे हैं दिनेश विजयन ! उनकी फिल्म छावा’ बक़ौल प्रधानमंत्री छा गई है. छावा’ के निर्देशक हैं लक्ष्मण उत्तेकर. मराठी कथा-लेखक शिवाजी सावंत की इसी नाम की किताबइस फिल्म का आधार हैऐसा निर्देशक का दावा है. बताया जा रहा है कि छावा’ ने भी वैसी ही कमाई की है जैसी तरह-तरह की फाइलों के नाम से बनी फिल्मों ने की है. अभी तक यह खबर कहीं देखी तो नहीं है कि प्रधानमंत्री अपने पूरे मंत्रिमंडल के साथ छावा’ देखने बैठे. वैसे यह जरूरी हैक्योंकि प्रधानमंत्री ऐसी फिल्मों से ही अपना इतिहास जान पाते हैं. उन्होंने ही तो देश को बताया था कि जब तक रिचर्ड एटनबरो ने गांधी’ फिल्म नहीं बनाई थीतब तक दुनिया गांधी को जानती नहीं थी. यह सच है या नहींइसकी बहस हम करते रहें लेकिन प्रधानमंत्री के लिए यह बिल्कुल सच हैयह हमें मान लेना चाहिए. 

हम अब छावा’ और औरंगजेब-विवाद की ओर आते हैं. 1526 में मुगल साम्राज्य बाबर के साथ शुरू होता है और अकबरजहांगीरशाहजहां से होता हुआ औरंगजेब के हाथ आता है. हम देखते हैं कि बाबर से शाहजहां तक मुगल साम्राज्य अपेक्षाकृत सहजता से पिता से पुत्र तक पहुंचता रहा है लेकिन शाहजहां के वक्त इसमें पहली बार बड़ा व्यवधान पड़ता है. जैसी राजतंत्र की रवायत थीशाहजहां अपने बड़े बेटे दाराशिकोह को राजगद्दी सौंपना चाहते हैं. लेकिन दूसरे नंबर के बेटे औरंगजेब को यह गंवारा नहीं है. उसे लगता है कि वह गद्दी का असली व सबसे योग्य अधिकारी है. वह असहमत पिता से बगावत करता हैदाराशिकोह को युद्द के मैदान में परास्त करता है और फिेर उसकी हत्या करपिता शाहजहां को मृत्यु तक के लिए जेल में डाल कर गद्दी पर कब्जा करता है. छावा’ जैसी फिल्म व दूसरे माध्यमों सेसरकारी समर्थन व प्रोत्साहन से यह प्रचारित करने की घुआंधार कोशिश की जा रही है कि औरंगजेब मदांधक्रूरधर्मांध तथा कई दूसरे कुटैवों का सिरमौर था. मेरे लिए यह समझना असंभव की हद तक कठिन है कि यदि औरंगजेब ऐसा था तो उससे कौन-सा ऐसा रहस्योद्घाटन होता है जिससे हमें आज अपना जीवन जीने या अपना देश चलाने में मदद मिलेगी मैं ऐसा कहता हूं तो सामने से तपाक से एक ‘ असली इतिहासकार’ बोल उठता है : “ तो आपको इतिहास की सच्चाई जानने-बताने में कोई दिलचस्पी नहीं है ? … अगर ऐसा है तो आपसे क्या बात की जाए… आप इतिहासकार ही नहीं हैं.”  

मैं पूरी विनम्रता व दृढ़ता से कहता हूंकहना चाहता हूं कि मैं वैसा इतिहासकार नहीं हूं जिसकी रोजी-रोटी सत्ताधीशों की भृकुटि से मिलती या छिनती है. ऐसा इतिहास उन्हें ही मुबारक हो जिनका जीवन-व्यापार इसी से चलता है. मैं उस इतिहास को खोलता-पढ़ता-समझता व समझाता हूं जो बताता है कि मेरा देश व मेरी दुनिया की ऐसी शक्ल-ओ-सूरत बनाने वाले प्रवाह कौन-कौन-से रहे हैंवे कब व कैसे बने और उनसे हम क्या सीखें कि आज से बेहतर देश व दुनिया बना सकें. समय की इस आंधी में सूखे पत्तों जैसे उड़ते-गिरते अनेक पात्र भी आते ही हैं. वे अपने वक्त के आका नहीं होतेअधिकांश: उसके शिकार होते हैं. इतिहास पर इससे ज्यादा उनका प्रभाव होता नहीं है. मैं जानना चाहता हूंऔर अपने समाज को बताना चाहता हूं कि औरंगजेब से पहले जो मुगल राजा हुए वे सब भी उतनी ही मनमानी करने वाले दमनकारी थे. कोई भी सत्ता बगैर दमन व कठोरता के न चलती हैन टिकती है. 

