Friday, 22 November 2024

खाली संविधान !

         तो राहुल गांधी के सबसे धारदार हथियार की धार भोथरी करने के लिए प्रधानमंत्री ने एक ऐसा झूठ बोला कि जिस बराबरी का झूठ खोजना उनके संसार में भी मुश्किल है. झूठ की शिफत यही है कि उसे हर बार पिछले से ज्यादा बढ़ा-चढ़ा कर बोलना चाहिए अन्यथा उसकी तासीर बेअसर हो जाएगी. प्रधानमंत्री इस कला के माहिर उस्ताद हैं. वे झूठ भी बोलते हैं - याकि झूठ ही बोलते हैं ! - और सार्वजनिक विमर्श का स्तर इतना गिराते जाते हैं कि शालीनता, विवेक, ज्ञान आदि के खड़े होने की जगह ही न बचे. जवाब में फिर दूसरी तरफ से भी उसी स्तर की बातें आती हैं.   

लोकसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी अपने भाषणों में भारतीय संविधान की लाल रंग की एक आवृत्ति दिखाते घूमते रहे. उनका कहना है कि भारतीय संविधान में वह सब कुछ है जो आंबेडकरजीगांधीजीफुलेजी आदि के दर्शन में है. वे समझाते हैं कि जनता के अधिकारजनता की शिक्षाजनता का आरक्षणजनता का रोजगारजनता की आजादी आदि सभी इसी संविधान से निकलती है और प्रधानमंत्री इसी संविधान को समाप्त करना चाहते हैं. बक़ौल राहुल गांधी प्रधानमंत्री व भारतीय जनता पार्टी ऐसा इसलिए चाहती है कि उसे समता व बराबरी का समाज नहीं चाहिए. वे इससे जुड़ी तमाम दूसरी बातें भी कहते हैं. राहुल गांधी जो कर रहे हैंवह सब सही हैऐसा तो कैसे कहें हम लेकिन हम यह कहना जरूर चाहते हैं कि राहुल जो कह रहे हैंउस पर गहराई से विचार होना चाहिए. 

लेकिन किसी विचार की बात तो दूरप्रधानमंत्री ने राहुल गांधी को ऐसा जवाब दिया कि जिसका सर हैन पांव ! प्रधानमंत्री दहाड़ कर बोलेबार-बार बोले और हर बार नई मुद्रा में बोले कि राहुल गांधी संविधान की जो किताब दिखाते हैं उसके भीतर कुछ लिखा ही नहीं है. वह खाली है. राहुल गांधी ने अपनी अगली सभा में फिर किताब दिखाई लेकिन इस बार उसे खोल कर भी दिखाया. उसमें बाजाप्ता लिखा हुआ था. वह खाली नहीं थी. अभी तक किसी ने उस किताब की ऐसी कोई प्रति सार्वजनिक भी नहीं की है जो ऊपर से लाल हो लेकिन भीतर से खाली हो. 

हमारा संविधान प्रधानमंत्री ने पढ़ा हो कि नहींदेखा तो जरूर होगा. उसके सामने दंडवत होते वक्त भी उन्हें अनुमान तो हुआ ही होगा कि वह एक खासा भारी-भरकम ग्रंथ है. उतना बड़ा ग्रंथ उस गुटके में समा ही नहीं सकता है. तो संविधान का सार बताने वाला वह प्रतीक संस्करण है. कांग्रेस ने तुरंत ही वह फोटो भी छाप दिया जिसमें प्रधानमंत्री स्वंय ही तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविद को वही लाल संस्करण भेंट कर रहे हैं. तो क्या प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति को कोरा गुटका दे कर झांसा दिया था. अगर नहींतो राहुल गांधी ऐसा झूठा काम क्यों करेंगे जो तभी-के-तभीवहीं-के-वहीं पकड़ा जा सके ! पप्पू कैसा भी पप्पू होऐसा फेंकू तो नहीं हो सकता ! 

अब अपना अमृत-प्रवचन दे कर प्रधानमंत्री देश से बाहर चले गए. भारतीय जनता पार्टी उनके इस झूठ को सन्नाटे में डुबो कर ही झेल सकती है. वह झेल रही है. लेकिन इससे भारतीय जनता पार्टी को हासिल क्या हुआ राहुल गांधी ने भारतीय राजनीति में अब अपनी ऐसी जगह तो बना ही ली है कि उन्हें प्रधानमंत्री वापस पप्पू साबित नहीं कर सकते. सहमति-असहमतियोग्यता-अयोग्यता सब अपनी जगह है लेकिन कांग्रेस को भी राहुल को उसी तरह ढोना है जिस तरह भारतीय जनता पार्टी को नरेंद्र मोदी को ढोना है. यह दोनों पार्टियों का अंदरूनी मामला है. लेकिन किसी को यह हक कैसे मिल सकता है कि वह मतदाता को ऐसा मूर्ख माने और चुनाव-प्रचार को इतनी फूहड़ता से ले !    

