Friday, 31 March 2023

1930 और 2023

    लड़ाई मैदान में थी- एकदम आमने-सामने की ! युद्ध के इस मैदान से महात्मा गांधी ने देश से अौर वाइसराय से दो अलग-अलग बातें कहीं थी : देश से कहा कि अब साबरमती आश्रम लौटूंगा तभी जब आजादी मेरे हाथ में होगी- कुत्ते की मौत भले मरूं लेकिन आजादी बिना आश्रम नहीं आऊंगा; दूसरी तरफ वाइसराय को खुली चुनौती दी कि आपको अपना नमक कानून रद्द करना ही पड़ेगा! आग दोनों तरफ लगी थी, और ऐसे में किसी अमरीकी अखबार वाले ने ( आज के मीडिया वाले जरा ध्यान दें !) ने पूछा, “ इस लड़ाई में आप दुनिया से क्या कहना चाहते हैं ?” तुरंत कागज एक की पर्ची पर गांधी ने लिखा : आई वांट वर्ल्ड सिंपैथी इन दिस बैटल ऑफ राइट एगेंस्ट माइट : मैं सत्ता की अंधाधुंधी बनाम जनता के अधिकार की इस लड़ाई में विश्व की सहानुभूति चाहता हूं !

पत्रकार भारत का कोई राहुल गांधी’ नहीं थासीधा अमरीका का थालड़ाई चुनावी नहीं थीसाम्राज्यवाद के अस्तित्व की थीलेकिन दिल्ली में बैठे वाइसराय ने या लंदन में बैठे उनके किसी आका ने नहीं कहा कि गांधी भारत के आंतरिक मामले में विदेशी हस्तक्षेप को बुलावा दे रहे हैं. 

ऐसा एक बार नहींकई बार हुआ कि गांधी ने भारत की आजाद की लड़ाई में दुनिया ने विभिन्न नागरिकों को उनकी भूमिका निभाने का आमंत्रण दिया. उन्होंने सारे ब्रितानी नागरिकों कोसारे अमरीकियों को खुला पत्र लिखा कि वे भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष को ठीक से समझें तथा अपनी सरकारों पर दवाब डालें कि वह इस लड़ाई में हमारा समर्थन करेक्योंकि सत्य व अहिंसा के रास्ते लड़ी जा रही इस लड़ाई से विश्व का व्यापक हित जुड़ा है. कभी कहीं से ऐसी चूं भी नहीं उठी कि गांधी को माफी मांगनी चाहिए कि उन्होंने विदेशी ताकतों को हमारे आंतरिक मामले में हस्तक्षेप के लिए आमंत्रित किया.

ऐसा नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी व उसकी सरकार को यह इतिहास मालूम नहीं है लेकिन उसे यह भी तो मालूम है कि इस इतिहास को बनाने में उसका कोई हाथ नहीं है. इसलिए प्रधानमंत्री से नीचे तक का कोई भी इस इतिहास का जिक्र नहीं करता है. वे लगातार वही राग अलापते हैं जो बार-बार हमें बताता है कि जिन्हें वह राग ही नहीं मालूम हैउन्हें गान कैसे समझ में आएगा ! 