मैं उसे बताना चाहता हूं कि बाबर से अकबर ( 1526-1605) के बीच के 79 वर्षों में यदि भारत में एक ऐसा बड़ा साम्राज्य खड़ा हुआ जैसा देश ने इससे पहले कभी देखा नहीं थातो वह वैसे ही खड़ा तो नहीं हुआ होगा. साम-दाम-दंड-भेद सबका का पूरा इस्तेमाल हुआ होगाहत्याएं करवाई गई होंगीषडयंत्र रचे गए होंगेविभीषणों को पाला-पोसा गया होगा. नवरत्न बना कर उनकी वफादारी सुनिश्चित की गई होगी. राज्य के हित व विस्तार के लिए रोटी-बेटी के संबंध बनाए गए होंगे. तब कोई भी साम्राज्य बनाने-टिकाने के लिए यह सब करना जरूरी होता थासहज माना जाता था. आज अपनी सरकार बनाने-चलाने-टिकाने के लिए यही सारे मोहरे नहीं चले जाते हैं क्या फिर औरंगजेब का इतना जाप क्यों हो रहा है यह क्यों नहीं बताते हैं कि आरंगजेब से पहले क जहांगीर भी था जिसने सिख गुरु अर्जनदेव को मरवाया था. यह भी तो याद रखें हम कि अकबर ने अपने ही बेटे को काबू में करने के लिए हर हिंसक उपाय किए थे. उसने बेटे के समर्थक सरदारों को मरवाया नहीं था अनारकली की कहानी फिल्मी है कि सच्चीइस पर थोड़ा विवाद है लेकिन इस पर भी कोई विवाद कर सकता है क्या कि राजमहल के भीतर ऐसी कितनी की लड़कियों की जिंदगी दफ्न होती रही है ताकि साम्राज्य निष्कलंक चलता रहे 

औरंगजेब ने ज्यादा क्रूरता व संकीर्णता से अपना राज चलायाक्योंकि उसे राज आसानी से मिला नहीं था. शाहजहां से उसके सर पर साम्राज्य का मुकुट नहीं धरा थाउसने कितने ही सर काट करपिता को कारावास में धकेल कर मुकुट छीन लिया था. जो छीन कर मिलता हैवह ज्यादा असुरक्षित होता है. उस पर ज्यादा गिद्ध-दृष्टि लगी होती है. इसलिए औरंगजेब को हर वक्त चौकन्ना रहना पड़ता हैऔर कहीं से छाया भी उठे तो उसका सर कलम करने की तैयारी रखनी पड़ती है.  वह छाया हिंदू की है कि मुसलमान की कि किसी दूसरे मतवाद वाले कीयह देखने का अवकाश भी उसके पास नहीं है. लेकिन दूसरे सम्राटों की तरह औरंगजेब को पता है सबको साथ भी रखना जरूरी है. इसलिए उसने भी मंदिरों को दान दिया हैविद्वानों का सम्मान किया हैहिंदू शासकों से समझौते किए हैं. उसके दरबार में बड़ी संख्या में हिंदू अधिकारी व सिपहसालार हैं. सवाई राजा जयसिंह को भूल जाएं आप तो इतिहास का क्या होगा भाई ! और यही जयसिंह हैं जो संभाजी को शरण भी देते हैं. संभाजी को धोखे से कैदी बनवाने वाले कौन हिंदू सिपहसालार थेयह भी याद कीजिए. संभाजी की हत्या के बाद संभाजी का अबोध बेटा साहूजी महाराज किसके यहां पलाऔरंगजेब के यहां ! इस तरह उसकी परवरिश हुई कि औरंगजेब की मृ्त्यु के बाद वह नंगे पांव उनकी कब्र पर जाता रहा. यह सब भी तो इतिहास ही है न! इसे हम नहीं पढ़ें क्या फिर इतिहास पढ़ें ही क्यों ?  