चुनाव प्रचार को झूठ का बवंडर और अर्थहीन जुमलों का ऐसा जंगल बना दिया गया है कि वहां लोकशिक्षण की जगह ही बाकी नहीं रही है.  चुनाव प्रचार मतदाता को जागरूक करने का नहींउसके ही पैसे से उसे मूर्ख बनाने का सबसे बड़ा संवैधानिक आयोजन बन गया है. सारी संवैधानिक संस्थाएं इस शर्मनाक प्रहसन की मूक दर्शक भर हैं. देश के सार्वजनिक व वैधानिक जगत का ऐसा पतन संविधान निर्माताओं की कल्पना में नहीं रहा होगा. 1977 के अत्यंत नाजुक लोकसभा चुनाव के वक्त भी कम नहीं थे ऐसे ज्ञानी-धुरंधर जो जयप्रकाश नारायण को समझाते रहे थे कि साधारण लोग कहां समझेंगे आपकी यह लोकतंत्र व तानाशाही की बात ! “ दो में से एक चुनना है : लोकतंत्र या तानाशाही !” का सीधा नारा दे करवे यह कहते हुए आगे निकल गए कि आप लोग अपनी समझ की फिक्र कीजिएजनता की नहीं! साधारण मतदाता ने वह चुनौती समझी और लोकतंत्र उभर आया.     

संविधान की किताब दिखा कर चुनाव की तासीर बदलने की राहुल की कोशिश आज भी जारी है. कांग्रेस संगठन में कोई राजनीतिक समझ होती तो वह इसी का बड़ा आंदोलन खड़ा कर सकती थी. जब सामने वैचारिक शून्यता का घटाटोप रचा जा रहा होतब आपकी सामान्य वैचारिक बातें भी जड़ जमा लेती हैं. लेकिन कांग्रेस में ऐसी समझ होती तो उसका ऐसा हाल होता ही क्यों! कोई चिढ़ कर जवाब देता है कि जहां राहुल गांधी की अपनी सरकारें हैंवहां भी तो वह सब नहीं हो रहा है जो राहुल गांधी कह रहे हैं. बात गलत नहीं है लेकिन यह राहुल गांधी की बात का जवाब नहीं है. जिस तरह मतदाताओं को नंगों-कंगलों-भीखमंगों की भीड़ समझ कर रुपये बांटने की नई शैली चली हैजिसमें कांग्रेस-भाजपा में एक-दूसरे को मात देने की होड़ चल रही हैवह भी इस बात का जवाब नहीं है कि संविधान में कैसा भारत बनाने का सपना दर्ज हैऔर वैसा भारत बनाने का क्या रास्ता संविधान बताता है. सबसे बड़ा क्षद्म यह है कि अब सभी संविधान की शपथ लेते हैंउसे पढ़ता कोई नहीं है. अभी-अभी सेवानिवृत हुए हमारे सर्वोच्च न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ साहब ने तो बाकायदा घोषणा ही कर दी कि संविधान पढ़ना ईश्वर का काम हैन्यायपालिका का काम ईश्वर से पूछ लेना भर है. 

देश इतना खोखला बना दिया गया हैमतदाता इतनी बारइतनी तरह से छला गया है कि आज सारा कुछ संविधान में सिमट आया है. प्रधानमंत्री भले खिल्ली उड़ाएं कि राहुल गांधी खाली संविधान दिखा रहे हैंदेश को आज जरूरत खाली संविधान की ही है. खाली संविधान की कसौटी पर विधायिका-कार्यपालिका-न्यायपालिका को कसने की ताकत देश एक बार पा ले तो गाड़ी पटरी पर लौट सकती है. मीडिया संस्थानों का विष-दंत भी संविधान ही तोड़ सकता है. मतदाता को यह ताकत व यह दृष्टि खाली संविधान से ही मिल सकती है. हम सब अपनी-अपनी जगह पर इसके औजार बनें तो 1977 का चमत्कार फिर दोहराया जा सकता है. ( 20.11.2024)  