राहुल गांधी ने लंदन में जो कुछ कहाउसमें उनके माफी मांगने जैसा कुछ है ही नहींबल्कि वे माफी मांगेंगे तो बड़े कमजोर व खोखले राजनेता साबित होंगेक्योंकि भारत के लोकतंत्र के जिस वैश्विक आयाम की बात उन्होंने वहां उठाईउसने मेरे जैसे लोकतंत्र के सिपाहियों को मुदित किया कि राहुल हमारे लोकतंत्र के इस आयाम को समझते भी हैंतथा उसे इस तरह अभिव्यक्त भी कर सकते हैं. यह छुद्र दलीय राजनीति का मामला नहीं है इसलिए पार्टीबाज इसे न समझेंगेन समझना चाहेंगे. यह मामला सीधा लोकतंत्र की अस्मिता का है. भारतीय लोकतंत्र का यही वह आयाम है जिसे बांग्लादेश संघर्ष के वक्त जयप्रकाश नारायण ने सारी दुनिया से कहा था : लोकतंत्र किसी देश का आंतरिक मामला नहीं हो सकता है. उसका दमन सारे संसार की चिंता का विषय होना चाहिए. 1975 मेंचंडीगढ़ की अपनी राजनीतिक नजरबंदी के दौरान जयप्रकाश ने इंदिरा गांधी को पत्र लिख कर यही समझाना चाहा था. इंदिराजी ने उसे तब नहीं समझा थाराहुल गांधी को जरूरत लगती है कि लोकतंत्र का दम भरने वाले दुनिया के देश उसे अब समझें. लंदन में उनकी बात का यही संदेश था.  

भारत ने जब से संसदीय लोकतंत्र अपनाया हैउसके बाद से कोई 75 साल बीत रहे हैं कि वह इस रास्ते से विचलित नहीं हुआ है. उसके साथ या उससे आगे-पीछे स्वतंत्र हुए अधिकांश देशों ने लोकतंत्र का रास्ता छोड़ कर कोई दूसरा रास्ता पकड़ लिया है. विचलन हमारे यहां भी हुआ हैलेकिन गाड़ी लौट कर पटरी पर आती रही है. आज हमारे लोकतंत्र का अंतरराष्ट्रीय आयाम यह है कि यहां यदि यह कमजोर पड़ता है या इसका संसदीय स्वरूप बदल कर कुछ दूसरा रूप लेता है तो संसार भर में लोकतंत्र की दिशा में हो रही यात्रा ठिठक जाएगी या दूसरी पटरी पर चली जाएगी. संसदीय लोकतंत्र के हमारे प्रयोग के अब अंतरराष्ट्रीय आयाम उभरने लगे हैं. हमारा यह प्रयोग लोकतंत्र की तरफ नये देशों को खींचने का कारण बन रहा है. सत्ता के अतिरेक व सत्ताधीशों की सत्तालोलुपता के खिलाफ सभी तरह के जनांदोलनों के प्रतीक गांधी बन जाते हैंयह अकारण नहीं है. हमने अपने लोकतंत्र की स्थापना व उसके संचालन में जहां गांधी की बेहद उपेक्षा की है वहीं हम भी व दुनिया भी यह समझ पा रही है कि गांधी लोकतंत्र की पहचान हैं. 

हम देख रहे हैं कि दुनिया भर में दक्षिणपंथ की लहर-सी उठी हुई है. वामपंथ या उस जैसा तेवर रखने वाली सत्ताएंसंसदीय लोकतंत्र को तोड़-मरोड़ कर सत्ता पर अपनी मजबूत पकड़ बनाने में लगी सरकारें बिखर जा रही हैं अौर सत्ता पर सांप्रदायिकधुर जाहिल-पुराणपंथी तत्व काबिज हो रहे हैं. ऐसे में हमारा संसदीय लोकतंत्र किसी प्रकाश-स्तंभ की तरह है. वही आशा है कि यह लहर लौटेगी तो संसदीय लोकतंत्र के किनारों पर ठौर पाएगी. 

लंदन में राहुल ने इसे हमारे लोकतंत्र का अंतरराष्ट्रीय संदर्भ बताते हुए पश्चिमी लोकतांत्रिक शक्तियों को आगाह किया कि अपना संसदीय लोकतंत्र बचने का हम जो प्रयास कर रहे हैंउसे आप सही संदर्भ में समझें और उसके हित में खड़े हों. आज सब बाजार के आगे सर कटा-झुका रहे हैं. सबसे तेज अर्थ-व्यवस्था या ५ खरब की अर्थ-व्यवस्था जैसी बातों में किसी प्रकार का राष्ट्रीय गौरव दिखाने वाले लोग यह छिपा जाते हैं कि ऐसा कुछ पाने के लिए संसदीय लोकतंत्र की मर्यादा व प्रकृति के विनाश की लक्ष्मण-रेखा पार करनी होगी. इसकी इजाजत हम किसी को कैसे दे सकते हैं कि वह लोकतंत्र के मृत चेहरे को इतना सजा दे कि वह जीवित होने का भ्रम पैदा करने लगे हम मानवीय चेहरे वाला वह लोकतंत्र बनाना चाहते हैं जो अपने हर घटक को जीने का समान अवसर व सम्मान दे कर ही स्वंय की सार्थकता मानता है. यहां गति दम तोड़ने वाली नहींसमरसता बनाने वाली होगी - प्रकृति व जीवन के बीच समरसता !  