औरंगजेब में जिनकी इतनी दिलचस्पी हैवे अशोक का अध्ययन क्यों नहीं करते वह तो चंडाशोक’ कहलाता था. कहते हैं कि कलिंग-युद्ध से पहले तक उसे अपनी तलवार सूखी देखना बहुत नागवार होता था. वह अपने अनगिनत भाइयों को मरवा कर राजा बना था. राजशाही के इतिहास में भाई सबसे बड़ा खतरा होता था. वह हर तरह से बराबरी की हैसियत रखता थाराज्य में उसके अपने लोग हुआ करते थे. वह हमेशा राज्य के उत्तराधिकारी के सर पर तलवार की तरह लटकता होता था. इसलिए अधिकांश सम्राटों ने अपने भाइयों को साफ़ करअपना रास्ता साफ़ किया है. और आज प्रधानमंत्रियों ने प्रधानमंत्री पद हथियाने के लिए अपनी पार्टी के भीतर कितना ग़दर मचाया हैइसका देश-दुनिया का इतिहास भी पढ़िएफिर क्रूरता आदि का फैसला कीजिए. 

इतिहास ही हमें बताता है कि क्रूरता व वीरता के बीच रत्ती-मासे का फर्क होता है. यह भी होता है कि एक के लिए जो क्रूरता हैदूसरे के लिए वही वीरता है. इसलिए इतिहास तटस्थता की मांग भी करता है और विवेक की भी. उसकी नक़ल करनाउसके प्रेत से लड़नातब का बदला आज चुकाना जहरीली अभद्रता हैअश्लीलता हैसांप्रदायिकता है. यह आदमी को वहशी बनाती हैसमाज को तोड़ती हैराष्ट्रों को धूल में मिला देती है. हम अपना 1947 याद रखें जब हमने अपना ही मुल्क धूल-धूल कर लिया था. उस इतिहास के खलनायकों को खोजिए व पढ़िए ! 

इतिहास सावधान करता है:  देखोमुझे समझे बग़ैर पढ़ते-लिखते-आंकते होप्रचारित व प्रसारित करते हो तो तुम भी औरंगजेब होक्योंकि हम सबके भीतर औरंगजेब नाम का एक सांप पलता है. उसे दूध पिलाना अपने अंतर्मन को जहर से भरना है. इसलिए मैंने जो दर्ज किया हैउसे जरूरी हो तो पढ़ोपढ़ो तो गहराई से समझोऔर समझो तो यह समझो कि आज इससे आगे चलने में क्या मदद मिलती है. आज के भारत राष्ट्र को समेट-संभाल कर आगे ले चलने में छावा’ मदद नहीं करती हैक्योंकि यह इतिहास का व्यापार करती हैइतिहास समझाती नहीं है. ( 11.03.2025)

Saturday, 1 March 2025

बन गया विश्वगुरू क्लब !

अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच कोई इस तरह आ खड़ा होगा, न हमने सोचा था, न इन दोनों ने. लेकिन फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल जं-मीशेल फ्रेडरिक मैक्रों ने ऐसा ही किया. इसलिए मैं चाहता हूं कि भारत की तरफ से उन्हें महावीर चक्र प्रदान किया जाना चाहिए. मैं नहीं कह रहा हूं  भारत सरकार की तरफ़ से”, क्योंकि मैं जानता हूं कि भारत सरकार में ऐसी कूवत नहीं है. देश व सरकार में फर्क होता है; है.

राष्ट्रपति बनते ही अंतरराष्ट्रीय राजनीति में जैसी बेसिर-पैर की आंधी बहा रहे हैं डोनल्ड ट्रंपउसकी हवा जिस तरह मैक्रों ने निकाली है वैसी न किसी ने अब तक निकाली हैन ट्रंप ने कभी ऐसा सोचा ही होगा. उस दिन व्हाइट हाउस मेंदोनों राष्ट्रपति साथ बैठ कर प्रेस को संबोधित कर रहे थे और ट्रंप बगैर हिचक के वह सब अनाप-शनाप कहे जा रहे थे जैसा उनके अलावा दूसरा कोई बोल नहीं सकता है. वे कह रहे थे कि यूक्रेन की जैसी सहायता अमरीका ने की हैवैसी यूरोप ने नहीं की. यूरोप ने तो इधर-उधर कुछ दिया भर ! वे अपनी सनक में और कुछ बोलते कि उनकी बगल में बैठे मैक्रों ने उनके कंधे पर हाथ रख कर उन्हें रोका: ‘ आपके पास गलत जानकारी है. मैं सही जानकारी देता हूं. अमरीका ने यूक्रेन को जो भी सहायता दी है वह सब शर्तों से बंधीसौदे व कर्जे के रूप में है. यूरोप ने पिछले दो वर्षों में  यूक्रेन की हर संभव मदद बेशर्त की हैऔर आज भी हम यूक्रेन के प्रति प्रतिबद्ध हैं !’ सारी दुनिया ने यह सुनासारी दुनिया ने यह देखा. हतप्रभ ट्रंप बगलें झांकने लगे. 