Sunday, 17 November 2024

हारते अमरीका की हार

जोनाथन स्विफ्ट की अमर कृति गुलिवर की यात्राएं’ पढ़ी है आपने ! उसमें गुलिवर घूमते-खोजते एक ऐसे मुल्क में पहुंच जाता हैजहां बौनों का राज है. लगता है,हमारा इतिहास भी घूमते-घूमते ऐसी ही दुनिया में पहुंच गया है जहां सब तरफ बौनों का बोलबाला है भीहोता भी जा रहा है - पुतिनजिनपिंगनेतन्याहू,मोदी,मैक्रोंस्टारमर,शोल्ज आदि-आदि. इस सूची के सबसे नये सदस्य हैं डोनल्ड ट्रंप ! वैसे इस अर्थ में ट्रंप नये नहीं हैं कि उनका बौनापन अमरीका भी और दुनिया भी पहले देख व भुगत चुकी है. शोक है तो इस बात का उन्होंने आम अमरीकी को भी अपनी तरह ही बौना बना दिया है. इसमें भी उनकी कोई शिफत नहीं है. इतिहास बताता है कि इंसान व उसका समाज फिसलन की तरफ आसानी से ले जाया जा सकता हैऔर फिसलन निष्प्रयास नीचे-से-नीचे ही जाती जाती है. ट्रंप फिसलते अमरीका की फिसलन को न केवल तेज करेंगे बल्कि उसे बहुत कुरूप व कर्कश बना देंगे. यह अनुमान नहीं हैअनुभव है. इसलिए मुझे यह लिखना पड़ रहा है कि ट्रंप की यह जीत हारते अमरीका की हार है. किसी व्यक्ति की जीत किसी समाज की हार कैसे बन जाती हैयह अमरीका भी समझेगा और हम भी.      

दुनिया में धन और दमन की कलई जैसे-जैसे खुलती जा रही हैअमरीका बौना होता जा रहा है. उसके पास यही दो हथियार रहे हैं जिनसे उसने अपनी पहचान व ताकत बनाई थी. अब दुनिया के बाजार में उसके डॉलर का वह डर नहीं रहाऔर यह भी जाहिर होता जा रहा है कि हथियारों की मारक शक्ति से कहीं बड़ी है इंसानों की संकल्प शक्ति ! यह वही बात जिसे महात्मा गांधी ने दुनिया की महाशक्तियों को बताने-समझाने की कोशिश की थी. 

गांधी दुनिया के अंगुली भर देशों में भी नहीं गए थे लेकिन दुनिया देखी बहुत थी. इसलिए बहुत कुछ ऐसा कहते-समझाते रहे थे जिसे समझने में हमें सदियां लग गईं.  अभी भी हम उन्हें लेकर भटकते ही रहते हैं. वे कभी अमरीका नहीं गए. कई बारकई विशिष्ट अमरीकियों नेजिनमें अलबर्ट आइंस्टाइन भी थेआग्रह किया था कि वे अमरीका आएं. गांधी ने कभी कुछ कह करतो कभी कुछ और कह कर बात टाल दी थी. आइंस्टाइन को लिख दिया कि मैं उस दिन की प्रतीक्षा में हूं कि जब अपने सेवाग्राम आश्रम में मैं आपका स्वागत कर सकूंगा. मतलब यह कि आप यहां आएंमैं अमरीका आने की नहीं सोचता हूं.                   

दूसरे गोलमेज सम्मेलन के लिए जब गांधी इंग्लैंड आए तो यह दवाब कई तरफ से बनाया गया कि अब जब आप यहां तक आ ही गए हैं तो अमरीका भी आ जाइए. अमरीका में गांधी के कई चाहक व प्रिय भी थेतो उनका अमरीका होते आना कतई असंगत नहीं होता. लेकिन गांधी ने कहा तो इतना ही कि मैंने अपने देश में ही कोई सिद्धि हासिल नहीं की है अब तकतो अमरीका को वहां आ कर क्या दे सकूंगा ! फिर यह भी जोड़ दिया कि जब तक अमरीका दौलत के पीछे की अपनी अंधी दौड़ से बाहर नहीं आता हैमेरे वहां आने का कोई मतलब नहीं होगा. 

अमरीका उस अंधी दौड़ से बाहर तो कभी नहीं आयाउसने सारी दुनिया को अपने जैसी ही अंधी दौड़ में दौड़ा दिया. जिन्हें ट्रंप अवैध अप्रवासी कहते हैंजिन दूसरे मूल के वैध अमरीकियों को श्वेत अमरीकी जलती आंखों से देखते हैंवे सब इसी अंधी दौड़ के धावक हैं. अमरीका ने सारी दुनिया से साम-दाम-दंड-भेद के बल पर जो दौलत निचोड़ी हैये सब उसमें हिस्सेदारी मांगते हैं. अगर दौलत लूट लाना वैध है तो उसमें हिस्सेदारी अवैध कैसे हैयह समझना बहुत टेढ़ी खीर तो नहीं है. 