राहुल ने जो कहा उसके दो ही जवाब हो सकते हैं : भारत सरकार लोकतांत्रिक मानदंडों को झुका करखुद को उनके बराबर बताने का क्षद्म बंद करे. वह अपना लोकतांत्रिक व्यवहार व प्रदर्शन इतना ऊंचा उठाए कि उसका अपना लोकतांत्रिक चारित्र्य उधर कर सामने आए. राहुल को तीसरा कोई जवाब दिया नहीं जा सकता है. 

1930 और 2023 के बीच इतनी बड़ी खाई नहीं बनाएं हम. ( 25.03.23)        

मेरी आवाज सुनो !

 सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आ गया कि अब चुनाव आयोग का चयन तीन सदस्यों की एक समिति करेगी, न कि प्रधानमंत्री के इशारे पर नौकरशाही के चापलूसों का पत्ता फेंटकर इसका चयन किया जाएगा. यह फैसला तब तक लागू रहेगा जब तक संसद इसके लिए कोई नया कानून बना कर देश के सामने नहीं रखती है. स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि न्यायपालिका ने विधायिका को उसकी भूमिका भी और उसकी मर्यादा भी इस तरह आदेश दे कर समझाई है. 

सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद से सत्तापक्ष में एकदम सन्नाटा है. विपक्ष ने भी थोड़ी-बहुत प्रतिक्रिया से ज्यादा कुछ नहीं कहा है. ऐसा सन्नाटा क्यों है भाई इसलिए है कि सभी जान रहे हैं कि सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला सत्ता पक्ष व विपक्ष दोनों के पर कतर रहा है.  जिस हम्माम में सब नंगे हों उसमें तौलिये की बात करना सबकी नंग खोल देता है. 

सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला सत्तापक्ष की नीयत पर कठोर टिप्पणी करता है. यह टिप्पणी इतनी कठोर व मर्म पर चोट करने वाली है कि यदि हमारी व्यवस्था में थोड़ी भी लोकतांत्रिक आत्मा बची होती तो चुनाव आयोग के वर्तमान अध्यक्ष का इस्तीफा कब का हो गया होता. सरकार का यदि कोई लोकतांत्रिक चरित्र होता तो उसने इस फैसले के तुरंत बाद वर्तमान चुनाव आयोग को भंग कर दिया होता तथा प्रधानमंत्री-नेता विपक्ष-प्रधान न्यायाधीश की समिति ने रातोरात बैठ कर नया चुनाव आयोग गठित कर दिया होता. ऐसा हुआ होता तो सत्ता पक्ष को अपनी विकृत लोकतांत्रिक छवि सुधारने का तथा चुनाव आयोग को अपनी हास्यास्पद स्थिति से बचने का मौका मिल जाता.  लेकिन जो लोकतांत्रिक आत्मा कहीं बची नहीं हैउसकी कोई लहर उठे भी तो कैसे हमारी संसद में भी इतनी नैतिक शक्ति बची नहीं है कि वह खुद को सुधार सकेबे-पटरी हुई अपनी गाड़ी को पटरी पर लौटा सके. 