ट्रंप ने जब कहा कि युद्ध के खर्च की भरपाई यूक्रेन को करनी होगीतो मैक्रों ने फिर दखल दी और कहा: ‘ हमलावर तो रूस है. भरपाई उसे करनी होगी.’ यूक्रेन का क्या होगाट्रंप उसे कहां तक निचोड़ेंगेयह सब वक्त ही बताएगा लेकिन मैक्रों ने व्हाइट हाउस मेंट्रंप के बगल में बैठ कर उनकी पोल जिस तरह खोलीउसके लिए उन्हें महावीर चक्र मिलना ही चाहिए. 

अमरीका इन दिनों सब दूर छाया हुआ है. यही तो ट्रंप का वादा भी था. कोई जादूगर जैसे हैट से खरगोश निकाल देता हैऔर यह जानते हुए भी कि यह खरगोश हैट से नहींहैट के पीछे छिपे हाथ की सफ़ाई से निकला हैहम हैरान रह जाते हैंठीक वैसे ही ट्रंप के खरगोश लगातार बाहर आ रहे हैं और उनकी सच्चाई जानते हुए भी कभी हमतो कभी वो हैरान रह जाते हैं. मुझे पता नहीं है कि ट्रंप साहब ने यह कला अपने दोस्त’ से सीखी है या दोस्त ने उनसे लेकिन जुगलबंदी ऐसी गजब की है कि दोनों गुरूभाई मालूम देते हैं. विश्वगुरू ने विश्वदादा को सिखलाया है कि विश्वदादा ने विश्वगुरू कोयह पहेली है जिसे वक्त ही सुलझाएगा.

ट्रंप साहब ने अचानक यह शिगूफा उड़ाया कि उनसे पहले जो वहां राष्ट्रपति थेउन बाइडन साहब ने कोशिश की थी कि भारत नरेंद्र मोदी को नहींकिसी दूसरे को प्रधानमंत्री चुने. भारतीय राजनीति में विदेशी हाथ !! एकदम सनसनीखेज खबर एकदम शीर्ष से आईतो भक्तों को उसे हाथोहाथ लेना ही था. ट्रंप साहब ने यह कहा ही नहींइसका ठोस प्रमाण भी दिया कि यूएसएड नामक संस्थान ने 21 मीलियन डॉलर की रकम भारत में झोंकी थी ताकि चुनाव में अधिकाधिक मतदाता मतदान केंद्रों तक लाए जा सकें. अमरीकी राज्य मियामी की एक सभा में बोलते हुए उन्होंने कहा :“ आख़िर हमें क्या पड़ी है कि हम भारत में मतदाताआों की संख्या बढ़ाने के लिए 21 मीलियन डॉलर खर्च करें बाप रे21 मीलियन डॉलर !! मेरा अनुमान है कि वे कोई ऐसा झोल करने में लगे थे कि भारत में कोई दूसरा आदमी चुना जाए.” 