इस अंधी दौड़ में दौड़ते-दौड़ते अब अमरीका का भी और दुनिया का भी दम टूट रहा है. यह स्थिति इसलिए भी ज्यादा घातक बन गई है क्योंकि उदार-लोकतांत्रिक ताकतों की अयोग्यता की वजह से हर देश में निराशा व्याप्त है. सामान्य जीवन जीना इतना कठिन व खतरों से भरा बन गया है कि इंसान हर नई आवाज की तरफ लपक रहा है. यदि उदार-लोकतांत्रिक ताकतों ने ईमानदारी से अपने-अपने देशों की वैकल्पिक ताकतों को संयोजित कर वह कुछ हासिल किया होता जिसकी ललक आम आदमी को होती हैतो दक्षिणपंथी-तानाशाही ताकतें इस तरह वापसी नहीं कर पातीं. लेकिन सत्ता को अंतिम प्राप्य मान कर बैठ जाने वाला तथाकथित उदार-लोकतांत्रिक नेतृत्व व्यापक निराशा व असंतोष का जनक बन गया है. बाइडन जैसों को एक दिन के लिए भी राष्ट्रपति क्यों बनना चाहिए था कमला हैरिस को हारना ही था क्योंकि वे बाइडन से अलग थी ही नहीं. इसलिए राष्ट्रपति बदलते हैंअमरीका नहीं बदलता है. बराक ओबामा जैसा आदमी आया तो वह भी कुछ बदल नहीं सका. तो फिर ट्रंप से कैसी शिकायत ! लेकिन शिकायत है - गहरी व तीखी शिकायत है. 

कमजोर होने में और कमजोर करने में बहुत बड़ा फर्क है. ट्रंप बिरादरी के बौनों की हकीकत यह है कि उनके पास देने के लिए कुछ भी नहीं है - न दिशान साहसन सपनेन उदारता. उनके पास कहने के लिए भी कुछ उदारकुछ मानवीयकुछ उदात्त नहीं है. उनके पास सत्ता का दंभ व मनमानापन हैअकूत सार्वजनिक धन हैअसहमति से घृणा हैअसहमतों के प्रति क्रूरता है. बौनों की जो सूची मैंने शुरू में दी हैवे सब इन्हीं ताकतों के बल पर टिके हैं. 

ट्रंप कमजोर होते अमरीका को जल्दी व ज्यादा कमजोर कर देंगे क्योंकि उनके पास महंगाईबेरोजगारी को हल करने की कूवत नहीं है. वे अवैध अप्रवासियों का भूत उसी तरह खड़ा कर रहे हैं जिस तरह हमारे यहां अल्पसंख्यकों का भूत खड़ा किया जाता है. इसमें बदला लेने की मनुष्य की हीन भावना को उकसाया जाता है. यह उकसावा आसान भी है तथा यह आपको दूसरी जिम्मेवारियों से बच निकलने की गली भी देता है. अपने पिछले पांच साल के राष्ट्रपति-काल में ट्रंप ने अमरीकी समाज की एक भी मुसीबत का हल नहीं निकालाअमरीका को हर तरह से उपहास का पात्र जरूर बनाया. उनमें अपनी हार स्वीकार करने की शालीनता भी नहीं रही. उन्होंने अमरीकी समाज के गुंडा-तत्वों को ललकार कर बुनियादी लोकतांत्रिक शील की भी खटिया खड़ी कर दी. वे आगे भी ऐसा ही करेंगेक्योंकि इसके अलावा वे कुछ जानते नहीं हैं

. हमारा हाल यह है कि हमें प्रिय मित्र ट्रंप’ की जीत ऐसी लग रही है मानो डोनल्ड ट्रंप ने अमरीका के राष्ट्रपति का नहींभारत के राष्ट्रपति का चुनाव जीता है. उनके चुनाव जीतने से जितने खुश अमरीकी नहीं हैंउससे ज्यादा भारत के सत्ताधारी व उस मानसिकता के लोग खुश हैं. अपने यहां के लोकसभा चुनाव मेंउनके तईं जो कसर रह गई थीमानो अमरीका ने ट्रंप जो चुन कर वह कसर पूरी कर दी है. यह भारत के अमरीका बनने का नया अध्याय है. यह हारते अमरीका के हारने के नये अध्याय का प्रारंभ है. ( 09.11.2024)