लोकतंत्र का पेंच यह है कि वहां संसद बनती भले है बहुमत के बल परचलती है परस्पर विश्वास व सहयोग के बल पर. ऐसा नहीं होता तो भारतीय संसद के इतिहास में अब तक सबसे बड़े बहुमत से जो दो सरकारें बनी हैं - इंदिरा गांधी व राजीव गांधी की- वे ताश के पत्तों-सी बिखर नहीं जातीं. इसलिए लोकतांत्रिक नैतिकता का तकाजा है कि संवैधानिक संस्थाएं एक-दूसरे की सुनेंएक-दूसरे का सम्मान करें. 

जिस संसदीय लोकतंत्र की रजत जयंती मानने की हम तैयारी कर रहे हैंवह इतने वर्षों में हमें यह भी नहीं सिखा सकी है कि हमारी सारी लोकतांत्रिक संस्थाएं संविधान के गर्भ से ही पैदा हुई हैं. इसलिए इनमें कोई संप्रभु नहीं है. संप्रभु है इस देश की जनता जिसने अपना संविधान बना करअपने ऊपर लागू किया है. तो वह संविधान सबका पिता है. पिता के संरक्षण का दायित्व सबका है लेकिन न्यायपालिका उसकी खास प्रहरी है. 

संविधान ने जितनी संस्थाएं बनाई हैं उनमें से किसी को उसने संप्रभु नहीं बनाया है बल्कि इन सबका परस्परावलंबन निर्धारित किया है. सबकी दुम एक-दूसरे से बांध दी है. विधायिका कानून बनाने की सर्वोच्च संस्था हैन्यायपालिका उन कानूनों की वैधता जांचने वाली सर्वोच्च संस्था हैन्यायपालिका का कोई भी निर्णय संसद पलट सकती है लेकिन संसद कोई भी ऐसा निर्णय नहीं ले सकती है जिससे हमारे संविधान का बुनियादी ढांचा प्रभावित होता होऔर यह फैसला सिर्फऔर सिर्फ न्यायपालिका कर सकती है कि कबकहां और किसने यह लक्ष्मण-रेखा पार की है.                                

कार्यपालिका विधायिका के निर्देश पर काम करती है लेकिन वह पे-प्रमोशन-पेंशन के पीछे भागती चापलूसों की जमात नहीं है. असंवैधानिक निर्देश मानने के लिए वह लाचार नहीं है. उसमें अनैतिक व असंवैधानिक निर्देश मानने से इंकार करने का नैतिक बल होना चाहिए. वह न्यायपालिका की मदद लेने को भी स्वतंत्र है. 

लोकतंत्र के विकास-क्रम में एक चौथा खंभा भी विकसित हुआ है जिसे आज मीडिया कहते हैं. स्वतंत्रतासाहस व विवेक के तीन खंभों पर यह मीडिया टिका हुआ है जो स्वायत्त व स्वतंत्र तो है लेकिन अपने लिखे-बोले-दिखाए हर शब्द के लिए वह समाजन्यायपालिका व संसद के प्रति जवाबदेह भी है. इन चारों के बीच यह गजब की स्वायत्ता व गजब का परस्परावलंबन है जो संविधान ने रचा है. इसके आलोक में सारी संवैधानिक संस्थाओं को अपना आकलन करना चाहिए.    