आप ध्यान दें कि विश्वगुरू व विश्वदादा जब भी ऐसी कोई युग परिवर्तनकारी घोषणा करते हैं तब मंच सार्वजनिक सभा का होता हैऔर मुद्रा उस अनाड़ी शिकारी की होती है जो यहां-वहांइधर-उधरदाएं-बाएं तीर चलाता जाता है कि कोई तोकहीं तो निशाने पर लगेगा ! ट्रंप साहब के इस वक्तव्य में कितने तीरकितनी दिशाआों में फेंके जरा इसका अंदाजा कीजिए : बात इस तरह कही गई कि ऐसा लगा कि उनके प्रतिद्वंद्वी जो बाइडन साहब ने यूसएसएड नाम का कोई निजी संस्थान बना रखा था ( पीएम केयर फंड !) जिससे पैसे फेंक कर वे दुनिया की राजनीति को मुट्ठी में करना चाहते थे. तो पहला निशाना यह कि जो बाइडन अपने देश कोअपने कानूनी प्रावधानों को धोखा देने वाले घटिया आदमी थेदूसरा यह कि वे इन पैसों के बल पर दूसरे देशों के चुनावों में टांग अड़ाते थेतीसरा यह कि वे भारत में नरेंद्र मोदी की जगह कोई दूसरा आदमी आगे लाना चाहते थे - “ लेकिन देखो भाइयोमैंने बाइडन का वह सारा खेल मटियामेट कर दिया ! नरेंद्र मोदीसमझ लोमैंनेडोनल्ड ट्रंप ने तुमको ऐसे षड्यंत्र का जाल काट करफिर से गद्दी पर बिठाया है ! 

यह सफेद झूठ है. वह आदमी यह कह रहा है जिसे मालूम है कि यूएसएड संस्थान बाइडन के राष्ट्रपति बनने से बहुत पहले से बना व चल रहा वह संस्थान है जो दुनिया भर मेंदुनिया भर के दान-धंधे करता है. 1961 में राष्ट्रपति केनेडी ने फॉरेन असिस्टेंस एक्ट पारित किया था जिसमें से यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट ( यूएसएड) बना. ट्रंप को भी और हमें भी मालूम है कि अमरीका की सरकारेंऔर दुनिया की सरकारें ऐसे सारे धर्मादा कार्य अपने संकीर्ण राजनीतिक ध्येय हासिल करने के लिए करती हैं. उसमें धर्म’ कम-से-कम, ‘मर्मअधिक-से-अधिक होता है. ट्रंप साहब को ज़रूर बताया गया होगा कि 1954 में भारत के साथ अमरीका का पीएल 480 का समझौता हुआ था जिसे फूड फॉर पीस’ कहा गया था. इस समझौते के तहत भूख की बंदूक में अनाज की गोली भरी गई थी. लंबे समय तक वह गोली खाते-खाते हम यह समझ सके थे कि कैसे अनाज के माध्यम से अमरीका ने हमारी स्वायत्तता पर हाथ डाला है. तब प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने भूखे रहेंगे पर पीएल480 का अनाज नहीं खाएंगे’ जैसा राष्ट्र-संकल्प घोषित किया था. 

1950 में इसी अमरीका की पहल पर एक सांस्कृतिक मंच बना था जिसका नाम था कांग्रेस फॉर कल्चरल फ़्रीडम. यह मंच बना और देखते-देखते दुनिया के कोई 40 देशों में काम भी करने लगा. सांस्कृतिक स्वतंत्रता के संवाहक व संरक्षक का मुखौटा लगाए इस मंच सेउस दौर कीदुनिया की तमाम विशिष्ठ हस्तियां जुड़ गई थीं. हमारे जयप्रकाश नारायण इसकी भारतीय शाखा ने मानद अध्यक्ष थे. फिर पर्दाफाश हुआ कि यह साम्यवादी प्रभाव को काटने के लिएअमरीकी गुप्तचर एजेंसी सीआईए के धनतंत्र से संचालित वह उपक्रम है जो अमरीकी हितों के संरक्षण के लिए काम करता है. यह पर्दाफाश हुआ तो जयप्रकाश समेत सारे नामी-गरामी लोगों ने इस संस्थान से इस्तीफा दे दिया. तो बात फिर खुली कि अमरीका अपने धनबल से अपना राजनीतिक हित छीनने-खरीदने का काम करता आया है. लेकिन यहां जिस 21 मीलियन डॉलर की बात ट्रंप ने की और भक्तों ने जिसे कांग्रेस से जोड़ दिया दरअसल वह रकम बांग्लादेश में चुनावी प्रक्रिया को लोकप्रिय बनाने के लिए भेजी गई थी. भारत का या कांग्रेस का उससे कोई नाता नहीं था. यह बात ट्रंप को भी पता थी लेकिन ऐसे जुमले भारत में ही नहींअमरीका में भी राजनीतिक काम करने के काम आते हैं. इसलिए ट्रंप ने झूठ की गोली दाग दी. भूखबीमारीअशांतियुद्धप्राकृतिक आपदाविशेष अध्ययन व शोध जैसे शीर्षकों की आड़ में अधिकांशत: ऐसे अधार्मिक धार्मिक कार्य किए जाते हैं. इसलिए ट्रंप जो कह रहे हैंवह उन जैसे दादा देशों की पोल खोलता हैशिकार देशों की नहीं. 