इस आलोक में हमें अपनी न्यायपालिका को देखना चाहिए तथा न्यायपालिका को इस आईने में अपनी सूरत देखनी चाहिए. हम जब इस आलोक में अपनी न्यायपालिका को देखते हैं तो हमें अफसोस होता हैन्यायपालिका जब इस आईने में खुद को देखेगी तो डर जाएगी. मनुष्य बहुत सारी कमजोरियों का पुतला है- इस हद तक कि यह कहावत ही बन गई है कि गलती करना मनुष्य होने की पहचान है - टू इर इज ह्यूमन ! यह जानने व मानने के बाद हमने ही कुछ ऐसी संस्थाएं बनाईंकुछ ऐसे पद बनाए जिनकी नैतिक जिम्मेवारी है कि वे सामान्य मनुष्यों की सामान्य कमजोरियों से ऊपर उठ कर सोचें व व्यवहार करें. जेबकतरा लोभ व बेईमानी की मानवीय कमजोरी का एक उदाहरण है. वह भीड़ का फायदा उठा कर जेब काटता है. उससे नागरिक व पुलिस निबटते ही रहते हैं. लेकिन पुलिस ही जेबकतरा बन जाए तो हम क्या करेंगे इसलिए जरूरी है कि पुलिस का ऐसा प्रशिक्षण किया जाएउसमें ऐसा दायित्व-बोध भरा जाए कि वह सामान्य मानवीय कमजोरियों से ऊपर उठ कर काम करे. जब पुलिस ऐसी कल्पना पर खरी नहीं उतरती है तो हम उसके  प्रशिक्षण की नई योजना पर काम करते हैं. सारे पुलिस आयोग इसी कोशिश में बने हैं. 

ऐसा ही विधायिका के साथ भी हैन्यायपालिका के साथ भी है और कार्यपालिका के साथ भी है. इनकी निरंतर पहरेदारी होनी चाहिए - आंतरिक भी और वाह्य भी ! हमारी न्यायपालिका खुद की पहरेदारी कैसे करती है उसने चुनाव आयोग के गठन के बारे में जो फैसला आज दिया है क्या वह बीमारी उसे आज दिखाई दी हैयह तो पहले दिन से ही हमें दिखाई दे रहा था कि चुनाव यदि संसदीय लोकतंत्र का सबसे बड़ा अवलंबन है तो उसकी निगरानी करने वाली संस्था को मजबूतआत्मनिर्भर तथा सत्तानिरपेक्ष बनाना जरूरी है. जो हमें दिखाई दे रहा था वह न्यायपालिका को क्यों नहीं दिखाई दिया उसका यह अपराध बहुत संगीन हो जाता है क्योंकि संविधान ने उसे यही जिम्मेवारी दी है कि वह संवैधानिक संस्थाओं की ऐसी हर कमजोरी पर नजर रखेउसे जांचे-परखे और उसे ठीक करने की ठोस पहल करे. अपने वक्त में शेषन साहब ने यह दिखलाया भी था कि चुनाव आयोग यदि साहसपूर्ण स्वतंत्रता से काम करता है तो संसदीय लोकतंत्र को संभालने में कितनी मदद मिलती है. न्यायपालिका ने वह संकेत क्यों नहीं समझा उसने उस दिशा में क्यों काम नहीं किया बीमारी इतनी बिगड़ जाए कि मरीज मरणासन्न हो जाएयह डॉक्टर की विफलता है. मरणासन्न मरीज को बचा कर वाहवाही लूटने से यह बात छिपाई नहीं जा सकती है कि आप अपनी प्राथमिक जिम्मेवारी में विफल हुए हैं. ऐसा ही न्यापालिका के साथ भी हो रहा है. 

हमारी न्यायपालिका सामान्य मानवीय कमजोरियों की गिरफ्त में इस कदर है कि वह सामान्यत: मनुष्य जितना संयमसमझदारी व साहस दिखा पाता हैउतना भी नहीं दिखा पाती है. वह सत्ता से डरती हैवह सत्ता की कृपाकांक्षी होती हैवह केरियररिस्ट हैवह पार्टीबाजी की घटिया मानसिकता की शिकार है. वह मुकदमा जीतने के लिए शील व विवेक की कीमत नहीं करती है. संक्षेप में कहूं तो वह मानवीय कमजोरियों से ऊपर उठने का कोई तरीका विकसित नहीं कर सकी है. 

राहुल गांधी लंदन में क्या कहते हैं इस पर चिल्ल-पों करने वाले इस पर क्यों चुप्पी साध लेते हैं कि हमारा लोकतंत्र क्या कहता है वह संवैधानिक ऑक्सीजन की मांग कर रहा है.  वह कह रहा है कि मेरी आवाज सुनो! ( 18.03.2023)