लेकिन यहां कमाल यह है कि यह बात वह आदमी कह रहा है जो खुद पिछले राष्ट्रपति चुनाव में अपना पलड़ा भारी करने के लिए नरेंद्र मोदी को मोहरा बना कर अमरीका ले गया था. अमरीका में बसे सुविधापरस्त व सांप्रदायिक भारतीयों को सम्मोहित करउनका वोट हासिल करने का यह शर्मनाक आयोजन था. मोदी भी वहां सहर्ष गए तथा भारतीय प्रधानमंत्री ने अमरीकी चुनाव में खुलेआम दखलंदाजी की. इससे पहले किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने ऐसा करने की कल्पना भी नहीं की थी. उस अमरीकी चुनाव में मोदी व ट्रंप दोनों हारे. इस हार से ही ट्रंप समझ गए मोदी-ढोल की पोल ! इसलिए इस बार उन्होंने चुनाव में न मोदी को बुलायान शपथ ग्रहण में पूछान किसी तरह अमरीका पहुंचे मोदी का किसी अलग उत्साह से स्वागत ही किया. अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सब कुछ ऐसा ही वक्ती होता है. 

अब ट्रंप रूस को साथ ले कर चीन को अमरीकी हितों के अनुकूल बनाने का समीकरण साधने में लगे हैं. आंतरिक मामलों के लिए उन्होंने बेलगाम मस्क को लगाम थमा दी है. अब भारत को भी अमरीका की अनदेखी न करते हुएअपने नये समीकरण बनाने हैं जो ट्रंप-पक्षधरता की अपनी छवि के कारण भारत के लिए आसान नहीं होगा. मतलबविश्वगुरू और विश्वदादा के आपसी रिश्ते में कोई विषम कोण बन सकता है. हम उस विषम कोण के लाचार शिकार बनेंगे. ( 28.02.2025)

Wednesday, 19 February 2025

हादसा नहीं, हत्या !

 नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उस दिन टिकट नहीं गिने गए, लाशें गिनी गईं. मानो तो रेलवे स्टेशन पर एक नया कुंभ हुआ. कुंभ की तरह यहां भी सरकार ने सबसे पहले लाशें समेटीं, हादसे के सारे चिन्ह मिटाए, मृतकों की एक संख्या ऐसे घोषित कर दी मानो वहां नोट गिनने जैसी कोई मशीन लगी थी जिसने मृतकों की पक्की संख्या तक्षण बता दी ! इधर संख्या बता दी उधर मौत की कीमत बता दी आौर फिर अगला कार्यक्रम शुरू ! ऐसा ही तो कुंभ में हुआ था. लाशें समेट कर कुंभ फिर चल निकला था. कितनों ने डुबकी लगाई- राष्ट्रपति ने भी, उप-राष्ट्रपति ने भी, प्रधानमंत्री ने भी, पक्ष-विपक्ष के आला लोगों ने भी, समाजसेवियों ने भी, खिलाड़ियों व अभिनेताआों ने भी आौर पता नहीं किन-किन ने; लेकिन कहीं न पढ़ा न सुना कि किसी ने कहा हो कि कुंभ में डुबकी लगा कर मैंने मृतकों की मुक्ति की याचना की आौर अपनी आपराधिक चूक की माफी मांगी ! 

दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भी ऐसा ही हुआ. लाशें समेट करमृतकों की एक संख्या घोषित करभगदड़ को हादसे का ज़िम्मेदार बता कर रेलवे ने जल्दी से प्लेटफॉर्म खोल दिएटिकटों की बिक्री शुरू कर दी है. जो कुछ हुआ उसे उसी तरह मिटा दिया गया जिस तरह बच्चे स्लेट पर अपना लिखा मिटा देते हैं.  बेचारे करते भी क्या ! क्या कुछ लोगों के मर जाने से रेलवे बंद कर देते कुंभ रोक देते इहलोक से परलोक का महात्म कहीं अधिक होता है. व्यवस्था की अपनी एक मशीन है भाईआप उसे मानवीय बनाने की कोशिश न करें. आखिर उसने मृतकों की कीमत तो चुका दी है न ! आप देख ही तो रहे हैं कि सारी दुनिया को ज्ञान बांटने की मुहिम से थके-हारे प्रधानमंत्री ने अभी दिल्ली पहुंच कर सांस भी नहीं ली थी कि उन्हें मृतकों से प्रति गहरी संवेदना का संदेश जारी करने की मशक्कत करनी पड़ी.  जब उनका संदेश आ गया तो फिर रेलमंत्री ने भी अपना संवेदना संदेश जारी किया. ऊपर से हरी झंडी मिली तो एक-एक कर मंत्रियों,मुख्यमंत्रियों सबकी संवेदना का तंत्र झंकृत हो रहा हैआौर हम लगातार होते हादसों में मारे गए अपने लोगों की लाशें समेटते-समेटतेअगले हादसे का इंतज़ार कर रहे हैं. यह नया हिंदुस्तान है !

 न,आप उबल मत पड़िएन बांहें चढ़ा कर हमसे पूछिए कि क्या इससे पहले की सरकारों के दौर में हादसे नहीं होते थे हम मानते हैं कि हादसे पहले भी होते थे लेकिन हादसों का राज्य प्रायोजित आयोजन नहीं होता था. 

दिल्ली में जो हादसा हुआ क्या वह लोगों की असावधानीवश हुआ नहींलोगों ने कोई असावधानी नहीं की थी. अगर की थी तो इतनी ही कि सरकारी प्रचार में बह कर वे सब कुंभ जाने को व्यग्र हो उठे थे. ऐसी व्यग्रता अज्ञानकुशिक्षा आौर अंधविश्वास में से पैदा होती है जिसकी आंधी उठाने में सत्ता एक दशक से पूरा जोर लगा रही है. हाल ऐसा है कि हवाई जहाजों में धनवान आौर सत्ताधीश उमड़े हुए हैं. धनसंपन्न मध्यम वर्ग भी उचक-उचक कर इसी जमात में शामिल होने का सुख ले रहा है. हवाई कंपनियां मनमाना दाम वसूल करइन्हें कुंभ पहुंचा रही हैं. रेलवे ने विशेष गाड़ियां चला रखी हैं जो लाद-लाद कर लोगों को कुंभ पहुंचा रही हैं.  बसेंटैक्सियां सब इसी काम में जोत दी गई हैं. ऐसा कभी देखा था कि लोगों के धार्मिक विश्वास को सत्ता के हवन कुंड में इस तरह होम किया जा रहा हो 

दिल्ली रेलवे स्टेशन के अधिकारियों से ले कर कुलियों तक को पता था कि भीड़ बेतहाशा बढ़ती चली जा रही है. प्लेटफॉर्म पर खड़े होने की जगह नहीं बची थी.  न टिकटों की बिक्री रोकी गईन लोगों को प्लेटफॉर्मों पर पहुंचने से रोका गया. वहां कुंभ जाने वाली कई गाड़ियों का जमावड़ा था. इसलिए अफरा-तफरी चरम पर थी. कोई बताए कि यह योजना किसने बनाई थीसामने ऐसी भीड़ को देखने के बाद भी अधिकारियों ने प्लेटफॉर्म बदलने की घोषणा कर दी.  इससे बड़ी जाहिली की कल्पना नहीं की जा सकती है ! सामान्य अवसरों पर भी जब रेलवे अचानक प्लेटफॉर्म बदलने की घोषणा करती है तब भी हम देखते हैं कि कैसी अफरा-तफरी मच जाती है. उस दिन जैसी भीड़ थी उसमें अचानक प्लेटफॉर्म बदलने की घोषणा आपराधिक कृत्य था.  अंतिम समय में प्लेटफॉर्म बदलने की यह वृत्ति बढ़ती जा रही है जो रेलवे अधिकारियों के खराब आयोजनअकुशलता तथा संवेदनहीनता का प्रमाण है. रेल अधिकारी कौन हैं सरकारी रवैये की प्रतिछाया !  किसी तरह नये प्लेटफॉर्म पर पहुंच करगाड़ी में अपनी जगह लेने की बदहवास होड़ में वह सब हुआ जिसका स्यांपा अब किया जा रहा है. आौर हद तो यह कि हादसे की जांच के लिए रेलवे के ही अधिकारियों की समिति बना दी गई ! अपने अपराध की जांच भी अपराधी स्वयं करें तथा अपनी सजा भी ख़ुद ही तय करेंयह तो ऐसी कीमिया न है जिससे महात्मा गांधी भी हतप्रभ रह जाएंगे.  

लेकिन यहां एक दूसरा सवाल भी है. लोगों को भीड़ बनाने की इस वृत्ति के पीछे कौन है हमारे लोग अधिकांशत: अशिक्षितकुशिक्षित तथा अंधविश्वासी हैं. इस सरकार ने अपना सारा छल-दल-बल लगाकरसारे देश में इसका जश्न मनाने का अभियान चला रखा है. यह कुंभ उसी अभियान का हिस्सा है. हमारी परंपरा में जिस कुंभ की महिमा ऐसी रही है कि उसकी सबसे बड़ी अध्यात्मिक शक्ति उसकी स्वस्फूर्ति में रही है न कि राज्य की धोखाधड़ी में. अनगिनत सालों से न कोई किसी को बुला या फुसला कर कुंभ में लाता थान अकूत धन उड़ेल कर उनकी डुबकी की व्यवस्था होती थी. यह अप्रायोजित आयोजन मन:पूर्वक होता था. लोग अपनी-अपनी श्रद्धासुविधा व हैसियत के मुताबिक कुंभ या ऐसे आयोजनों में जाते थे. अब ऐसी हर सांस्कृतिक परंपरा का राजनीति इस्तेमाल किया जा रहा है. अंदरखाने की एक आवाज़ यह भी कहती है कि यह मोदी व योगी के बीच की वर्चस्व की लड़ाई का मुद्दा बन गया जिसमें योगी ने ख़ुद के लिए वैसी राजनीतिक कमाई कर ली जैसी प्रधानमंत्री नहीं कर सके. लेकिन यह तो भाजपा का आंतरिक मामला है. 

सरकार कुंभ का आयोजन क्यों करे भला भारतीय संविधान के मुताबिक़ चलने वाली  किसी सरकार का यह काम हो सकता है क्या क्यों यह बात उछाली गई कि जो कुंभ नहीं जाएगाउसकी देशभक्ति संदेह के घेरे में होगी किस परंपरा के मुताबिक इसे महाकुंभ कहा गया ऐसा कोई शब्द कुंभ की परंपरा में तो है नहीं !  खबर यह भी है कि राज्यों को कोटा दिया गया कि कितने भक्त उसे कुंभ में भेजने हैं. धार्मिक उन्माद खड़ा कर जब आप करोड़ों की भीड़ जुटाते हैं तब आप दूसरा कुछ नहीं करतेहादसों का आयोजन करते हैं.  अगर आपका दावा सही मान लें हम कि 50 करोड़ लोगों ने कुंभ में डुबकी लगाई तो कोई हमें बताए कि इतनी बड़ी उन्मादी भीड़ को कौन-सी व्यवस्था संभाल सकती है भीड़ की एक परिभाषा यह भी तो है न कि उसके पास सर होता हैसमझ नहीं ! सत्ता के लिए यह सर ही अंतिम कसौटी हैसमझ से उसका वास्ता रहा ही कब  है इसलिए आदमी नहींउसे हर सर एक वोट दिखाई देता है जिसे उन्मादित कर अपने खाते तक पहुंचाना उसका चरम धार्मिक कर्तव्य होता है. 

कोई हिसाब लगा कर बताए कि कुंभ आने मेंकुंभ से जाने में आौर कुंभ-स्थल पर अब तक कितने हादसे हुए हैं आौर कितनी जानें गई हैं ऐसा हिसाब लगाएंगे आप तो हमेशा आपको दो आंकड़े  मिलेंगे : सरकारी व सामाजिक ! दोनों के बीच इतनी गहरी विषमता होगी कि आप हैरान रह जाएंगे. जब कभी ऐसा हो तो मान लेना चाहिए कि लाशों के आंकड़े नहींमनोवृत्ति को आंकना जरूरी है. वह अगर हम पहचान सके तो आगे लाशें गिनने की नौबत नहीं आएगी. ( 19.02.2025)